कहते हैं की आप एक इलाहाबादी को इलाहाबाद से निकाल सकते हैं मगर इलाहाबाद को एक इलाहाबादी के अंदर से नहीं निकाल सकते. दिल्ली-एनसीआर आए यूँ तो मुझे 3 साल से ऊपर हो चुके हैं मगर मेरी रूह आज भी मेरे शहर इलाहाबाद की गलियों में ही फिरती है. खबरों की दुनिया से जुड़े होने के चलते आँख और कान देश-दुनिया की तमाम खबरों के बीच इलाहाबाद को खोजते रहते हैं...इलाहाबाद को...प्रयागराज को नहीं! खैर शहर का नाम बदलने का विषय दूसरा है जिस पर कई बुद्धिजीवियों ने पिछले कुछ दिनों में अपनी राय रखी है, उन लोगों ने भी रखी है जिनका इलाहाबाद से कोई वास्ता नहीं है. व्यक्तिगत तौर पर शहर के नाम को बदलना मुझे ठीक नहीं लगा मगर हाल के दिनों में मेरे शहर से जुड़ी एक और ऐसी चीज़ है जो मुझे सहज नहीं लग रही, वो है अर्धकुम्भ 2019.
मैंने 2001 के महाकुम्भ की भव्यता देखी है. मैं 2007 के अर्धकुम्भ का साक्षी रहा हूँ. 2013 के महाकुम्भ में दो बार आस्था की डुबकी लगाई है और उसी महाकुम्भ में इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में श्रद्धालुओं की लाशें भी देखी हैं. इलाहाबाद में रहते हुए हर साल माघ के महीने में लगने वाले माघ मेले का भी मैंने आनंद उठाया है. मैंने कुम्भ के दिनों में एक शहर के अंदर नए शहर को बसते देखा है. मैंने पीपे के पुलों को बनते और नष्ट होते देखा है. मैंने कपड़े के घरों में लोगों को एक महीने जीवन बसर करते देखा है, मैंने अखाड़ों की पेशवाई देखी है, नागाओं का माँ गंगा से भेंट करने का उत्साह देखा है और मैंने कुम्भ में अपने परिवार के एक सदस्य को लगभग खोते भी देखा है. मगर इस बार जो मैं देख रहा हूँ वो पहले कभी नहीं देखा. कुम्भ में बाज़ार सजते देखा है मगर मैंने इससे पहले कुम्भ का बाज़ारीकरण नहीं देखा.
इतिहास के पन्नों में कुम्भ
कुम्भ मेले का इतिहास हज़ारों साल पुराना है. ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में ‘कुम्भ’ शब्द का उल्लेख है मगर वो उल्लेख सांकेतिक है जिसके कारण कुम्भ पर्व की सही जानकारी उनसे नहीं हासिल हो पाती है. पुराणों में कुम्भ के संदर्भ में जिन कथाओं का वर्णन है उनमें सबसे प्रचलित प्रसंग श्रीमद्भागवतपुराण का समुद्र मंथन से जुड़ा प्रसंग है. मान्यता है कि जब समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश निकला तो उसे हासिल करने के लिए देवताओं और राक्षसों में छीना-झपटी शुरू हुई. उसी वक़्त अमृत की बूंदें नासिक, उज्जैन, हरिद्वार और प्रयाग में गिरीं. तब से इन चार जगहों पर हर तीन साल के अंतराल पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है. 12 साल बाद ये मेला अपने पुराने स्थान पर लौटता है. वैसे कुम्भ मेले के आयोजन का प्रावधान कब से है इस विषय पर विद्वान अलग-अलग राय रखते हैं. कुछ कहते हैं कि ये 500 ईसा पूर्व से शुरू हुआ तो कुछ मानते हैं की गुप्त काल में इसका आयोजन शुरू हुआ. कुम्भ के एतेहासिक पहलु पर गौर करें तो पता चलता है कि ह्वेनसांग ने अपने भारत भ्रमण के दौरान प्रयाग में सन 634 में एक बड़े स्नान पर्व का ज़िक्र किया था. राशियों और ग्रहों से भी कुम्भ का आयोजन जुड़ा हुआ है. प्रयाग में कुम्भ का आयोजन तब होता है जब माघ के महीने में अमावस्या के दिन सूर्य और चंद्रमा मकर राशी में होते हैं और गुरु मेष राशी में. इसी प्रकार अन्य तीन शहरों में भी कुम्भ से जुड़ी अपनी पौराणिक और एतेहासिक मान्यताएं हैं मगर इलाहाबाद का कुम्भ इस लिए प्रमुख माना जाता है क्यूंकि ये गंगा, यमुना और विलुप्त सरस्वती के संगम स्थल पर आयोजित होता है.
