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Tuesday, 17 May 2016

कितनी अकेली है ये पीढ़ी


                   लेखक: आशुतोष अस्थाना




दुनिया का हर जीव अपने बच्चों के प्रति बेहद संवेदनशील होता है. बच्चे को जन्म देने से लेकर उसके पालनपोषण तक, उसकी देखभाल करने से लेकर उसकी ज़रूरतों को पूरा करने तक, चाहे वो कोई भी जीव हो अपने बच्चे को सबसे अधिक स्नेह करता है. माता-पिता किस तरह ज़रा सी चोट लग जाने पर अपने बच्चे के लिए आंसू बहाने लगते हैं. सिर्फ माँ-बाप ही नहीं, बच्चे भी अपने घर, माता-पिता और परिवार के लिए संवेदनशील होते हैं. पर समय के साथ इस संवेदनशीलता में कई तरह के परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं.

बदलते दौर में इंसानों के हर वर्ग में बदलाव देखने को मिल रहे हैं, चाहे वो शारीरिक हो या मानसिक. बदलाव आना स्वाभाविक भी है लेकिन आज के युवाओं में जिस तरह का बदलाव देखने को मिल रहा है वो चौंकाने वाला है. आज की पीढ़ी की सोच एक विपरीत दिशा में बढ़ रही है जिसे सही या गलत ठहराना मुश्किल है. वो परिवार के लिए संवेदनशील नहीं हैं, माता-पिता के साथ समय बिताना उन्हें उबाऊ लगता है और इस बात का सबसे बड़ा कारण वो पीढ़ी का अंतर या जनरेशन गैप बताते हैं. युवा अपने चारों तरफ एक अजीब सी दीवार खड़ी करते जा रहे हैं जिसको वो पर्सनल स्पेस कह कर समायोजित करते हैं. इस दीवार में वो अपनी भावनाएं क़ैद कर लेते हैं. परिवार के निकट न होने के कारण वो इन भावनाओं को किसी से साझा नहीं करते, अपने मन में एक अँधेरा कमरा बनाकर उन भावनाओं को वो उसमें छुपा ले रहे हैं जो समय के साथ एक विस्फोट के साथ बाहर निकल रहा है! उन्हें ये भ्रम है कि उनकी बातों को कोई नहीं समझेगा, उन्हें अपने से बड़े या समझदार पर भरोसा नहीं है, उन्हें अपने मित्रों पर भरोसा है लेकिन वो भूल जा रहे हैं कि उनके मित्र जो उन्हीं की उम्र के हैं, उसी समस्या से जूझ रहे हैं. उन्हें खुद नहीं पता की वो किस अनजान चीज़ की तलाश में हैं और अपने मनगढ़ंत खयालों से दुखी हो कर मन में एक दर्द को बसा ले रहे हैं. असल बात तो ये है की वो अपनी स्थिति को अतिरंजित कर रहे हैं जिसके चलते उन्हें अपनी स्थिति पर दया आने लग रही है. उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगता है की दुनिया का सबसे बड़ा दर्द उन्हीं का है जिससे पार पाना मुश्किल है. कम उम्र में दुनिया की बुरी छवि उनके मन में बस जा रही है जिसके चलते हर वो चीज़ जो उनके खिलाफ है, उन्हें गलत लगने लग रही है.

