लेखक : आशुतोष अस्थाना
(इस कहानी का मुख्या पात्र वह घटनाएं काल्पनिक हैं जिसका किसी भी व्यक्ति से
कोई संबंध नहीं है. अगर इसका संबंध किसी भी व्यक्ति या घटना से हुआ तो उसे मात्र
एक संयोग कहेंगें!)
जीवन के पथ पर चलते-चलते
हमे बहुत से पथिक मिलते है, उन्ही पथिकों में अक्सर हमे कुछ ऐसे लोग मिल जाते है
जो सामान्य होकर भी अपना एक असामान्य सा परिचय दे जाते हैं. आप उन्हें जानते नहीं
हैं, सिर्फ पहचानते हैं, आप उनसे मुलाकात नहीं करते, मुलाकात होजाती है. आपको उनकी
याद नहीं आती लेकिन समय-समय पर कोई न कोई आपको उनकी याद दिलादेता है....यही तो
होती है जिंदगी, मिलते तो हम बहुतों से हैं लेकिन दिल में घर कुछ ही कर जाते हैं, लेकिन ऐसे लोग, जिनकी बात
मैं यहाँ कर रहा हूँ, अपने घर केवल हमारे दिल में ही नहीं दिमाग में भी बना लेते
हैं. इनही असामान्य पथिकों में से एक थे हमारे डॉक्टर साहब.
बड़े से शहर की एक बड़ी सड़क
पर चलती बड़े लोगों की बड़ी-बड़ी गाड़ियों का बजता हॉर्न इस बात का सबूत था की वो सड़क
शहर के बीचों-बीच स्थित थी. सड़क के दोनों ओर कई दुकाने थी जिससे उस मोहल्ले में
काफी चहल-पहल रहती थी. इसी सड़क के एक कोने में दो बड़ी दुकानों के बीच एक छोटी सी
दुकान में बैठते थे हमारे डॉक्टर पाण्डेय. उस छोटी सी दुकान में कोठरी नुमा
दो कमरे थे जिसमें भीतर वाला कमरा डॉक्टर साहब का था. सामने वाले कक्ष में मरीजों
के बैठने के लिए कुर्सियां रखी रहती थीं और एक कोने में छोटी सी मेज़ पर कम्पाउण्डर
बाबु दवाइयाँ बनाते थे. कम्पाउण्डर के बगल में दीवार पर एक शेल्फ में दवायें रखी
रहती थी. डॉक्टर साहब होमियोपैथी के डॉक्टर थे, ४५-५० साल की उम्र, सावलें रंग का मोटा
शरीर और झड़े हुए सर के बाल इस बात का सबूत थे की उन्हें अपने काम का अच्छा तजुर्बा
था. उनको बातें करने का बहुत शौख था और इसीलिए अपने मरीजों से उनकी बीमारी के बारे
में जानने से ज़्यदा वो उनसे घूमने के नए स्थानों के बारे में जानना पसंद करते थे.
बातें करते-करते नए व्यंजन बनाना सीख लेते तथा सिखा देते थे. दवाइयाँ बाटने के साथ
अपने अनुभव भी बांटते थे. उनकी बोली में रफ़्तार इतनी ज़्यदा थी की मरीज़ को सिर्फ
पहला शब्द और आखिरी शब्द समझ में आता था, बाकी वो अपने विवेक से समझ लेते थे!
इसीलिए डॉ. पाण्डेय के मरीजों में बीमारी के साथ विवेक और समझने की क्षमता भी होना
ज़रूरी था.
इलाहाबाद शहर की एक खासियत
है, आपको मोहल्लों में एक भी मरीज़ मिले न मिले दर्जनों डॉक्टर ज़रूर मिल जाते हैं.
बस इसी तथ्य को सत्य हमारे डॉक्टर पाण्डेय भी करते थे और इसी वजह से उनका नाम
सिर्फ उसी मोहल्ले में गूंजता था, नतीजा, मरीजों की संख्या बहुत कम थी. ईद के चाँद
की तरह मरीज़ भी अपनी झलक हफ्तों में दिखाया करते थे. संख्या बढ़ाने के लिए उन्होंने
अपना परामर्श शुल्क भी कम करदिया था लेकिन बदलाव अधिक नहीं हुआ था. महीने भर में
डॉक्टर साहब ६००० रु से अधिक नहीं कमा पाते थे और उसके ऊपर से उन्हें हर महीने
कम्पाउण्डर बाबु को १५०० रु उनकी तनख्वा के रूप में देने पड़ते थे. इसके बावजूद
गुज़र-बसर होरहा था क्यूंकि देश की आबादी बढ़ाने में डॉक्टर साहब का कोई योगदान नहीं
था, घर में केवल पत्नी जी थीं जो कैंसर से लड़ रही थीं और माता जी २ साल पहले भगवन
को प्यारी होगई थीं. खैर, हमे उनकी ग्रहस्ती से मतलब कम है (अब क्यों किसी के
मनोरंजन के लिए किसी दूसरे के ग्रहस्त जीवन में खलल डालें).
मरीज़ कम होने की वजह से
डॉक्टर साहब का सारा दिन अकेले में बीतता था. कम्पाउण्डर बाबु बड़े शांत व्यक्ति थे
और पुरे दिन में सिर्फ इतना बोलते थे कि, “आपकी दावा तयार है”. कभी अगर किसी दावा
को पढ़ने में या समझने में मुश्किल होती तो डॉक्टर साहब से पूछ लेते. वो उम्र में
डॉक्टर साहब से ज़्यदा छोटे तोह नहीं थे लेकिन फिर भी उनसे ज़्यदा बात नहीं करते थे
जिसका कारण मुझे डॉक्टर साहब की कभी न खत्म होने वाली बातें ही लगता है. अक्सर
डॉक्टर साहब कम्पाउण्डर बाबु से कोई बात छेड़ते जिसका उत्तर उन्हें थोड़ी देर तक तो
पूर्ण वाक्य के रूप में मिलता लेकिन फिर, “हाँ”, “हूँ” में बदल जाता. फिर डॉक्टर
साहब बाहर निकल के बगल के दुकानदारों से बात करते लेकिन उन्हें कोई सक्रिय श्रोता
न मिलता. हार कर वापस अपने कक्ष में आजाते और बैठ के अख़बार पढ़ने लगते. कभी कोई
पत्रिका खोल के पढ़ने लगते जो वो अपने साथ घर से लाते थे तो कभी होमियोपैथी की कोई
पुस्तक पढ़ने लगजाते. फिर हर चीज़ से उब कर छत देखने लगते और कुछ सोचने लगते, अंत
में मेज़ पर सर रख के सोजाते. डॉक्टर साहब के अधिकतर दिन ऐसी ही बीतते थे, और
उन्हें बस इंतज़ार होता था अपने ग्राहकों का ताकि वो उनसे खुल कर बाते कर सकें.
(शेष कहानी अगले भाग में..........)
अच्छी शुरुआत है ...... उम्मीद है अंजाम रोचक होगा ,,,,, nyc keep it up bro..
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