कुम्भ के इतिहास के साथ-साथ ये जान लेना आवश्यक है कि हिन्दू मान्यताओं में अर्धकुम्भ की जड़ें आदिकाल से नहीं जुड़ी हैं जिस तरह महाकुम्भ की हैं. कहा जाता है कि अर्धकुम्भ का आयोजन मुस्लमान शासकों के आने के बाद से किया जाता है. उस समय उन शासकों द्वारा हिन्दुओं और उनकी मान्यताओं पर अत्याचार होता था जिसके कारण हिन्दू धर्मगुरुओं ने हिन्दुओं की एकता के बारे में सोचा और बारह साल नहीं हर छह साल पर एकत्रित होने का निर्णय लिया. इससे उन्हें हिन्दुओं को संगठित करना था. तब से महाकुम्भ के बीच में हर छह साल पर अर्धकुम्भ का आयोजन किया जाने लगा.
अर्धकुम्भ की तैयारी से शहर का हाल बेहाल
2017 में जब उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी थी, तब से ही उन्होंने इलाहाबाद में लगने वाले साल 2019 के अर्धकुम्भ की तैयारी का बीड़ा उठा लिया था. अर्धकुम्भ के नाम पर शहर को तोड़ा गया, सड़कों को उखाड़ा गया और अवैध कब्ज़ा किये लोगों को खदेड़ा गया. इस तमाम उधेड़-बुन में शहर की संरचना में काफी बदलाव किये गए. शहर के नए इलाकों में इस तोड़-फोड़ का उतना प्रभाव नहीं पड़ा जितना पुराने इलाकों में पड़ा. शहर के पुराने इलाके प्रमुख तौर पर तीन अलग-अलग दौर के हैं. एक वो दौर जब शहर में वासुकी नाग ने समुद्र मंथन के बाद शरण ली थी, भरद्वाज ऋषि का आश्रम था और सरस्वती अपने वेग से बहती थी. दूसरा वो दौर जब शेर शाह सूरी ने जीटी रोड का निर्माण करवाया था. तब शहर के कई हिस्सों को सराय का रूप दे दिया गया था. अकबर ने संगम किनारे अपने किले का निर्माण करवाया था और जहांगीर ने अपने बेटे ख़ुसरो मिर्ज़ा के लिए ख़ुसरो बाग का निर्माण करवाया था. तीसरा दौर वो था जब अंग्रेज़ों का शहर पर कब्ज़ा था जिसके चलते उन्होंने हाईकोर्ट बनवाया, कई स्कूल बनवाए, विश्वविद्यालय बनवाया, चर्च बनवाए और शहर का चेहरा पूरी तरह से बदल दिया.
ऐसी संरचना वाले शहर के पुराने इलाकों में आँख मूँद कर शहर के सौन्दरियाकरण के लिए और सड़कों को चौड़ी करने के लिए युद्ध स्तर पर बुलडोज़र चलवाए गए. इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि शहर की आबादी तेज़ी से बढ़ रही है जिसके चलते शहर में खुली और अतिक्रमण रहित सड़कों की आवश्यकता है मगर शहर के मूलतत्व से जिस प्रकार छेड़खानी की गयी वो एक इलाहाबादी होने के नाते मुझे दुःख पहुंचाता है. शहर के एक पुराने इलाके में स्थित ख़ुसरो बाग शहर की पहचान है. उसका हर एक अंश शहर की धरोहर है मगर इस बात का ख़याल न रखते हुए प्रशासन ने ख़ुसरो बाग के बाहर स्थित उसके एक मुख्या द्वार को गिरा दिया. उसी द्वार से कुछ दूर एक व्यस्त तिराहा है जहाँ से कई मोहल्ले के लोग गुज़रते हैं. उस तिराहे को चौड़ा करने की आवश्यकता लंबे समय से थी मगर उसे चौड़ा करने के चक्कर में ये ध्यान ही नहीं दिया गया की तिराहे के कोने में सन 1800 के दौर की अंग्रेजों द्वारा बनाई गयी एक चरही थी (चरही पर बनाए जाने का सन और ब्रिटिश सरकार द्वारा एक संदेश उकेरा हुआ था) जिससे जवानों के घोड़े पानी पिया करते थे, उसे भी वहां से नष्ट कर दिया गया. यही नहीं, शहर का एक प्रमुख इलाका चौक जो प्रदेश भर में काफी प्रसिद्ध है, वहां बने 100 साल से भी पुराने घरों को प्रशासन ने अवैध घोषित कर तोड़ दिया. इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के निकट एक चौराहा था जिसके कोने पर भगवन हनुमान का एक मंदिर था. मंदिर काफी पुराना था इसलिए उस वक़्त बिना उनकी ‘जात’ जाने ही निर्माण कराया गया था. मंदिर के ही कारण उस चौराहे को जोगीबीर चौराहा कहा जाता था. प्रशासन ने उस मंदिर को भी तोड़ दिया. अब आगे आने वाली पीढ़ी को नहीं पता चलेगा की उस चौराहे को जोगीबीर चौराहा क्यों कहते हैं. ऐसी बहुत सी छोटी-छोटी चीज़ें पूरे शहर में मौजूद थीं जो इलाहाबादियों के लिए खास थीं, उनके शहर का प्रमुख हिस्सा थीं मगर वो अब इलाहाबाद की सड़कों पर मलबों में मिली पड़ी हैं. शहर के कई पुराने इलाके तोड़-फोड़ से सीरया के किसी शहर की शकल ले चुके हैं जिनके अर्धकुम्भ तक पूर्ण निर्माण की कोई उम्मीद नहीं है.
