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Sunday, 30 December 2018

क्या अर्धकुम्भ के नाम पर अपने राजनीतिक पत्ते बिछा रही है बीजेपी?

कहते हैं की आप एक इलाहाबादी को इलाहाबाद से निकाल सकते हैं मगर इलाहाबाद को एक इलाहाबादी के अंदर से नहीं निकाल सकते. दिल्ली-एनसीआर आए यूँ तो मुझे 3 साल से ऊपर हो चुके हैं मगर मेरी रूह आज भी मेरे शहर इलाहाबाद की गलियों में ही फिरती है. खबरों की दुनिया से जुड़े होने के चलते आँख और कान देश-दुनिया की तमाम खबरों के बीच इलाहाबाद को खोजते रहते हैं...इलाहाबाद को...प्रयागराज को नहीं! खैर शहर का नाम बदलने का विषय दूसरा है जिस पर कई बुद्धिजीवियों ने पिछले कुछ दिनों में अपनी राय रखी है, उन लोगों ने भी रखी है जिनका इलाहाबाद से कोई वास्ता नहीं है. व्यक्तिगत तौर पर शहर के नाम को बदलना मुझे ठीक नहीं लगा मगर हाल के दिनों में मेरे शहर से जुड़ी एक और ऐसी चीज़ है जो मुझे सहज नहीं लग रही, वो है अर्धकुम्भ 2019.
मैंने 2001 के महाकुम्भ की भव्यता देखी है. मैं 2007 के अर्धकुम्भ का साक्षी रहा हूँ. 2013 के महाकुम्भ में दो बार आस्था की डुबकी लगाई है और उसी महाकुम्भ में इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में श्रद्धालुओं की लाशें भी देखी हैं. इलाहाबाद में रहते हुए हर साल माघ के महीने में लगने वाले माघ मेले का भी मैंने आनंद उठाया है. मैंने कुम्भ के दिनों में एक शहर के अंदर नए शहर को बसते देखा है. मैंने पीपे के पुलों को बनते और नष्ट होते देखा है. मैंने कपड़े के घरों में लोगों को एक महीने जीवन बसर करते देखा है, मैंने अखाड़ों की पेशवाई देखी है, नागाओं का माँ गंगा से भेंट करने का उत्साह देखा है और मैंने कुम्भ में अपने परिवार के एक सदस्य को लगभग खोते भी देखा है. मगर इस बार जो मैं देख रहा हूँ वो पहले कभी नहीं देखा. कुम्भ में बाज़ार सजते देखा है मगर मैंने इससे पहले कुम्भ का बाज़ारीकरण नहीं देखा.

इतिहास के पन्नों में कुम्भ
कुम्भ मेले का इतिहास हज़ारों साल पुराना है. ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में ‘कुम्भ’ शब्द का उल्लेख है मगर वो उल्लेख सांकेतिक है जिसके कारण कुम्भ पर्व की सही जानकारी उनसे नहीं हासिल हो पाती है. पुराणों में कुम्भ के संदर्भ में जिन कथाओं का वर्णन है उनमें सबसे प्रचलित प्रसंग श्रीमद्भागवतपुराण का समुद्र मंथन से जुड़ा प्रसंग है. मान्यता है कि जब समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश निकला तो उसे हासिल करने के लिए देवताओं और राक्षसों में छीना-झपटी शुरू हुई. उसी वक़्त अमृत की बूंदें नासिक, उज्जैन, हरिद्वार और प्रयाग में गिरीं. तब से इन चार जगहों पर हर तीन साल के अंतराल पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है. 12 साल बाद ये मेला अपने पुराने स्थान पर लौटता है. वैसे कुम्भ मेले के आयोजन का प्रावधान कब से है इस विषय पर विद्वान अलग-अलग राय रखते हैं. कुछ कहते हैं कि ये 500 ईसा पूर्व से शुरू हुआ तो कुछ मानते हैं की गुप्त काल में इसका आयोजन शुरू हुआ. कुम्भ के एतेहासिक पहलु पर गौर करें तो पता चलता है कि ह्वेनसांग ने अपने भारत भ्रमण के दौरान प्रयाग में सन 634 में एक बड़े स्नान पर्व का ज़िक्र किया था. राशियों और ग्रहों से भी कुम्भ का आयोजन जुड़ा हुआ है. प्रयाग में कुम्भ का आयोजन तब होता है जब माघ के महीने में अमावस्या के दिन सूर्य और चंद्रमा मकर राशी में होते हैं और गुरु मेष राशी में. इसी प्रकार अन्य तीन शहरों में भी कुम्भ से जुड़ी अपनी पौराणिक और एतेहासिक मान्यताएं हैं मगर इलाहाबाद का कुम्भ इस लिए प्रमुख माना जाता है क्यूंकि ये गंगा, यमुना और विलुप्त सरस्वती के संगम स्थल पर आयोजित होता है.
कुम्भ के इतिहास के साथ-साथ ये जान लेना आवश्यक है कि हिन्दू मान्यताओं में अर्धकुम्भ की जड़ें आदिकाल से नहीं जुड़ी हैं जिस तरह महाकुम्भ की हैं. कहा जाता है कि अर्धकुम्भ का आयोजन मुस्लमान शासकों के आने के बाद से किया जाता है. उस समय उन शासकों द्वारा हिन्दुओं और उनकी मान्यताओं पर अत्याचार होता था जिसके कारण हिन्दू धर्मगुरुओं ने हिन्दुओं की एकता के बारे में सोचा और बारह साल नहीं हर छह साल पर एकत्रित होने का निर्णय लिया. इससे उन्हें हिन्दुओं को संगठित करना था. तब से महाकुम्भ के बीच में हर छह साल पर अर्धकुम्भ का आयोजन किया जाने लगा. 

