लेखक: आशुतोष अस्थाना
दुनिया का हर जीव
अपने बच्चों के प्रति बेहद संवेदनशील होता है. बच्चे को जन्म देने से लेकर उसके
पालनपोषण तक, उसकी देखभाल करने से लेकर उसकी ज़रूरतों को पूरा करने तक, चाहे वो कोई
भी जीव हो अपने बच्चे को सबसे अधिक स्नेह करता है. माता-पिता किस तरह ज़रा सी चोट
लग जाने पर अपने बच्चे के लिए आंसू बहाने लगते हैं. सिर्फ माँ-बाप ही नहीं, बच्चे
भी अपने घर, माता-पिता और परिवार के लिए संवेदनशील होते हैं. पर समय के साथ इस
संवेदनशीलता में कई तरह के परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं.
बदलते दौर में
इंसानों के हर वर्ग में बदलाव देखने को मिल रहे हैं, चाहे वो शारीरिक हो या
मानसिक. बदलाव आना स्वाभाविक भी है लेकिन आज के युवाओं में जिस तरह का बदलाव देखने
को मिल रहा है वो चौंकाने वाला है. आज की पीढ़ी की सोच एक विपरीत दिशा में बढ़ रही
है जिसे सही या गलत ठहराना मुश्किल है. वो परिवार के लिए संवेदनशील नहीं हैं,
माता-पिता के साथ समय बिताना उन्हें उबाऊ लगता है और इस बात का सबसे बड़ा कारण वो
पीढ़ी का अंतर या जनरेशन गैप बताते हैं. युवा अपने चारों तरफ एक अजीब सी दीवार खड़ी
करते जा रहे हैं जिसको वो ‘पर्सनल स्पेस’ कह कर समायोजित करते
हैं. इस दीवार में वो अपनी भावनाएं क़ैद कर लेते हैं. परिवार के निकट न होने के
कारण वो इन भावनाओं को किसी से साझा नहीं करते, अपने मन में एक अँधेरा कमरा बनाकर
उन भावनाओं को वो उसमें छुपा ले रहे हैं जो समय के साथ एक विस्फोट के साथ बाहर
निकल रहा है! उन्हें ये भ्रम है कि उनकी बातों को कोई नहीं समझेगा, उन्हें अपने से
बड़े या समझदार पर भरोसा नहीं है, उन्हें अपने मित्रों पर भरोसा है लेकिन वो भूल जा
रहे हैं कि उनके मित्र जो उन्हीं की उम्र के हैं, उसी समस्या से जूझ रहे हैं.
उन्हें खुद नहीं पता की वो किस अनजान चीज़ की तलाश में हैं और अपने मनगढ़ंत खयालों
से दुखी हो कर मन में एक दर्द को बसा ले रहे हैं. असल बात तो ये है की वो अपनी
स्थिति को अतिरंजित कर रहे हैं जिसके चलते उन्हें अपनी स्थिति पर दया आने लग रही
है. उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगता है की दुनिया का सबसे बड़ा दर्द उन्हीं का है
जिससे पार पाना मुश्किल है. कम उम्र में दुनिया की बुरी छवि उनके मन में बस जा रही
है जिसके चलते हर वो चीज़ जो उनके खिलाफ है, उन्हें गलत लगने लग रही है.