भारत में हर साल 15 से 29 साल के हजारों युवा आत्महत्या कर रहे हैं. इन सब में कई ऐसे हैं जो प्यार में मात खा जाने के कारण, परीक्षा में असफल होजाने के कारण और घर के किसी विवाद के कारण ऐसा कदम उठा रहे हैं. हाल ही में छोटे परदे की मशहूर कलाकार प्रत्यूष बनर्जी की आत्महत्या का मामला सामने आया जिसने सभी को चौंका दिया. खबर मिली की प्रत्यूष अपने परिवार से अलग मुंबई में रहती थी. उसने अपने जीवन में घट रही छोटी-बड़ी घटनाओं के बारे में अपने माता-पिता को नहीं बताया था. वो खुद अपने में इतना उलझ गयी थी कि उसे आत्महत्या करना सही लगा होगा. लेकिन इस घटना में एक बड़ा सवाल ये उठता है की जिंदगी को खत्म कर लेना किसी भी समस्या का समाधान कैसे है? ये  स्वभाव आज के युवाओं में काफी देखने को मिल रहा है. उन्हें गाँठ खोलना नहीं, उसे काट देना सिखाया जाता है. शायद यही कारण है कि वो समस्याओं से लड़ते नहीं, उस जड़ को ही खत्म करने की कोशिश करते हैं जिससे वो समस्या पैदा हुई है. हर रोज़ अखबार ऐसे युवाओं की आत्महत्या की ख़बरों से पटा पड़ा रहता है जो जीवन से हार कर ख़ुदकुशी कर लेते हैं. जीवन को खत्म कर लेना समाधान नहीं है, चुनौतियों से डरने के बजाये उनका सामना करना ही समाधान है. वैसे मैं इन सारी बातों का दोष सिर्फ युवाओं को ही नहीं दूंगा. बचपन में बच्चों के स्कूल से घर आते ही माता-पिता उनसे दिन के बारे में पूछते थे, बड़े होते ही उनके जीवन के बारे में वो पूछना ही छोड़ देते हैं. बच्चों के लिए समय निकालना मुश्किल हो जाता है. कई बातें ऐसी होती हैं जो वो अपने बच्चों से नहीं कर पाते. इसमें हमारे समाज और संस्कृति की भी कुछ बातें कुरीतियाँ बनती हैं. अगर कोई युवा धुम्रपान या शराब का सेवन करता है तो उसके माता-पिता उसे उन चीजों की शरीर पर पड़ने वाली खामियां नहीं बताते बल्कि वो उन्हें सामाजिक दबाव के रूप में पेश करते हैं. वो उन्हें शराब या सिगरेट पीने से डांटते हैं लेकिन सेहत का हवाला देकर नहीं, घर की बदनामी होने की बात से डराते हैं. अपने बच्चों से उनकी पसंद-नापसंद के बारे में बात तक नहीं करते, उनकी भावनाओं को जानने और समझने की कोशिश तक नहीं करते. यौवनावस्था उम्र का एक ऐसा पड़ाव है जब प्रेम और संबंधों में युवा अपने आपको बांधना शुरू कर देते हैं. माता-पिता को उनके रिश्तों को जानना चाहिए और वो रिश्ते उनके बच्चों के लिए क्या एहमियत रखते हैं वो समझना चाहिए लेकिन माता-पिता को जब ये पता चलता है तो वो बच्चों की भावनाओं को नहीं समझते यही कारण है की बच्चे खुद को अकेला समझने लगते हैं. उन्हें लगता है कि माँ-बाप उनसे प्यार नहीं करते. सिर्फ यही नहीं, कम उम्र में बहकावे के और भी रास्ते हैं जिनपर माता-पिता ध्यान नहीं देते. कितने ही नौजवान आतंकवाद की ओर अपने कदम बढ़ाते हैं, इन सब में कई ऐसे होते हैं जो सही मार्गदर्शन के बिना बहक जाते हैं.

ये सही है कि हर पीढ़ी उम्र के एक जैसे पड़ाव से घुज़रती है. हमसे पहले की पीढ़ी भी युवा उम्र से गुज़री थी, हम भी गुज़र रहे हैं और आगे की पीढ़ी भी गुज़रेगी. लेकिन पहले की पीढ़ी के साथ परिवार का लगाव कुछ अलग ही था. इंटरनेट, मोबाइल जैसे बहकाने वाले उपकरण तब नहीं थे. पूरा घर एक दूसरे की समस्याओं को सुलझाता था. अब के समय में हम पूरी दुनिया के साथ तो जुड़ गए हैं लेकिन अपने माता-पिता और घर से अलग होते जारहे हैं. परिवार किसी भी ईमारत की बुनियाद की तरह होता है. उससे दूर हमारा कोई वजूद ही नहीं है. युवाओं को खुद को अकेलेपन से बचाने के लिए परिवार के निकट रहना ज़रूरी है क्यूंकि वो हमारा शकित केंद्र है और माता-पिता को अपने बच्चों की भावनाओं को समझना ज़रूरी है. इस 21वीं सदी की पीढ़ी को हम ऐसे ही आत्महत्या करने के लिए अकेला नहीं छोड़ सकते क्यूंकि यही पीढ़ी देश का भविष्य है.