अर्धकुम्भ की तैयारी से शहर का हाल बेहाल
2017 में जब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी थी, तब से ही उन्होंने इलाहाबाद में लगने वाले साल 2019 के अर्धकुम्भ की तैयारी का बीड़ा उठा लिया था. अर्धकुम्भ के नाम पर शहर को तोड़ा गया, सड़कों को उखाड़ा गया और अवैध कब्ज़ा किये लोगों को खदेड़ा गया. इस तमाम उधेड़-बुन में शहर की संरचना में काफी बदलाव किये गए. शहर के नए इलाकों में इस तोड़-फोड़ का उतना प्रभाव नहीं पड़ा जितना पुराने इलाकों में पड़ा. शहर के पुराने इलाके प्रमुख तौर पर तीन अलग-अलग दौर के हैं. एक वो दौर जब शहर में वासुकी नाग ने समुद्र मंथन के बाद शरण ली थी, भरद्वाज ऋषि का आश्रम था और सरस्वती अपने वेग से बहती थी. दूसरा वो दौर जब शेर शाह सूरी ने जीटी रोड का निर्माण करवाया था. तब शहर के कई हिस्सों को सराय का रूप दे दिया गया था. अकबर ने संगम किनारे अपने किले का निर्माण करवाया था और जहांगीर ने अपने बेटे ख़ुसरो मिर्ज़ा के लिए ख़ुसरो बाग का निर्माण करवाया था. तीसरा दौर वो था जब अंग्रेज़ों का शहर पर कब्ज़ा था जिसके चलते उन्होंने हाईकोर्ट बनवाया, कई स्कूल बनवाए, विश्वविद्यालय बनवाया, चर्च बनवाए और शहर का चेहरा पूरी तरह से बदल दिया.
ऐसी संरचना वाले शहर के पुराने इलाकों में आँख मूँद कर शहर के सौन्दरियाकरण के लिए और सड़कों को चौड़ी करने के लिए युद्ध स्तर पर बुलडोज़र चलवाए गए. इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि शहर की आबादी तेज़ी से बढ़ रही है जिसके चलते शहर में खुली और अतिक्रमण रहित सड़कों की आवश्यकता है मगर शहर के मूलतत्व से जिस प्रकार छेड़खानी की गयी वो एक इलाहाबादी होने के नाते मुझे दुःख पहुंचाता है. शहर के एक पुराने इलाके में स्थित ख़ुसरो बाग शहर की पहचान है. उसका हर एक अंश शहर की धरोहर है मगर इस बात का ख़याल न रखते हुए प्रशासन ने ख़ुसरो बाग के बाहर स्थित उसके एक मुख्या द्वार को गिरा दिया. उसी द्वार से कुछ दूर एक व्यस्त तिराहा है जहाँ से कई मोहल्ले के लोग गुज़रते हैं. उस तिराहे को चौड़ा करने की आवश्यकता लंबे समय से थी मगर उसे चौड़ा करने के चक्कर में ये ध्यान ही नहीं दिया गया की तिराहे के कोने में सन 1800 के दौर की अंग्रेजों द्वारा बनाई गयी एक चरही थी (चरही पर बनाए जाने का सन और ब्रिटिश सरकार द्वारा एक संदेश उकेरा हुआ था) जिससे जवानों के घोड़े पानी पिया करते थे, उसे भी वहां से नष्ट कर दिया गया. यही नहीं, शहर का एक प्रमुख इलाका चौक जो प्रदेश भर में काफी प्रसिद्ध है, वहां बने 100 साल से भी पुराने घरों को प्रशासन ने अवैध घोषित कर तोड़ दिया. इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के निकट एक चौराहा था जिसके कोने पर भगवन हनुमान का एक मंदिर था. मंदिर काफी पुराना था इसलिए उस वक़्त बिना उनकी ‘जात’ जाने ही निर्माण कराया गया था. मंदिर के ही कारण उस चौराहे को जोगीबीर चौराहा कहा जाता था. प्रशासन ने उस मंदिर को भी तोड़ दिया. अब आगे आने वाली पीढ़ी को नहीं पता चलेगा की उस चौराहे को जोगीबीर चौराहा क्यों कहते हैं. ऐसी बहुत सी छोटी-छोटी चीज़ें पूरे शहर में मौजूद थीं जो इलाहाबादियों के लिए खास थीं, उनके शहर का प्रमुख हिस्सा थीं मगर वो अब इलाहाबाद की सड़कों पर मलबों में मिली पड़ी हैं. शहर के कई पुराने इलाके तोड़-फोड़ से सीरया के किसी शहर की शकल ले चुके हैं जिनके अर्धकुम्भ तक पूर्ण निर्माण की कोई उम्मीद नहीं है.
2018 का अंत होते-होते शहर की सूरत और मिजाज़ को पूरी तरह बदल दिया गया है. नाम तो बदला ही बदला मगर पिछले कुछ समय से शहर की तहज़ीब भी बदलती दिख रही है. अचानक से ऐसा लग रहा है जैसे शहर की आँखों पर कोई धर्म और राजनीति का चश्मा चढ़ा रहा है. शहर को 'पेंट माय सिटी' अभियान के तहत रंगों और खूबसूरत चित्रों के माध्यम से नया कलेवर दिया जा रहा है, साधुओं के चित्र, हिन्दू मान्यताओं से जुड़े चित्र, आधुनिक भारत के निर्माताओं के चित्र इमारतों पर बने देखे जा सकते हैं जो तारीफ़ के काबिल है लेकिन उन चित्रों में मुझे धर्म की राजनीति की बू आ रही है. संगम क्षेत्र के पास हिन्दू मान्यताओं से जुड़े चित्र को अपनाया जा सकता है लेकिन शहर की हर दीवार को सिर्फ ‘भगवा’ रंग में रंगे जाने पर मुझे आपत्ति है. उन चित्रों में मुझे इलाहाबाद की गंगा-जमुनी तहज़ीब कहीं नहीं दिख रही. मुझे सर पे टोपी लगाकर, पैर मोड़े, इबादत में बैठे किसी बच्चे की तस्वीर नहीं दिख रही ना ही मुझे सूली पर चढ़े उस परमात्मा की तस्वीर दिख रही है जिसने सच्चाई के मार्ग पर चलने की सदा सीख दी है.

