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Sunday, 18 November 2018

स्मार्टफोन और हम

आखिरी बार ऐसा कब हुआ था जब आप किसी ऐतिहासिक इमारत को देखने गए हों और उसकी सुंदरता को देख कर इस तरह खो गए हों कि आप अपने स्मार्टफोन से फ़ोटो खींचना भूल गए हों?
आखिरी बार ऐसा कब हुआ था जब आप डूबते सूरज को देखने में इतना डूब गए कि आपने उस दृश्य को अपने कैमरे में कैद नहीं किया और उसे देखते वक़्त बस यही सोचा कि काश ये वक़्त यहीं ठहर जाए?
आखिरी बार ऐसा कब हुआ था जब आप अपने पसंदीदा व्यंजन को खाने गए और खाने के स्वाद के आगे इंस्टाग्राम पर फ़ोटो डालना भूल गए?
आखिरी बार ऐसा कब हुआ था जब आप खूब सज कर किसी संबंधी के विवाह या किसी अन्य समारोह में गए हों और खुद की सेल्फी लेने के बजाए उस स्थान को, वहां मौजूद लोगों को या वहां से निकलने वाली ऊर्जा को महसूस किया हो?
अगर ध्यान से सोचेंगे तो पाएंगे कि ये सब किये काफी वक़्त हो चुका है। असल में हम महसूस करना भूल गए हैं, फिर चाहे वो कोई भावना हो, कोई बात हो, कोई जगह हो या कोई इंसान। हम अब जो भी करते हैं वो दूसरों को दिखाने के लिए करते हैं। औरों को ये बताने के लिए की हमने फलां काम आपसे पहले कर लिया या बेहतर ढंग से कर लिया और इसी चक्कर में हमने महसूस करना बंद कर दिया। किसी बचपन के दोस्त से काफी सालों बाद मुलाक़ात होने पर उसकी खैरियत पूछने से पहले, उसकी हालिया स्थिति को महसूस करने से पहले, उसको प्यार का एहसास दिलाने से पहले हम ये फिक्र करने लगे हैं कि दोस्त के साथ खींची हुई तस्वीर में हैश-टैग क्या डालेंगे।
अब परिवार के साथ छुट्टियां मना कर लौटने पर तस्वीरें तो ढेर सारी रहती हैं मगर यादें ले आना हम भूल जाते हैं। आप कहेंगे कि वो तस्वीरें ही तो यादें हैं। हां कुछ लोगों के लिए तस्वीरें यादों की जगह ले सकती हैं मगर असल यादें होती हैं वो हंसी, वो एहसास, वो जज़्बात जो आपस में एक दूसरे से बांटे गए जिसे तस्वीरें क़ैद नहीं कर पाती।
इस दौर में रहने के कारण टेक्नोलॉजी हर किसी की आवश्यकता बन गयी है। सिर्फ स्मार्टफोन की ही बात करें तो एक दिन इसके बिना बिताना नामुमकिन सा लगता है। ऐसा लगता है जैसे किसी ने हमारे हाथ-पैर काट दिए हों। दिल्ली जैसे बड़े शहर में बिना स्मार्टफोन के रहना असंभव है। क्या हो अगर मैप की सुविधा ना हो, एक जगह से दूसरी जगह आसानी से जाने के लिए ट्रैवेल एप ना हों, ऑनलाइन खाना मंगाने की सुविधा ना हो, पेमेंट करने के लिए ऑनलाइन वॉलेट ना हो, किसी से बात करने के लिए व्हाट्सएप या वीडियो कॉल जैसी सुविधा ना हो! सोच कर जीना नामुमकिन लगता है। मगर फिर सोचता हूँ की दिल्ली जैसे बड़े शहर में आज से 20 साल पहले भी लोग रहते ही होंगे। एक जगह से दूसरी जगह की दूरी भी उतनी ही होगी। लोगों के पास कैश खत्म भी हो जाता होगा। लोग एक दूसरे से दूर पहले भी रहते ही होंगे।
ये सब सोचने पर लगता है कि बाज़ार ने कैसे हमें पहले खुद पर आश्रित किया और हमारे जीवन में बिल्कुल भीतर तक घुस कर हमें असहाय बना दिया।
इस बाज़ार ने ही हमारे अंदर से महसूस करने की काबिलियत को भी खत्म कर दिया, नहीं तो वो खुशी कैसी होती होगी जब अपने किसी दूर के सम्बंधी से बात करने के लिए ट्रंक कॉल करना पड़ता होगा। आधी रात में भूख लग जाने पर माँ को बिना तंग किये चोरी छुपे किचन में घुस कर खुद के लिए कुछ बनाना कैसा होता होगा। देर रात साधन ना मिलने के डर से घर वक़्त पे आने का सुख कैसा होता होगा। रास्ता भटक जाने पर चाय की दुकान वाले से रास्ता पूछने के बहाने एक प्याली चाय की चुस्की लेने का आनंद कितना अनोखा होता होगा।
मुझे खुशी है कि मैंने चिट्ठियां देखी हैं और ट्रंक कॉल भी। मैंने रास्ता भटकना भी देखा है और चार लोगों से पूछते-पूछते मंज़िल तक पहुंचना भी। मैंने एक ही घर में रह रहे परिवार के सदस्यों को आमने-सामने बैठ कर एक दूसरे से बात करते देखा है। अंधेरे में मोबाइल का फ़्लैश बटन ढूंढना तो देखा ही है पर मैंने बिजली कट जाने के बाद अंधेरे में इधर-उधर, ठोकर खा कर किसी दराज़ में रखे टोर्च की तलाश भी देखी है। परिवार के साथ खरीददारी के दौरान कैश खत्म हो जाने पर, मैंने अपने आप को दुकानदार के पास गिरवी रखवाते हुए भी देखा है। मैंने वो समय देखा और जिया है जब मोबाइल फ़ोन का मुख्य काम दूरदराज़ पर बैठे किसी व्यक्ति से बात कराना होता था।
बेशक समय बदलता है, चीज़ें आधुनिक होती हैं, बदलाव भी उसी प्रकार आना स्वाभाविक है मगर इस बदलाव के कारण इंसानी तौर पर हमारा जो सबसे बड़ा नुकसान हुआ है, वो है महसूस करने की शक्ति का मिट जाना जो आगे की जनरेशन में कम ही देखने को मिलेगी। सही है या गलत, पता नहीं, मगर ये हानि बहुत बड़ी है!
#आशुतोष