Wednesday, 11 May 2016

Nothing Intended: Kejri’s next big accusation on Modi

                                              By: Ashutosh Asthana



When God was creating this world, He made everything in balance. With heat, He gave cold, with light He gave darkness, with winters He gave summers, with horses, He gave donkeys and after making Modi, He made Kejriwal. Since the formation of this world, Modi’s fate was already written. God made him to withstand allegations and bundle of accusations. From Godhra to the false promises during the election campaign, from ache din aane wale hain to crediting the accounts of Indians with the black money, from being communal to being a capitalist, Narendra Modi have had it. He would have never thought that after becoming the Prime Minister of India and facing accusations bravely (sometimes cowardly walking out of an interview) his biggest challenge and the allegation machine, Mr Kejriwal is waiting for him with open arms. Since Modi came into power, Kejriwal is accusing him for every petty issue, but this time its rather 'big' and 'important' for Aam Admi Party.



Issue of Modi’s degree is trending on social media and in Indian politics these days. Kejriwal accused Modi of false graduation and post-graduation degree. The conflict reached to such an extent that the BJP has to publicize the degree of Modi. This is one big issue that AAP is fighting for these days after protesting for the famous Jan Lokpal Bill. This battle between Kejri and NaMo will certainly come to an end one day, but it is worth thinking that what allegations would Kejriwal put forward in the future for Modi? Considering the present and earlier scenario, Kejri’s next big allegation on Modi would be his beards!



Sir ji will stage a protest against Modi and will accuse him of having a fake beard. In the words of Kejriwal, “Modi ji’s beards are fake and Supreme Court should look into the matter!” The Aam Admi Party workers will protest near parliament. BJP will counter Kejriwal by accusing him of being jealous with Modi’s great white beards. After the resistance Amit Shah will organise a press conference and distribute a hair of Modi ji’s daadhi to each reporter in the press conference and the famous ‘parrot of the cage’ will confirm that the berads of Modi are not fake and neither dyed, they are naturally white because of his huge experience of politics. May be Kejriwal can come up with the allegation that Modi’s chest does not measure 56 inches and he should be put behind bars for his false claim. ‘Pappu’ tailor from the interiors of east Delhi will be called upon to take the measurement of Modi.



The baseless and useless issues which the politicians are raising these days give me hysterics. The country is facing severe drought conditions, a thousand crore scam of helicopters, a business tycoon in huge debt running away from the country and among all this Aam Admi Party is raising the issue of PM’s degree. There is nothing mention in our constitution regarding the education of MPs and MLAs, so this hue and cry doesn’t make any sense. Allegations for the improvement of the democracy is welcome, but such allegations, what should I say about them!


 Happy reading!




Tuesday, 10 May 2016

बरमूडा ट्रायंगल है ये मीडिया



              लेखक-आशुतोष अस्थाना



बरमूडा ट्रायंगल, नार्थ अटलांटिक महासागर का एक ऐसा रहस्यमय हिस्सा है जिसके बारे में अभी तक वैज्ञानिक अधिक नहीं जान सके हैं. ये एक ऐसा हिस्सा है जिसमें हवाईजहाज़ या पानी का जहाज़ जाते ही रहस्यमय ढंग से गायब हो जाता है. वर्षों से ऐसी कई घटनाएँ यहाँ दर्ज हो चुकी हैं जिससे इस इलाके का नाम ‘हौंटेड’ जगहों में दर्ज हो चुका है. कुछ ऐसी ही विशेषता इन दिनों भारतीय मीडिया में भी देखने को मिल रही है. बरमूडा ट्रायंगल और मीडिया दो अलग चीज़ें हैं लेकिन इनके स्वरुप में आज कल काफी समानता देखने को मिल रही है.