अर्धकुम्भ या 2019 की प्रयोगशाला
इन तमान चीज़ों के बीच जो सबसे बड़ी हैरत की बात है वो ये है कि राज्य सरकार ने 2019 के अर्धकुम्भ की ब्रांडिंग महाकुम्भ के तर्ज़ पर की है. मैं आज देख रहा हूँ की अर्धकुम्भ के विज्ञापन सोशल मीडिया पर ही नहीं, टीवी और रेडियो पर भी छाये हुए हैं. 'कुम्भ चलो' का नारा जन संचार के सभी माध्यमों पर गूँज रहा है. अर्धकुम्भ में हज़ारों करोड़ रुपये इन्वेस्ट किया जा चुका है. 60 से अधिक देशों के प्रतिनिधि शहर का भ्रमण करने आ चुके हैं. प्रधानमंत्री शहर आ कर पूजा-आरती कर चुके हैं और इलाहाबाद को इतनी जल्द देश के तमाम शहरों से हवाई मार्ग के ज़रिये जोड़ दिया गया है, केंद्र वह राज्य सरकार के तमाम बड़े मंत्री तैयारियों का जायज़ा लेने शहर आ रहे हैं और ये सब कुछ महज़ अर्धकुम्भ के लिए किया जा रहा है. इस बार ऐसा लग रहा है कि अर्धकुम्भ को महाकुम्भ की तरह पेश करने के पीछे कोई खास मकसद है. इससे पहले भी इलाहाबाद में कुम्भ हुए हैं, 2013 के कुम्भ का योग खगोल विद्या के हिसाब से 100 साल बाद बना था यहाँ तक कि 2013 कुम्भ में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्र कुम्भ के आयोजन पर शोध कार्य करने आये थे जिसे उन्होंने अपने यहाँ के गज़ट में प्रकाशित किया था मगर राजनीति और धर्म का ऐसा संगम इस बार पहली दफा देखने को मिल रहा है.
ये बात तो साफ़ है की सनातन धर्म के अनुयायिओं का इतना बड़ा जनसैलाब और किसी पर्व पर, भारत में नहीं लगता. इसके अलावा हम ये भी जानते हैं कि साल 2019 अर्धकुम्भ के कारण सामाजिक और धार्मिक तौर पर तो महत्वपूर्ण है ही, राजनीतिक तौर पर भी अत्यंत महत्वपूर्ण है क्यूंकि इसी साल लोकसभा के चुनाव होने तय हैं. ऐसे में ये किसी के लिए भी समझना मुश्किल नहीं होगा कि अपने हिंदुत्व के एजेंडे को सिद्ध करने के लिए भारतीय जनता पार्टी के पास ये सबसे बड़ा मौका है.
भारतीय जनता पार्टी के चाणक्यों को ये पता है कि देश में महागठबंधन मज़बूत होता जा रहा है, ऐसे में वोट हासिल करने के लिए हिन्दुओं को संयुनक्त करना ज़रूरी है और अर्धकुम्भ 2019 पार्टी के उसी एजेंडा को सिद्ध करने की प्रयोगशाला हो सकती है. साधू-संत, महामंडलेश्वर आदि लोग हमारे समाज के ओपिनियन लीडर होते हैं जो आम जनता की सोच पर पूर्ण रूप से हावी हो सकते हैं. इन लोगों पर पकड़ बनाने से हिन्दुओं की भावनाओं पर भी पकड़ बनाई जा सकती है. इलाहाबाद इन दिनों बीजेपी के लिए युद्ध क्षेत्र बना है जहाँ हिन्दुओं को लुभाने के लिए उनकी छटपटाहट साफ़ देखी जा सकती है. हाल की खबर इस तथ्य को साबित भी करती है जिसमें पीएम मोदी ने ये घोषणा की है कि इलाहाबाद में अकबर का किला अब आम लोगों के लिए खोला जाएगा जिसमें लोग अक्षयवट के दर्शन कर सकेंगे. हालही में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ये एलान किया है संगम किनारे बने उसी अकबर के किले के अंदर देवी सरस्वती और ऋषि भरद्वाज की मूर्ती सुशोभित की जाएगी. ये सारे बदलाव पहले के महाकुम्भ या अर्धकुम्भ में देखने को कभी नहीं मिले थे. यहाँ तक कि 2001 के कुम्भ के दौरान भी बीजेपी की सरकार थी और राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री थे मगर उस दौरान भी शहर की बनावट में इतने बदलाव नहीं हुए थे ना ही इतनी रोक टोक थी जितनी इस बार हो रही है. बाधाओं को बढ़ाते हुए प्रशासन इस बार ये भी एलान कर चुका है कि अर्धकुम्भ के दौरान इलाहाबाद में शाही स्नान के एक दिन पहले और एक दिन बाद शादी-समारोह के आयोजन नहीं होंगे.

गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक है इलाहाबाद
मुझे शहर के सौन्दरियाकरण से कोई दिक्कत नहीं है लेकिन मुझे परेशानी इस बात से है कि धर्म की राजनीति के कारण लोगों को भ्रमित किया जा रहा है और इसी राजनीति से इलाहाबाद अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब खो सकता है जिसके लिए वो पूरे विश्व में जाना जाता है. ये वो शहर है जहाँ कभी सूफी संत तकी, कबीर और गुरु नानक मिले थे. ये वो शहर है जहाँ दाराशिकोह ने वेद और पुराणों के अनुवाद अरबी और फारसी भाषा में किये थे. ये वो शहर है जहाँ एक प्रसिद्ध मुस्लमान शासक द्वारा बनाई गयी जी.टी. रोड पर राम की सवारी और मुहम्मद के नवासे की याद में लोग एक साथ निकलते हैं. ये वो शहर है जहाँ जय श्री राम और अल्लाह हु अकबर के नारे एक साथ गूंजते हैं.
इस शहर की खासियत यही है कि राजनीति के क्षेत्र में इसने अपना अहम योगदान दिया है मगर कभी भी उस राजनीति के चलते अपने भाईचारे के स्वभाव को नष्ट नहीं किया है. अब इस शहर पर धर्म की राजनीति का जो साया मंडराने लगा है वो इस शहर के स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक सिद्ध हो सकता है....            

