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Monday, 22 June 2015

पिंजरा

                                                     लेखक : आशुतोष अस्थाना



मेट्रो की भीड़ में घुटन होरही थी।  आँखों में  नींद थी, शरीर थका हुआ था।  लग रहा था कहीं  से एक बिस्तर और तकिया मिल जाए, बस रात भर के जागरण को तुरंत विराम दे दूंगा। मेट्रो में लगे स्टेशन चार्ट की ओर देखा, अभी तो आधे घंटे का रास्ता बाकी था (आप ने इसी से अंदाज़ा लगा लिया होगा की मैं भारतीय हूँ! वो क्या है की हम भारतीय रास्ते की दूरी  किलोमीटर से नहीं समय से नापते हैं!) बगल में अख़बार पढ़ते एक सज्जन बैठे थे, और सामने कम उम्र की लड़की जो अपने स्मार्ट फ़ोन में कुछ देख कर मुस्कुरा रही थी।  नींद का आलम कुछ ऐसा था की बाकियों का चेहरा ठीक से याद नहीं है।

सुबह के 9 बज रहे थे और मैं अपनी रात की शिफ्ट कर के घर जारहा था।  अबतक तो आप समझ गए होंगे की ऊपर दिया हुआ वर्णन मेरी ही स्थिति का है। खैर किसी तरह अपने आप को जगाने के प्रयास में चारो ओर नज़र घुमाई तो देखा की मेरी सीट से कुछ दूर एक लड़की बैठी थी। आकर्षण का केंद्र उस लड़की का चेहरा नहीं था, बल्कि उसकी शार्ट स्कर्ट थी जो सिर्फ मेरा ही नहीं कोच में बैठे अधिकतर लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रही थी। हम उम्र लड़कियां उसे जलन से देख रही थीं, बड़ी महिलाएं आश्चर्य से और पुरषों की बात क्या करें! लड़के तो बीच-बीच में दर्शन कर ही लेरहे थे लेकिन मेरे बगल में बैठे श्रीमान जो अखबार पढ़ रहे थे वो कनखियों से उस लड़की को निहार लेरहे थे। नज़रें घुमाने के बाद मैंने स्टेशन देखने के लिए खिड़की की ओर  देखा। कीर्ति नगर स्टेशन पर गाडी रुकी, यात्रियों के एक बड़े  हुजूम ने गाड़ी में प्रवेश किया और कई लोग गाड़ी से उतर गए।

ट्रेन चलने के बाद जब मैंने उस लड़की की ओर फिर से देखा तो वो जा चुकी थी। उसकी जगह पे एक सात या आठ साल की लड़की बैठी थी।  उस लड़की के बगल में कम उम्र के एक सज्जन बैठे थे जो उसके पिता ही लग रहे थे और सामने की सीट पर उसकी माँ बैठी हुई थीं। कोमल सा चेहरा, चंचल स्वभाव, प्यारी सी मुस्कान, वो छोटी लड़की बहुत प्यारी थी! उसने गुलाबी रंग की एक फ्रॉक पहनी थी जिसके  निचले हिस्से से वो बार-बार अपनी नाक साफ़ कर रही थी। वो अपने पिता के साथ बातें कर रही थी और उनकी गोद में सर रख के लेट जारही थी। सामने बैठी उसकी माँ उसे घूरती तो वो फिर से सीधे बैठ जाती। जब ऊबने लगती तो फिर से अपनी फ्रॉक उठा कर अपनी नाक साफ करती।  जब उसने दो या तीन बार ऐसा किया तब उसकी माँ ने उसे एक रुमाल देदिया। फिर भी उस बच्ची को फ्रॉक से नाक साफ करने में शायद मज़ा आरहा था। उसकी माँ फिर से उसे आँखे दिखाती और फ्रॉक नीचे करने के लिए बोलती, माँ को गुस्सा करता देख वो लड़की थोड़ा डर गई और अपनी फ्रॉक को अपने दोनों हाथों से नीचे अपने घुटने तक करने लगी।

