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Tuesday, 10 May 2016

बरमूडा ट्रायंगल है ये मीडिया



              लेखक-आशुतोष अस्थाना



बरमूडा ट्रायंगल, नार्थ अटलांटिक महासागर का एक ऐसा रहस्यमय हिस्सा है जिसके बारे में अभी तक वैज्ञानिक अधिक नहीं जान सके हैं. ये एक ऐसा हिस्सा है जिसमें हवाईजहाज़ या पानी का जहाज़ जाते ही रहस्यमय ढंग से गायब हो जाता है. वर्षों से ऐसी कई घटनाएँ यहाँ दर्ज हो चुकी हैं जिससे इस इलाके का नाम ‘हौंटेड’ जगहों में दर्ज हो चुका है. कुछ ऐसी ही विशेषता इन दिनों भारतीय मीडिया में भी देखने को मिल रही है. बरमूडा ट्रायंगल और मीडिया दो अलग चीज़ें हैं लेकिन इनके स्वरुप में आज कल काफी समानता देखने को मिल रही है.







भारत में मीडिया का विकास एक मिशन के रूप में हुआ था. साहित्यकारों और समाज सेवकों की एक बड़ी फ़ौज इस मिशन को आगे ले जाने का कार्य कर रही थी. भारत में मीडिया के माध्यम से कई बड़े परिवर्तन देश में हो रहे थे. 90 के दशक तक स्थिति सामान्य थी. भारतवासियों को जागरूक करने का कार्य मीडिया बेहतर ढंग से कर रहा था. 90 के दशक में एफडीआई के निवेश के साथ देश की रूपरेखा बदलने लगी थी. उसी दौरान मीडिया में भी बाहरी रुपयों का निवेश शुरू हुआ और वही समय था जब इस मिशन में कमीशन का आदान-प्रदान शुरू होगया. इक्कीसवीं सदी की शुरुआत तक स्थिति काफी हद तक काबू में थी लेकिन ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव ख़बरों ने मीडिया में उथल-पुथल का दौर शुरू कर दिया. क्रॉस मीडिय ओनरशिप का दौर शुरू होते ही मीडिया पर चिटफंड कंपनी के मालिकों ने अपना कब्ज़ा जमा लिया. फिर शुरू हुआ मीडिया में खबरों को तोड़ने-मरोड़ने का दौर. जो मिशन की तरह शुरू हुआ था आज वो व्यपार मात्र ही रह गया है. अब आप सोच रहे होंगे की इन सब बातों में मीडिया को बरमूडा ट्रायंगल से जोड़ने का अर्थ क्या है. जबसे न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में टीआरपी की जंग शुरू हुई है तब से ख़बरों की वास्तविक्ता और विश्वसनीयता पर बट्टा लग चुका है. अब खबरों के मामले में वो नहीं दिखाया जाता जो दर्शक देखना चाहते हैं, अब सिर्फ वो दर्शाया जाता है जिससे चैनलों की टीआरपी बढ़े. आज के समय में मुद्दे चैनलों की टीआरपी में बिलकुल वैसे ही खोते जा रहे हैं जैसे बरमूडा ट्रायंगल में हवाईजाहाज़ खो जाते हैं.