2018 का अंत होते-होते शहर की सूरत और मिजाज़ को पूरी तरह बदल दिया गया है. नाम तो बदला ही बदला मगर पिछले कुछ समय से शहर की तहज़ीब भी बदलती दिख रही है. अचानक से ऐसा लग रहा है जैसे शहर की आँखों पर कोई धर्म और राजनीति का चश्मा चढ़ा रहा है. शहर को 'पेंट माय सिटी' अभियान के तहत रंगों और खूबसूरत चित्रों के माध्यम से नया कलेवर दिया जा रहा है, साधुओं के चित्र, हिन्दू मान्यताओं से जुड़े चित्र, आधुनिक भारत के निर्माताओं के चित्र इमारतों पर बने देखे जा सकते हैं जो तारीफ़ के काबिल है लेकिन उन चित्रों में मुझे धर्म की राजनीति की बू आ रही है. संगम क्षेत्र के पास हिन्दू मान्यताओं से जुड़े चित्र को अपनाया जा सकता है लेकिन शहर की हर दीवार को सिर्फ ‘भगवा’ रंग में रंगे जाने पर मुझे आपत्ति है. उन चित्रों में मुझे इलाहाबाद की गंगा-जमुनी तहज़ीब कहीं नहीं दिख रही. मुझे सर पे टोपी लगाकर, पैर मोड़े, इबादत में बैठे किसी बच्चे की तस्वीर नहीं दिख रही ना ही मुझे सूली पर चढ़े उस परमात्मा की तस्वीर दिख रही है जिसने सच्चाई के मार्ग पर चलने की सदा सीख दी है.
अर्धकुम्भ या 2019 की प्रयोगशाला
इन तमान चीज़ों के बीच जो सबसे बड़ी हैरत की बात है वो ये है कि राज्य सरकार ने 2019 के अर्धकुम्भ की ब्रांडिंग महाकुम्भ के तर्ज़ पर की है. मैं आज देख रहा हूँ की अर्धकुम्भ के विज्ञापन सोशल मीडिया पर ही नहीं, टीवी और रेडियो पर भी छाये हुए हैं. 'कुम्भ चलो' का नारा जन संचार के सभी माध्यमों पर गूँज रहा है. अर्धकुम्भ में हज़ारों करोड़ रुपये इन्वेस्ट किया जा चुका है. 60 से अधिक देशों के प्रतिनिधि शहर का भ्रमण करने आ चुके हैं. प्रधानमंत्री शहर आ कर पूजा-आरती कर चुके हैं और इलाहाबाद को इतनी जल्द देश के तमाम शहरों से हवाई मार्ग के ज़रिये जोड़ दिया गया है, केंद्र वह राज्य सरकार के तमाम बड़े मंत्री तैयारियों का जायज़ा लेने शहर आ रहे हैं और ये सब कुछ महज़ अर्धकुम्भ के लिए किया जा रहा है. इस बार ऐसा लग रहा है कि अर्धकुम्भ को महाकुम्भ की तरह पेश करने के पीछे कोई खास मकसद है. इससे पहले भी इलाहाबाद में कुम्भ हुए हैं, 2013 के कुम्भ का योग खगोल विद्या के हिसाब से 100 साल बाद बना था यहाँ तक कि 2013 कुम्भ में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के छात्र कुम्भ के आयोजन पर शोध कार्य करने आये थे जिसे उन्होंने अपने यहाँ के गज़ट में प्रकाशित किया था मगर राजनीति और धर्म का ऐसा संगम इस बार पहली दफा देखने को मिल रहा है.