मैं अपनी सीट पर बैठा बस उस लड़की को देख रहा था, अब जैसे ही वो अपने पिता के गोद में दुबारा लेट रही थी तो अपने दोनों हाथों से अपनी फ्रॉक नीचे कर रही थी।  मुझे वो देख कर कुछ अजीब लगा। उस छोटी सी बच्ची ने ऐसा क्यों किया, मेरा मतलब है की क्या उसके फ्रॉक उठाने पर उसकी माँ का डाटना समझ आरहा था? क्या उसे ये समझ आया होगा की उसकी माँ उसे क्यों बार -बार फ्रॉक नीचे करने के लिए बोल रही थी? उसके लिए तो वो खेल था, मेट्रो के उस उबाऊ रस्ते को काटने का! तो क्यों उसकी माँ ने मना किया? मुझे ऐसा लगा की उस एक पल में उस माँ ने उस छोटी बच्ची को 'लड़की' होने के मायने बता दिए शायद वो पहली सीढ़ी थी जहाँ उस लड़की की खुशियों को दबाया गया। आगे ना जाने कितने ऐसे मौके आएंगे जब उस लड़की को त्याग करना पड़ेगा। समाज की बनाई रीतियों में उस माँ ने उस छोटी सी बच्ची को जकड़ दिया। मैं यूँही बैठा सोच रहा था की अचानक बगल वाले आदमी ने जो अखबार पकड़ा था उसमें मैंने पढ़ा, की 5 साल की एक बच्ची के साथ हैवानियत की गई है!
सारे प्रश्न चिन्ह् दूर होगये, सारी उलझनें खत्म होगईं!

तभी एक भूकंप उठा! मानस में! कुछ देर पहले की घटना याद आई! वो लड़की याद आई, उसकी पोशाक याद आई! लोगों की नज़रें याद आईं! उस बच्ची की ओर देखा जो अपने पिता से बातें कर रही थी। कैसा सुख का अनुभव हुआ होगा उसकी माँ को की उसने अपनी बेटी को आज इस समाज में रहने का पहला पाठ पढ़ाया। उस लड़की की स्वतंत्रता छीन ली! लेकिन हम ही तो हैं उसकी स्वतंत्रता छीनने वाले! उसका बचपन छीनने वाले! अब उस लड़की की माँ उसे ये नहीं बताएगी की  क्या पहनो, वो अब उसे बताएगी की क्या ना पहनो, वो उसे ये नहीं बताएगी की कहाँ जाओ, लेकिन वो उसे बताएगी की कहाँ मत जाओ।
मन व्याकुल था, 3 स्टेशन और थे, जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहता था।

एक मासूम परिंदे से आसमान का कुछ हिस्सा छीन लिया गया है। जिससे गिद्ध उसपे मंडरा सकें। कुछ समय में थोड़ा और हिस्सा छीन लिया जायेगा! थोड़ा और, कुछ और! अंत में उन मासूम परिंदो को एक पिंजरे में बंद कर दिया जायेगा। सिर्फ उन गिद्धों से बचाने  के लिए। और जो परिंदा पिंजरे तोड़ के खुले आसमान की ओर उड़ना चाहेगा, उन्हें साथी परिंदे गिरी हुई नज़रों से चौंक कर देखेंगे, और वो गिद्ध,…  वो उसे खा जाएंगे! जो परिंदे बच जायेंगे उनके पर काट दिए जायेंगे जिससे वो फिर ऐसी गुस्ताखी ना करें!
दुःख है की उन गिद्धों की प्रजाति का मैं भी हूँ!

स्टेशन आगया  था। मैं उतर गया। आज़ाद परिंदे को जाते हुए देखा, और अपने घर की ओर चल दिया…
वो भूकंप था, अभी भी है, आगे भी रहेगा.......  

(गिद्ध बनो, ज़रूर बनो, लेकिन अपनी उड़ान से, नीचता से नही....)

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