आशुतोष अस्थाना (Ashutosh Asthana)

Wednesday, 12 December 2018

राजनीति के कारण तर्कहीन होते लोग

कल से कई लोगों द्वारा शेयर किए जा रहे पोस्ट देख रहा हूँ जिसमें व्यंग के रूप में ये कहा जा रहा है कि कल से बीजेपी द्वारा हारे हुए राज्यों में पेट्रोल 20 रुपये का मिलने लगेगा, किसानों के कर्ज़ माफ हो जाएंगे, बेरोज़गारी शून्य हो जाएगी और ना जाने क्या क्या। इसी बीच राहुल गांधी के आलू और सोने वाले बयान को भी बार बार याद कर के हँसी उड़ाई जा रही है। लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस द्वारा जीते हुए तीन राज्यों में अब आलू से सोने वाली फैक्ट्री लगेगी। कोई कह रहा है कि देश की जनता को देश की सुरक्षा और विकास से मतलब नहीं है, उन्हें तो बस मुफ्त की सब्ज़ी, पेट्रोल से मतलब है।
मेरी उन सभी लोगों को एक नसीहत है कि आप इस तरह के जो पोस्ट शेयर कर रहे हैं, कभी उन पर गौर करिए और फिर समझने की कोशिश करिए। आप एक पार्टी की भक्ति में अपनी आंखों पर ऐसी पट्टी लगा चुके हैं कि अब तार्किक बातों से कोसों दूर चले गए हैं।
क्या मध्यप्रदेश में 15 सालों से भाजपा सरकार के शासन में पेट्रोल 20 रुपये का हुआ था? क्या राजस्थान में बेरोजगारी शून्य हो गयी थी? क्या छत्तीसगढ़ में किसानों के कर्ज माफ हो गए थे? क्या इन राज्यों में आलू से सोना बनाने वाली फैक्ट्री बन गयी थी?
तो इस जनाधार पर इतना व्यंग क्यों! क्या अनंतकाल तक सिर्फ एक ही पार्टी किसी राज्य की किस्मत का निर्धारण करेगी? आप चाहे जिस भी पार्टी के समर्थक हों, आपको इस जनाधार का और उस राज्य के लोगों का सम्मान करना होगा। वो एक पार्टी के राज से त्रस्त हो चुके थे इसलिए उन्होंने परिवर्तन को चुना। उन्हें कांग्रेस में आशा की किरण दिखी। ऐसे में उस जनता के लिए ये कह देना की वो सिर्फ मुफ्त की सब्ज़ी और पेट्रिल चाहते हैं तो ये गलत है।
कांग्रेस से ये अपेक्षा की जाएगी कि वो इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करे और पहले की सरकार की नाकामियों को खुद में ना शामिल होने दे। आप निराश हैं, झुंझलाए हुए हैं मगर इस झुंझलाहट में बिना सर पैर के तर्क दे कर अपनी अंध भक्ति पर मुहर मत लगवाइए।
जहां तक बात है राहुल गांधी के आलू और सोने वाले बयान की तो आप सबसे अनुरोध है कि गूगल पर सिर्फ इतना सर्च कर लीजिए, Real video of aaloo and sona speech by Rahul Gandhi... आपको मालूम हो जाएगा कि इस स्टेटमेंट के अंत में राहुल कहते हैं कि ये मेरे शब्द नहीं हैं मोदी जी के शब्द हैं।
बिना जाने, बिना परखे आप एक पार्टी के एजेंडा को आगे बढ़ाते जा रहे हैं और आप को पता ही नहीं कि आप भी इस झूट में शामिल हो चुके हैं।
जिस तरह ये जताया जा रहा है कि बीजेपी को वोट ना देकर लोगों ने देश विरोधी काम किया है उससे तो वाकई अब फासीवाद की बू आने लगी है।
उन तीन राज्यों में बीजेपी के हारने या जीतने से जिन लोगों पर कोई असर नहीं पड़ेगा वो भी बीजेपी के पैरोकार बन कर अपनी तर्क करने वाली शक्ति खो रहे हैं। ये काफी नुकसानदेह है।