भारत में हर साल 15
से 29 साल के हजारों युवा आत्महत्या कर रहे हैं. इन सब में कई ऐसे हैं जो प्यार में
मात खा जाने के कारण, परीक्षा में असफल होजाने के कारण और घर के किसी विवाद के
कारण ऐसा कदम उठा रहे हैं. हाल ही में छोटे परदे की मशहूर कलाकार प्रत्यूष बनर्जी
की आत्महत्या का मामला सामने आया जिसने सभी को चौंका दिया. खबर मिली की प्रत्यूष
अपने परिवार से अलग मुंबई में रहती थी. उसने अपने जीवन में घट रही छोटी-बड़ी घटनाओं
के बारे में अपने माता-पिता को नहीं बताया था. वो खुद अपने में इतना उलझ गयी थी कि
उसे आत्महत्या करना सही लगा होगा. लेकिन इस घटना में एक बड़ा सवाल ये उठता है की
जिंदगी को खत्म कर लेना किसी भी समस्या का समाधान कैसे है? ये स्वभाव आज के युवाओं में काफी देखने को मिल रहा
है. उन्हें गाँठ खोलना नहीं, उसे काट देना सिखाया जाता है. शायद यही कारण है कि वो
समस्याओं से लड़ते नहीं, उस जड़ को ही खत्म करने की कोशिश करते हैं जिससे वो समस्या
पैदा हुई है. हर रोज़ अखबार ऐसे युवाओं की आत्महत्या की ख़बरों से पटा पड़ा रहता है
जो जीवन से हार कर ख़ुदकुशी कर लेते हैं. जीवन को
खत्म कर लेना समाधान नहीं है, चुनौतियों से डरने के बजाये उनका सामना करना ही
समाधान है. वैसे मैं इन सारी बातों का दोष सिर्फ युवाओं को ही नहीं दूंगा. बचपन में
बच्चों के स्कूल से घर आते ही माता-पिता उनसे दिन के बारे में पूछते थे, बड़े होते
ही उनके जीवन के बारे में वो पूछना ही छोड़ देते हैं. बच्चों के लिए समय निकालना
मुश्किल हो जाता है. कई बातें ऐसी होती हैं जो वो अपने बच्चों से नहीं कर पाते.
इसमें हमारे समाज और संस्कृति की भी कुछ बातें कुरीतियाँ बनती हैं. अगर कोई युवा
धुम्रपान या शराब का सेवन करता है तो उसके माता-पिता
उसे उन चीजों की शरीर पर पड़ने वाली खामियां नहीं बताते बल्कि वो उन्हें सामाजिक
दबाव के रूप में पेश करते हैं. वो उन्हें शराब या सिगरेट पीने से डांटते हैं लेकिन
सेहत का हवाला देकर नहीं, घर की बदनामी होने की बात से डराते हैं. अपने बच्चों से
उनकी पसंद-नापसंद के बारे में बात तक नहीं करते, उनकी
भावनाओं को जानने और समझने की कोशिश तक नहीं करते. यौवनावस्था उम्र का एक ऐसा पड़ाव
है जब प्रेम और संबंधों में युवा अपने आपको बांधना शुरू कर देते हैं. माता-पिता को
उनके रिश्तों को जानना चाहिए और वो रिश्ते उनके बच्चों के लिए क्या एहमियत रखते
हैं वो समझना चाहिए लेकिन माता-पिता को जब ये पता चलता है तो वो बच्चों की भावनाओं
को नहीं समझते यही कारण है की बच्चे खुद को अकेला समझने लगते हैं. उन्हें लगता है
कि माँ-बाप उनसे प्यार नहीं करते. सिर्फ यही नहीं, कम उम्र में बहकावे के और भी
रास्ते हैं जिनपर माता-पिता ध्यान नहीं देते. कितने ही नौजवान आतंकवाद की ओर अपने
कदम बढ़ाते हैं, इन सब में कई ऐसे होते हैं जो सही मार्गदर्शन के बिना बहक जाते
हैं.
ये सही है कि हर
पीढ़ी उम्र के एक जैसे पड़ाव से घुज़रती है. हमसे पहले की पीढ़ी भी युवा उम्र से गुज़री
थी, हम भी गुज़र रहे हैं और आगे की पीढ़ी भी गुज़रेगी. लेकिन पहले की पीढ़ी के साथ
परिवार का लगाव कुछ अलग ही था. इंटरनेट, मोबाइल जैसे बहकाने वाले उपकरण तब नहीं
थे. पूरा घर एक दूसरे की समस्याओं को सुलझाता था. अब के समय में हम पूरी दुनिया के
साथ तो जुड़ गए हैं लेकिन अपने माता-पिता और घर से अलग होते जारहे हैं. परिवार किसी
भी ईमारत की बुनियाद की तरह होता है. उससे दूर हमारा कोई वजूद ही नहीं है. युवाओं
को खुद को अकेलेपन से बचाने के लिए परिवार के निकट रहना ज़रूरी है क्यूंकि वो हमारा
शकित केंद्र है और माता-पिता को अपने बच्चों की भावनाओं को समझना ज़रूरी है. इस
21वीं सदी की पीढ़ी को हम ऐसे ही आत्महत्या करने के लिए अकेला नहीं छोड़ सकते
क्यूंकि यही पीढ़ी देश का भविष्य है.


Nice blog Ashutosh. Yes good parenting is required..Parents should try to understand problem first rather giving solution directly.
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