भारत में मीडिया का विकास एक मिशन के रूप में हुआ था. साहित्यकारों और समाज सेवकों की एक बड़ी फ़ौज इस मिशन को आगे ले जाने का कार्य कर रही थी. भारत में मीडिया के माध्यम से कई बड़े परिवर्तन देश में हो रहे थे. 90 के दशक तक स्थिति सामान्य थी. भारतवासियों को जागरूक करने का कार्य मीडिया बेहतर ढंग से कर रहा था. 90 के दशक में एफडीआई के निवेश के साथ देश की रूपरेखा बदलने लगी थी. उसी दौरान मीडिया में भी बाहरी रुपयों का निवेश शुरू हुआ और वही समय था जब इस मिशन में कमीशन का आदान-प्रदान शुरू होगया. इक्कीसवीं सदी की शुरुआत तक स्थिति काफी हद तक काबू में थी लेकिन ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव ख़बरों ने मीडिया में उथल-पुथल का दौर शुरू कर दिया. क्रॉस मीडिय ओनरशिप का दौर शुरू होते ही मीडिया पर चिटफंड कंपनी के मालिकों ने अपना कब्ज़ा जमा लिया. फिर शुरू हुआ मीडिया में खबरों को तोड़ने-मरोड़ने का दौर. जो मिशन की तरह शुरू हुआ था आज वो व्यपार मात्र ही रह गया है. अब आप सोच रहे होंगे की इन सब बातों में मीडिया को बरमूडा ट्रायंगल से जोड़ने का अर्थ क्या है. जबसे न्यूज़ चैनलों और अख़बारों में टीआरपी की जंग शुरू हुई है तब से ख़बरों की वास्तविक्ता और विश्वसनीयता पर बट्टा लग चुका है. अब खबरों के मामले में वो नहीं दिखाया जाता जो दर्शक देखना चाहते हैं, अब सिर्फ वो दर्शाया जाता है जिससे चैनलों की टीआरपी बढ़े. आज के समय में मुद्दे चैनलों की टीआरपी में बिलकुल वैसे ही खोते जा रहे हैं जैसे बरमूडा ट्रायंगल में हवाईजाहाज़ खो जाते हैं.






हालही की घटनाओं की बात करें तो ऐसी कई खबरें हैं जिन्हें मीडिया ने ज़ोरों से कवर किया लेकिन मीडिया में अब उनका अस्तित्व ही नहीं है. उन ख़बरों की चर्चा ही नहीं होती. राधे माँ को कौन भूल सकता है. अपने ढोंग से सुर्ख़ियों में आईं राधे माँ का अब कोई अता-पता नहीं है. राधे माँ के खिलाफ कई इलज़ाम लगे, मामले दर्ज हुए, मीडिया ने भी उनको अपनी ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ बना डाला, लेकिन अब, उनकी चर्चाएँ ही ख़त्म हो गयीं. एक समय में लग रहा था मानों पूरा देश सहनशील-असहनशील जैसे दो भागों में बंट चुका है. मीडिया ने तो ‘असहिष्णुता’ शब्द को इतना प्रचलित कर दिया था की कई ऐसे लोग थे जिनकी शब्दावली में पहली दफा ये शब्द जुड़ा था. लग रहा था मानों देश में हर व्यक्ति असहिष्णु होचुका है. इस मुद्दे को इतनी हवा दी गयी कि इसके परे कोई दूसरा मुद्दा देश में बचा ही नहीं था. लेकिन ये मुद्दा भी कुछ ही दिनों में इस बरमूडा ट्रायंगल में खो गया. कुछ दिनों पहले के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से जुड़े विवाद को कौन भूल सकता है. उस पर तो ऐसी राजनीती हुई थी जैसी पहले कभी किसी मुद्दे पर नहीं हुई. तब मीडिया ने भी पूरी शिद्दत से छात्रों पर देशद्रोह का ठप्पा लगाया. कन्हैया कुमार को राष्ट्रीय नेता बनाने की ओर अग्रसर होचुका था मीडिया. झूठे विडियो को बेझिझक प्राइमटाइम पर चलाया गया. बाद में कुछ चैनलों ने माफ़ी मांगी लेकिन कुछ तो उस गलती को करने के बाद डकार लेना भी भूल गए. बेशक इससे जनता पर बुरा प्रभाव पड़ा पर देखते ही देखते जेएनयू का मुद्दा भी हवा होगया. अवार्ड वापसी, बीफ पर बवाल, इक्लाख की मौत, तोमर की डिग्री, और कई ऐसे मुद्दे पिछले कुछ दिनों में इस त्रिकोण में आये और रहस्यमय ढंग से गायब होगए. आज कल विजय माल्या, मोदी की डिग्री और उत्तराखंड मामले जैसे बड़े मुद्दे इस बरमूडा ट्रायंगल की ओर बढ़ रहे हैं, कुछ समय और, ये भी उनमें गायब होजाएंगे. 