Sunday, 18 November 2018

स्मार्टफोन और हम

आखिरी बार ऐसा कब हुआ था जब आप किसी ऐतिहासिक इमारत को देखने गए हों और उसकी सुंदरता को देख कर इस तरह खो गए हों कि आप अपने स्मार्टफोन से फ़ोटो खींचना भूल गए हों?
आखिरी बार ऐसा कब हुआ था जब आप डूबते सूरज को देखने में इतना डूब गए कि आपने उस दृश्य को अपने कैमरे में कैद नहीं किया और उसे देखते वक़्त बस यही सोचा कि काश ये वक़्त यहीं ठहर जाए?
आखिरी बार ऐसा कब हुआ था जब आप अपने पसंदीदा व्यंजन को खाने गए और खाने के स्वाद के आगे इंस्टाग्राम पर फ़ोटो डालना भूल गए?
आखिरी बार ऐसा कब हुआ था जब आप खूब सज कर किसी संबंधी के विवाह या किसी अन्य समारोह में गए हों और खुद की सेल्फी लेने के बजाए उस स्थान को, वहां मौजूद लोगों को या वहां से निकलने वाली ऊर्जा को महसूस किया हो?
अगर ध्यान से सोचेंगे तो पाएंगे कि ये सब किये काफी वक़्त हो चुका है। असल में हम महसूस करना भूल गए हैं, फिर चाहे वो कोई भावना हो, कोई बात हो, कोई जगह हो या कोई इंसान। हम अब जो भी करते हैं वो दूसरों को दिखाने के लिए करते हैं। औरों को ये बताने के लिए की हमने फलां काम आपसे पहले कर लिया या बेहतर ढंग से कर लिया और इसी चक्कर में हमने महसूस करना बंद कर दिया। किसी बचपन के दोस्त से काफी सालों बाद मुलाक़ात होने पर उसकी खैरियत पूछने से पहले, उसकी हालिया स्थिति को महसूस करने से पहले, उसको प्यार का एहसास दिलाने से पहले हम ये फिक्र करने लगे हैं कि दोस्त के साथ खींची हुई तस्वीर में हैश-टैग क्या डालेंगे।
अब परिवार के साथ छुट्टियां मना कर लौटने पर तस्वीरें तो ढेर सारी रहती हैं मगर यादें ले आना हम भूल जाते हैं। आप कहेंगे कि वो तस्वीरें ही तो यादें हैं। हां कुछ लोगों के लिए तस्वीरें यादों की जगह ले सकती हैं मगर असल यादें होती हैं वो हंसी, वो एहसास, वो जज़्बात जो आपस में एक दूसरे से बांटे गए जिसे तस्वीरें क़ैद नहीं कर पाती।
इस दौर में रहने के कारण टेक्नोलॉजी हर किसी की आवश्यकता बन गयी है। सिर्फ स्मार्टफोन की ही बात करें तो एक दिन इसके बिना बिताना नामुमकिन सा लगता है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने हमारे हाथ-पैर काट दिए हों। दिल्ली जैसे बड़े शहर में बिना स्मार्टफोन के रहना असंभव है। क्या हो अगर मैप की सुविधा ना हो, एक जगह से दूसरी जगह आसानी से जाने के लिए ट्रैवेल एप ना हों, ऑनलाइन खाना मंगाने की सुविधा ना हो, पेमेंट करने के लिए ऑनलाइन वॉलेट ना हो, किसी से बात करने के लिए व्हाट्सएप या वीडियो कॉल जैसी सुविधा ना हो! सोच कर जीना नामुमकिन लगता है। मगर फिर सोचता हूँ की दिल्ली जैसे बड़े शहर में आज से 20 साल पहले भी लोग रहते ही होंगे। एक जगह से दूसरी जगह की दूरी भी उतनी ही होगी। लोगों के पास कैश खत्म भी हो जाता होगा। लोग एक दूसरे से दूर पहले भी रहते ही होंगे।
ये सब सोचने पर लगता है कि बाज़ार ने कैसे हमें पहले खुद पर आश्रित किया और हमारे जीवन में बिल्कुल भीतर तक घुस कर हमें असहाय बना दिया।
इस बाज़ार ने ही हमारे अंदर से महसूस करने की काबिलियत को भी खत्म कर दिया, नहीं तो वो खुशी कैसी होती होगी जब अपने किसी दूर के सम्बंधी से बात करने के लिए ट्रंक कॉल करना पड़ता होगा। आधी रात में भूख लग जाने पर माँ को बिना तंग किये चोरी छुपे किचन में घुस कर खुद के लिए कुछ बनाना कैसा होता होगा। देर रात साधन ना मिलने के डर से घर वक़्त पे आने का सुख कैसा होता होगा। रास्ता भटक जाने पर चाय की दुकान वाले से रास्ता पूछने के बहाने एक प्याली चाय की चुस्की लेने का आनंद कितना अनोखा होता होगा।
मुझे खुशी है कि मैंने चिट्ठियां देखी हैं और ट्रंक कॉल भी। मैंने रास्ता भटकना भी देखा है और चार लोगों से पूछते-पूछते मंज़िल तक पहुंचना भी। मैंने एक ही घर में रह रहे परिवार के सदस्यों को आमने-सामने बैठ कर एक दूसरे से बात करते देखा है। अंधेरे में मोबाइल का फ़्लैश बटन ढूंढना तो देखा ही है पर मैंने बिजली कट जाने के बाद अंधेरे में इधर-उधर, ठोकर खा कर किसी दराज़ में रखे टोर्च की तलाश भी देखी है। परिवार के साथ खरीददारी के दौरान कैश खत्म हो जाने पर, मैंने अपने आप को दुकानदार के पास गिरवी रखवाते हुए भी देखा है। मैंने वो समय देखा और जिया है जब मोबाइल फ़ोन का मुख्य काम दूरदराज़ पर बैठे किसी व्यक्ति से बात कराना होता था।
बेशक समय बदलता है, चीज़ें आधुनिक होती हैं, बदलाव भी उसी प्रकार आना स्वाभाविक है मगर इस बदलाव के कारण इंसानी तौर पर हमारा जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ है, वो है महसूस करने की शक्ति का मिट जाना जो आगे की जनरेशन में कम ही देखने को मिलेगी। सही है या गलत, पता नहीं, मगर ये हानि बहुत बड़ी है!
#आशुतोष