हालही की घटनाओं की बात करें तो ऐसी कई खबरें हैं जिन्हें मीडिया ने ज़ोरों से कवर किया लेकिन मीडिया में अब उनका अस्तित्व ही नहीं है. उन ख़बरों की चर्चा ही नहीं होती. राधे माँ को कौन भूल सकता है. अपने ढोंग से सुर्ख़ियों में आईं राधे माँ का अब कोई अता-पता नहीं है. राधे माँ के खिलाफ कई इलज़ाम लगे, मामले दर्ज हुए, मीडिया ने भी उनको अपनी ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ बना डाला, लेकिन अब, उनकी चर्चाएँ ही ख़त्म हो गयीं. एक समय में लग रहा था मानों पूरा देश सहनशील-असहनशील जैसे दो भागों में बंट चुका है. मीडिया ने तो ‘असहिष्णुता’ शब्द को इतना प्रचलित कर दिया था की कई ऐसे लोग थे जिनकी शब्दावली में पहली दफा ये शब्द जुड़ा था. लग रहा था मानों देश में हर व्यक्ति असहिष्णु होचुका है. इस मुद्दे को इतनी हवा दी गयी कि इसके परे कोई दूसरा मुद्दा देश में बचा ही नहीं था. लेकिन ये मुद्दा भी कुछ ही दिनों में इस बरमूडा ट्रायंगल में खो गया. कुछ दिनों पहले के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से जुड़े विवाद को कौन भूल सकता है. उस पर तो ऐसी राजनीती हुई थी जैसी पहले कभी किसी मुद्दे पर नहीं हुई. तब मीडिया ने भी पूरी शिद्दत से छात्रों पर देशद्रोह का ठप्पा लगाया. कन्हैया कुमार को राष्ट्रीय नेता बनाने की ओर अग्रसर होचुका था मीडिया. झूठे विडियो को बेझिझक प्राइमटाइम पर चलाया गया. बाद में कुछ चैनलों ने माफ़ी मांगी लेकिन कुछ तो उस गलती को करने के बाद डकार लेना भी भूल गए. बेशक इससे जनता पर बुरा प्रभाव पड़ा पर देखते ही देखते जेएनयू का मुद्दा भी हवा होगया. अवार्ड वापसी, बीफ पर बवाल, इक्लाख की मौत, तोमर की डिग्री, और कई ऐसे मुद्दे पिछले कुछ दिनों में इस त्रिकोण में आये और रहस्यमय ढंग से गायब होगए. आज कल विजय माल्या, मोदी की डिग्री और उत्तराखंड मामले जैसे बड़े मुद्दे इस बरमूडा ट्रायंगल की ओर बढ़ रहे हैं, कुछ समय और, ये भी उनमें गायब होजाएंगे. 






जहाँ मीडिया समाज का एक हिस्सा मात्र होना चाहिए था, वहीँ आज मीडिया समाज के निर्माता का किरदार निभा रहा है. दर्शकों को क्या देखना है, क्या सुनना है और क्या पढ़ना है ये दर्शक और पाठक खुद नहीं, मीडिया तय कर रहा है. कहा जाता है कि इंसान को अपनी सूझ-बूझ से अपनी राय खुद बनानी चाहिए, लेकिन मीडिया ऐसा होने ही नहीं दे रहा है. वो अपने दृष्टिकोण को पाठक या दर्शकों के दृष्टिकोण पर थोप राह है और गौर करने वाली बात ये है की मीडिया का दृष्टिकोण असल में उस मीडिया कंपनी में किसी बड़े पद पर आसीन व्यक्ति का होता है जो लोगों पर भी हावी होता है. आज के समय में किसी के भी वामपंथी या दक्षिणपंथी होने का श्रेय मीडिया पर काफी हद तक जाता है क्यूंकि चैनल और अखबार अपनी राजनीतिक विचारधारा को लोगों पर थोपते हैं. इसका जीता-जागता सबूत इन दिनों सोशल मीडिया पर खूब देखने को मिल रहा है जहाँ लोग पूरी बात जाने बिना ही किसी विचारधारा पर अंधविश्वास कर ले रहे हैं. इससे साम्प्रदायिकता का स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है. 





बेशक मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है लेकिन आज जो वो कर रहा है वो लोकतंत्र के खिलाफ है. चैनलों पर चार पांच लोग किसी को भी मुजरिम घोषित कर दे रहे हैं जिससे जनता भी उस व्यक्ति को उसी नज़रिए से देख रही है. किसी भी मुद्दे के पैदा होते ही मीडिया उसपर मंथन शुरू कर देता है, मीडिया में ऊंचे पद पर आसीन लोग अपने दृष्टिकोण से खबर दिखाते हैं और जनता को उस पर अपनी राय बनाने का समय ही नहीं मिलता. नतीजा ये होता है की देश के किसी बड़े शैक्षणिक संस्थान पर आतंकवाद का अड्डा होने का ठप्पा लगा दिया जाता है.

आज स्थिति कुछ ऐसी है की इस बरमूडा ट्रायंगल से पार पाना मुश्किल सा लग रहा है. मीडिया जनता को सच से रूबरू कराने के लिए था न की नया सच खुद गढ़ कर जनता के सामने पेश करने के लिए. रहस्य बरकरार है. अभी ये त्रिकोण और क्या क्या निगलेगा, देखना बाकी है.  




  

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