ये बात तो साफ़ है की सनातन धर्म के अनुयायिओं का इतना बड़ा जनसैलाब और किसी पर्व पर, भारत में नहीं लगता. इसके अलावा हम ये भी जानते हैं कि साल 2019 अर्धकुम्भ के कारण सामाजिक और धार्मिक तौर पर तो महत्वपूर्ण है ही, राजनीतिक तौर पर भी अत्यंत महत्वपूर्ण है क्यूंकि इसी साल लोकसभा के चुनाव होने तय हैं. ऐसे में ये किसी के लिए भी समझना मुश्किल नहीं होगा कि अपने हिंदुत्व के एजेंडे को सिद्ध करने के लिए भारतीय जनता पार्टी के पास ये सबसे बड़ा मौका है.
भारतीय जनता पार्टी के चाणक्यों को ये पता है कि देश में महागठबंधन मज़बूत होता जा रहा है, ऐसे में वोट हासिल करने के लिए हिन्दुओं को संयुनक्त करना ज़रूरी है और अर्धकुम्भ 2019 पार्टी के उसी एजेंडा को सिद्ध करने की प्रयोगशाला हो सकती है. साधू-संत, महामंडलेश्वर आदि लोग हमारे समाज के ओपिनियन लीडर होते हैं जो आम जनता की सोच पर पूर्ण रूप से हावी हो सकते हैं. इन लोगों पर पकड़ बनाने से हिन्दुओं की भावनाओं पर भी पकड़ बनाई जा सकती है. इलाहाबाद इन दिनों बीजेपी के लिए युद्ध क्षेत्र बना है जहाँ हिन्दुओं को लुभाने के लिए उनकी छटपटाहट साफ़ देखी जा सकती है. हाल की खबर इस तथ्य को साबित भी करती है जिसमें पीएम मोदी ने ये घोषणा की है कि इलाहाबाद में अकबर का किला अब आम लोगों के लिए खोला जाएगा जिसमें लोग अक्षयवट के दर्शन कर सकेंगे. हालही में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ये एलान किया है संगम किनारे बने उसी अकबर के किले के अंदर देवी सरस्वती और ऋषि भरद्वाज की मूर्ती सुशोभित की जाएगी. ये सारे बदलाव पहले के महाकुम्भ या अर्धकुम्भ में देखने को कभी नहीं मिले थे. यहाँ तक कि 2001 के कुम्भ के दौरान भी बीजेपी की सरकार थी और राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री थे मगर उस दौरान भी शहर की बनावट में इतने बदलाव नहीं हुए थे ना ही इतनी रोक टोक थी जितनी इस बार हो रही है. बाधाओं को बढ़ाते हुए प्रशासन इस बार ये भी एलान कर चुका है कि अर्धकुम्भ के दौरान इलाहाबाद में शाही स्नान के एक दिन पहले और एक दिन बाद शादी-समारोह के आयोजन नहीं होंगे.
गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक है इलाहाबाद
मुझे शहर के सौन्दरियाकरण से कोई दिक्कत नहीं है लेकिन मुझे परेशानी इस बात से है कि धर्म की राजनीति के कारण लोगों को भ्रमित किया जा रहा है और इसी राजनीति से इलाहाबाद अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब खो सकता है जिसके लिए वो पूरे विश्व में जाना जाता है. ये वो शहर है जहाँ कभी सूफी संत तकी, कबीर और गुरु नानक मिले थे. ये वो शहर है जहाँ दाराशिकोह ने वेद और पुराणों के अनुवाद अरबी और फारसी भाषा में किये थे. ये वो शहर है जहाँ एक प्रसिद्ध मुस्लमान शासक द्वारा बनाई गयी जी.टी. रोड पर राम की सवारी और मुहम्मद के नवासे की याद में लोग एक साथ निकलते हैं. ये वो शहर है जहाँ जय श्री राम और अल्लाह हु अकबर के नारे एक साथ गूंजते हैं.
इस शहर की खासियत यही है कि राजनीति के क्षेत्र में इसने अपना अहम योगदान दिया है मगर कभी भी उस राजनीति के चलते अपने भाईचारे के स्वभाव को नष्ट नहीं किया है. अब इस शहर पर धर्म की राजनीति का जो साया मंडराने लगा है वो इस शहर के स्वास्थ्य के लिए काफी हानिकारक सिद्ध हो सकता है....
आशुतोष अस्थाना (Ashutosh Asthana)