Friday, 7 September 2018

आरक्षण और जाति

आज जब दलितों को आरक्षण मिल रहा है, उनके भले के लिए सोचा जा रहा है तो तुम छाती पीट रहे हो, हंगामा मचा रहे हो, मगर तुम भूल रहे हो कि इस स्थिति के लिए तुम खुद ज़िम्मेदार हो. इतने सालों से चली आ रही जाती व्यवस्था से पैदा होने वाली समस्याओं पर तुमने कभी इंसान के रूप में सोचने की ज़हमत ही नहीं उठायी. तुम्हारा काम बनता गया तो तुमने ये सोचना भी नहीं ज़रूरी समझा की आगे चल कर जाती के आधार पर समाज का बंटवारा तुम्हारे लिए ही नासूर बन जाएगा. तुमने अपने पंडित होने पर, कायस्थ होने पर, ठाकुर होने पर अत्यधिक गर्व महसूस किया और वही भावना अपने बच्चों के अंदर भी डाली. तुमने इंसानी जज़्बातों का और प्रेम का पाठ पढ़ाने की बजाये बच्चों को ये बताया की जमादारों को मत छूना, वो गंदे होते हैं, डोम से दूर रहना, वो अपवित्र हैं. हम पंडित वाले शर्मा हैं, तुम्हारा दोस्त लोहार वाला शर्मा है इसलिए उसके साथ ज़्यादा मत घूमा करो. जो लोग Srivastav लिखते हैं वो असली कायस्थ नहीं होते, असली कायस्थ Srivastava लिखते हैं. वो गुजरात वाला पटेल नहीं नीच जात वाला पटेल है.  कायस्थ वाले वर्मा Varma लिखते हैं, दूसरी जात के लोग Verma लिखते हैं.
दिमाग पर हल्का सा ज़ोर डालो और सोचो की तुमने अक्षरों के आधार पर इंसान का बंटवारा कर दिया. तुमने शिक्षक की, बैंक के अधिकारी की, डॉक्टर की जात तक का पोस्टमोर्टेम कर दिया.
तुमने 5 साल के बच्चे को ये सिखा दिया की जमादारों को चुल्लू से पानी पिलाया करो, बोतल उसके हाथ में मत दिया करो. तुमने 10 साल के बच्चे को पासी और खटिक का फर्क सिखा दिया. तुम्हारी सोच इतनी गिर गयी कि तुमने चतुर्वेदी को असली पंडित माना और द्विवेदी को कम जानकार मानने लगे. जात कम पड़ने लगी तो तुमने सामुदायिक बंटवारा भी शुरू कर दिया. बंगाली कायस्थ, यूपी के कायस्थ, मराठी कायस्थ सब अलग हो गए, वो सिर्फ बंगाली, गुजरती या मराठी बन गए.
तुमने अपनी सहूलियत के लिए किसी भी जाती को पिछड़ा, या नीच बना दिया और उस जाती को अपना मल उठाने पर मजबूर कर दिया और फिर तुम्ही ने उसे छूने से भी इनकार कर दिया. लोहे के बर्तन बनाना जिसका हुनर था, तुमने उसकी जात उसके काम से ही तय कर दी और फिर उसे भी खुद से हीन मानने लगे.
तुम्हारी खोखली शान ने जिंदगियां बर्बाद कर दीं. तुम्हारी जात के किसी युवा ने जहां अंतर जातीय विवाह करने का निर्णय लिया, वहां तुमने 'ऑनर किलिंग' का सहारा लेकर प्रेम की बलि चढ़ा दी. तब तुमने नहीं देखा कि ऐसा करने में तुमने किसी इंसान को गंवा दिया.  
समाज, परंपरा, संस्कृति, जो तुमने ही बनाई, तुम खुद उसमें उलझ गए और जहां तुम खुद को समाज के लिए कृष्ण बना सकते थे, वहां तुमने ध्रितराष्ट्र बनना उचित समझा. जाती के आधार पर प्रेम का गला घुटता रहा, हत्याएं होती रहीं, स्थिति बिगड़ती रही पर तुम अंधे बने रहे.
तुम कहोगे कि क्या अब शूद्रों को सर पे चढ़ा कर बैठा लें? सर पर तो तुमने अपने परिवार को भी नहीं बैठाया है तो किसी और को बैठने की भी ज़रुरत नहीं है, ज़रुरत तो उनको बराबरी का दर्जा देने की है.