जहाँ मीडिया समाज का एक हिस्सा मात्र होना चाहिए था, वहीँ आज मीडिया समाज के निर्माता का किरदार निभा रहा है. दर्शकों को क्या देखना है, क्या सुनना है और क्या पढ़ना है ये दर्शक और पाठक खुद नहीं, मीडिया तय कर रहा है. कहा जाता है कि इंसान को अपनी सूझ-बूझ से अपनी राय खुद बनानी चाहिए, लेकिन मीडिया ऐसा होने ही नहीं दे रहा है. वो अपने दृष्टिकोण को पाठक या दर्शकों के दृष्टिकोण पर थोप राह है और गौर करने वाली बात ये है की मीडिया का दृष्टिकोण असल में उस मीडिया कंपनी में किसी बड़े पद पर आसीन व्यक्ति का होता है जो लोगों पर भी हावी होता है. आज के समय में किसी के भी वामपंथी या दक्षिणपंथी होने का श्रेय मीडिया पर काफी हद तक जाता है क्यूंकि चैनल और अखबार अपनी राजनीतिक विचारधारा को लोगों पर थोपते हैं. इसका जीता-जागता सबूत इन दिनों सोशल मीडिया पर खूब देखने को मिल रहा है जहाँ लोग पूरी बात जाने बिना ही किसी विचारधारा पर अंधविश्वास कर ले रहे हैं. इससे साम्प्रदायिकता का स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है. 





बेशक मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है लेकिन आज जो वो कर रहा है वो लोकतंत्र के खिलाफ है. चैनलों पर चार पांच लोग किसी को भी मुजरिम घोषित कर दे रहे हैं जिससे जनता भी उस व्यक्ति को उसी नज़रिए से देख रही है. किसी भी मुद्दे के पैदा होते ही मीडिया उसपर मंथन शुरू कर देता है, मीडिया में ऊंचे पद पर आसीन लोग अपने दृष्टिकोण से खबर दिखाते हैं और जनता को उस पर अपनी राय बनाने का समय ही नहीं मिलता. नतीजा ये होता है की देश के किसी बड़े शैक्षणिक संस्थान पर आतंकवाद का अड्डा होने का ठप्पा लगा दिया जाता है.

आज स्थिति कुछ ऐसी है की इस बरमूडा ट्रायंगल से पार पाना मुश्किल सा लग रहा है. मीडिया जनता को सच से रूबरू कराने के लिए था न की नया सच खुद गढ़ कर जनता के सामने पेश करने के लिए. रहस्य बरकरार है. अभी ये त्रिकोण और क्या क्या निगलेगा, देखना बाकी है.  




  

Monday, 15 February 2016

विद्यार्थी हैं, आतंकवादी नहीं!

                     लेखक: आशुतोष अस्थाना

भारत का हर छात्र उच्च शिक्षा के लिए किसी बड़े और नामी शिक्षण संस्थान में पढ़ने का सपना देखता है. मेरिट की दौड़ में अव्वल आने के लिए कड़ी मेहनत करता है और कुछ ही ऐसे होते हैं जिन्हें बड़े संस्थानों से जुड़ने का मौका मिलता है. कई होनहार और काबिल छात्र जो मेरिट की सूची में या एंट्रेंस परीक्षा में कुछ अंकों से पिछड़ जाते हैं उनके ख्वाब भी टूट जाते हैं.



जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय भी उन्हीं कुछ शिक्षण संस्थानों में से एक है जिसमें हर छात्र दाखिला लेने का सपना देखता है पर सफलता कुछ के ही हाथ लगती है. जेएनयू में घटित हाल की घटनाएं इस विश्वविद्यालय में दाखिला लिए उन किस्मतवालों की बदकिस्मती है. देश की राजधानी में स्थित, भारत के पहले प्रधानमंत्री और स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर बने इस संस्थान में देश विरोधी गतिविधियों का होना हैरान कर देने वाली बात है.



जेएनयू में आज जो कुछ भी हो रहा है वो बेशक दुर्भाग्यपूर्ण है. भारत का एक प्रतिष्ठित विश्विद्यालय जिसने अपनी साख हमेशा बनाये रखी थी आज उस पर मानो काला धब्बा सा लग चुका है. देश विरोधी नारे लगाना, अफज़ल गुरु को मसीहा बताया जाना, छात्रसंघ अध्यक्ष की गिरफ्तारी और अन्य छात्र संगठनों द्वारा मचाया जा रहा शोर-गुल, इन सभी घटनाओं ने इस विश्विद्यालय की शान में कमी कर दी है. गौर करने वाली बात ये है कि यहाँ के छात्र अफज़ल गुरु को शहीद मानते हैं. एक सरकारी शिक्षण संस्थान, जहाँ की फीस दूसरे संस्थानों से कम है, वहां के छात्रों का देश विरोधी नारे लगाना और पाकिस्तान का समर्थन करना किसी भी तरह जायज़ा नहीं है. जेएनयू की घटना पर राजनीतिक दल भी रण में दो-दो हाथ करने के लिए कूद पड़े हैं. 