तुम अब कहोगे की ये तो सदियों से चला आ रहा है. हमने थोड़ी शुरू किया है. हम तो इसी के साथ जियेंगे, इसी के साथ मरेंगे, हमारे बाद जिसको जो करना हो वो करे.
अगर ध्यान हो तो सदियों से सती प्रथा भी चली आ रही है, क्या उसे भी मानते हो? मानते हो तो बैठा दो अपनी बेटी, बहु या माँ को किसी चिता पर जिंदा जलने के लिए! करा दो अपनी 5 साल की बेटी का विवाह किसी 30 साल के अधेड़ से!
ज़रूरी नहीं जो सदियों से चला आ रहा है वो सही है. वक़्त के साथ हर चीज़ बदलती है, यही प्रकृति का नियम है. 100 साल पहले जो समाज था, आज वैसा नहीं रह सकता और क्यूंकि तुम और मैं मिल कर समाज बनाते हैं इसलिए तुम और मैं भी वैसे नहीं रह सकते जैसे हमारे पूर्वज 100 साल पहले थे. समाज हर एक इकाई के योगदान से बदलेगा. हर किसी को राजा राम मोहन रॉय बनना पड़ेगा. 
तुम्हें आरक्षण ख़त्म करना है ना? तो कराओ अपने बच्चों का अंतरजातीय विवाह, तब जाकर समाज की सारी दीवारें टूटेंगी क्यूंकि तब बनेगी सिर्फ एक जाती, मानवता की! और अगर ऐसा नहीं कर सकते तो आरक्षण के खिलाफ आवाज़ उठाने का भी तुम्हें कोई हक नहीं है.
हाँ मैं मानता हूँ कि कई सालों पहले निचली जातियों की जैसी स्थिति थी, वैसी अब नहीं है. निचली जाती के कई लोग आर्थिक रूप से सशक्त हो चुके हैं, पढ़े लिखे हैं और उन्हें आरक्षण की ज़रुरत नहीं है. अगर आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाये तो स्थिति बेहतर हो सकती है मगर आज भी निचली जाती की बड़ी संख्या अपनी स्थिति में सुधार के लिए रास्ता देख रही है.
समलैंगिकता को अपराध ना मान कर सर्वोच्च न्यायलय ने भारत को बेशक आज़ादी दिलाई है परा अभी भी जाती के बंधनों में बंधे इस देश को आज़ादी चाहिए. क्या हो अगर सरकार कानून बना दे की अब हर कोई सिर्फ अंतरजातीय विवाह करेगा? तब एक ऐसे भारत का निर्माण होगा जहां प्रेम और हुनर के बलबूते हर समस्या का समाधान निकलेगा. तब तुम अपने नेता उसकी जात के आधार पर नहीं उसके काम के आधार पर चुनोगे. तब तुम किसी को चिढ़ाने के लिए चमार या तेली नहीं कहोगे. तब तुम एक बड़ी आबादी को नाकाम होने से बचा लोगे. तब वर्गों का फर्क नहीं रहेगा.
मगर ऐसा होगा नहीं. क्यूंकि कोई बदले ना बदले, तुम तो बिलकुल नहीं बदलोगे. तुम अपनी बिरादरी द्वारा बनायीं गयी काल कोठरी के अंदर ही सड़ोगे, समाज गया तेल लेने, और तुम्हारी इसी नाकामी का फायदा नेता उठाएंगे. तुम्हारी इसी कमज़ोरी को अपनी शक्ति बनायेंगे. तुम्हे जाती का हवाला देकर तुमसे वोट बटोरेंगे और तुम्हें उसी काल कोठरी में पड़े रहने के लिए छोड़ देंगे. कृष्ण यदुवंशी थे, यादव, तो पंडित होकर तुम अपने से नीच जात वाले की पूजा कैसे कर लेते हो? राम आर्य थे और आर्य पश्चिम एशिया से आये थे, तो राम भारतीय नहीं हुए, भारतीय नहीं हुए तो एंटी-नेशनल की केटेगरी में उन्हें रखा जायेगा या नहीं? मैं तो बस पूछ रहा हूँ, माफ़ करना अगर बुरा लगा हो, तुम्हारी भावनाएं आहात हो गयी होंगी, है ना? आगे की पीढ़ी भी पूछेगी. तब तुम क्या जवाब दोगे या तब भी ध्रितराष्ट्र की तरह मूक हो जाओगे जिस तरह द्रौपदी के चीरहरण के दौरान वो हो गए थे.
इस बारे में ज़रा सोचना. खैर नहीं भी सोचोगे तो क्या फर्क पड़ेगा, तुम तो सवर्ण हो, उसी में खुश होते रहना!

#आशुतोष