जहाँ बीजेपी अपनी सरकार का समर्थन कर इस विश्वविद्यालय के छात्रों को सीधे-सीधे देशद्रोही बता रही है वहीँ अन्य पार्टियाँ इस पूरे मसले को बोलने की स्वतंत्रता का अधिकार घोषित कर रही हैं. छात्रसंघ अध्यक्ष की गिरफ्तारी को केजरीवाल और राहुल गाँधी ने असंवैधानिक और बोलने की आज़ादी को छीनना बताया है. सरकार और अन्य पर्त्यों के बीच तना-तनी बढ़ रही है. राजनाथ सिंह ने तो यहाँ तक बोल दिया की जेएनयू के छात्रों को हफीज़ सईद का समर्थन प्राप्त है. हर पार्टी के बड़े नेता जेएनयू का दौरा कर आ रहे हैं. कांग्रेस द्वारा बीजेपी पर किये जा रहे हमलों का जवाब बीजेपी गड़े मुर्दे उखाड़ कर दे रही है. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को भी बीजेपी कटघरे में लाने के लिए तयार है. इन सारे हंगामे के बीच सोशल मीडिया के कीड़े भी सक्रिय हो गए हैं. फेसबुक के बुद्धिजीवी जन और अधकचरे ज्ञान वाले भी खुलेआम विरोध करने और समर्थन करने से परहेज़ नहीं कर रहे. अब तो सोशल मीडिया के बुद्धिजीविओं ने सोशल मीडिया पर ‘शटडाउन जेएनयू’ का हैशटैग भी प्रचिलित कर दिया है.




इन सारी घटनाओं से इतर इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इस विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्र बुद्धिजीवी वर्ग के होते हैं. 1969 में बने इस विश्वविद्यालय के पुराछात्रों की सूची में प्रकाश करात, सीताराम येचुरी, थोमस आईसैक, अनन्या खरे और निर्मला सीतारमन जैसी महान हस्तियाँ हैं. कुछ अराजक तत्वों के कारण इतने बड़े संस्थान को बंद कर देना या संस्थान को बदनाम करना सही नहीं है. नेताओं का ऐसे समय में अपनी राजनीतिक रोटियां सेकना भी दुखद है. सबसे बड़ा प्रश्न ये है की विपक्षी दल वहां के छात्रों द्वारा किये जा रहे हंगामे को जायज़ कैसे ठहरा सकते हैं! देश के संसद पर हमला करने वाला शहीद कैसे हो सकता है! इस वाकये से साफ़ दिखता है की पार्टियों को छात्रों की चिंता नहीं है, उन्हें सिर्फ एक दूसरे को नीचा दिखाने का मौका चाहिए. सरकार और दूसरी पार्टियों को वहां के छात्रों के बारे में सोचना चाहिए. सरकार जेएनयू के छात्रों को देशद्रोही का तमगा नहीं दे सकती. युवा ही देश का भविष्य है और उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए. विश्वविद्यालय के अराजक तत्वों के खिलाफ सख्त कदम उठाना ज़रूरी है. मैं भी मानता हूँ की उन्हें जेल भेजा जाए और सख्त कार्रवाई की जाए लेकिन गेहूं के साथ घुन पिसने वाली स्थिति नहीं पैदा होनी चाहिए. 



उस भीड़ में कई छात्र ऐसे भी होंगे जो भ्रष्ट मानसिकता के शिकार नहीं, सिर्फ बहकावे में आ गए होंगे. उस जेएनयू में कई छात्र ऐसे भी होंगे जिन्होंने जीवन में आगे बढ़ने का और माता-पिता का नाम रोशन करने का सपना देखा होगा. कई छात्र ऐसे होंगे जिनका इस पूरी घटना से कोई वास्ता नहीं है. वो सभी छात्र हैं, आतंकवादी नहीं. जेएनयू के देशद्रोही अराजक तत्वों के साथ अन्य छात्रों को जोड़ना और एक ही दृष्टि से देखना गलत है. सरकार को मामले की तेह तक जाना होगा और बहकावे में आये छात्रों को साथ ही इन सारी घटनाओं से दूर रहने वाले छात्रों को सही दिशा दिखानी होगी. छात्रों को जेल में भर देना इस मसले का हल नहीं है.