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Monday, 16 December 2019

जाने वाले दशक को अलविदा!

2019 खत्म होने को है। इस साल के खत्म होने के साथ ही एक दशक का अंत हो रहा है। पिछले दशक ने व्यक्तिगत तौर पर मेरे अंदर कई बदलाव किए साथ ही इस देश में भी परिवर्तन को जन्म दिया।

2010, दशक की शुरुआत स्कूल में ही हुई। ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत पलों को जी रहा था। 10वीं की बोर्ड परीक्षा दे कर 11वीं क्लास में आया था। वो क्लास जिसने हलका-हलका ये अनुभव देना शुरू कर दिया था कि स्कूल से निकलने के बाद जीवन और कठिन होने वाला है, फिर भी फिक्र को स्कूल कैंटीन के समोसे की भाप में उड़ाता चला जा रहा था। लगभग सारे पुराने सब्जेक्ट से याराना खत्म हो चुका था और कॉमर्स, एकाउंट्स और इकोनॉमिक्स जैसे नए साथी मिल गए थे। उसके साथ ही एक बड़ी जिम्मेदारी भी। हिंदी साहित्य समिति का उपाध्यक्ष बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। खुद के अंदर दायित्वों को पूरा करने की शक्ति महसूस होने लगी, कुछ खुद से, कुछ गुरुओं के मार्गदर्शन से। कई नए दोस्त बने,कई पुरानी दोस्ती की नींव डगमगाने लगी मगर ज़िंदगी बेहद खूबसूरत ढंग से बीत रही थी।

10वीं के बाद 11वीं में भी ट्यूशन करना पड़ा मगर दूसरी जगह। वहां नए शिक्षक मिले और नए दोस्त बने। सब मुसलमान थे...मगर उन दिनों हम हिंदू मुसलमान से ज़्यादा महज़ इंसान हुआ करते थे। शिक्षक भी मुसलमान थे मगर इस बात का कभी फर्क नहीं पड़ा, ना उन्होंने कभी एहसास दिलाया, ना मैंने कुछ अलग महसूस किया। वो सिर्फ गुरु थे और मैं उनका शिष्य। उनकी डांट सुन कर बुरा भी लगा तो अपने लिए सबके सामने पढ़े गए तारीफ के कसीदों से खुशी भी हुई। उनका दिया एक गुरु मंत्र आज भी याद है, 'कायदे में रहोगे तो फायदे में रहोगे!'

2011 में 12वीं क्लास के रंग भी देखे। विद्यालय का सबसे सीनियर विद्यार्थी होने का सुख भी अपने में अनोखा होता है। 12वीं में हिंदी एसोसिएशन का अध्यक्ष बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसी वक़्त धोनी की कप्तानी में भारत ने क्रिकेट का विश्वकप अपने नाम कर लिया। यूँ तो मैं स्पोर्ट्स प्रेमी नहीं हूं मगर वो पल आज भी मेरे ज़हन में कैद है।
वो पहली बार था जब न्यूज़ में बेहद रुचि होने लगी, सिर्फ खेल या मनोरंजन की खबरों के कारण नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि दिल्ली के रामलीला मैदान में एक मराठी भाषी टूटी फूटी हिंदी में पूरे देश को एक सूत्र में बांध रहा था। राजनीति के प्रति पैदा हुई रुचि के साथ बदलाव की एक किरण मुझे भी दिखने लगी। पता नहीं कौन से बदलाव की, पता नहीं क्या बदलने वाला था, मगर अन्ना को देख कर हौसला बढ़ रहा था।

2012 की शुरुआत में बोर्ड परीक्षा का डर सताने लगा...वैसे डर एक और चीज़ का सता रहा था, वो था दुनिया खत्म होने का। उसी साल दिसंबर के महीने में दुनिया खत्म होने की घोषणा हो चुकी थी। रह रह कर वो ख्याल दिमाग में तैर जाता था। 2012 की शुरुआत में ही बड़ी बहन की शादी के कारण प्री-बोर्ड की परीक्षा नहीं दे पाया था। आज भी उस बारे में सोचता हूँ तो निश्चित नहीं कर पाता कि परीक्षा न देने का निर्णय सही था या गलत!

खैर, मार्च में बोर्ड की परीक्षा खत्म हो गयी और कॉलेज के एंट्रेंस की ओर पूरा ध्यान केंद्रित हो गया। स्कूल से निकलना खुद पर पहाड़ टूटने जैसा था। स्कूल से निकलने का मतलब था कि 13 साल के बने बनाए शेड्यूल को एक झटके में तोड़ना, स्कूल के दोस्तों से रोज़ न मिलना, बेफिक्र ज़िंदगी को अलविदा कहना। स्कूल से निकलते ही ज़िंदगी बदल गयी थी।

बोर्ड के नतीजे आने के बाद एक ओर जिधर एंट्रेंस की हलचल थी वहीं दूसरी ओर विधानसभा चुनावों का शोर शहर में चारों ओर सुनाई दे रहा था। राजनीति में रुचि रखने वाले दोस्तों और बड़ों से पता चला कि समाजवादी पार्टी का सत्ता में आना लगभग तय है। राजनीति में बहुत ज़्यादा रुचि तो नहीं थी मगर फिर भी चुनावी तैयारियां और उनके बारे में सुनना अच्छा लगने लगा।

नतीजे आये...एंट्रेंस परीक्षा के भी और चुनाव के भी। नतीजे आने के बाद सिर्फ मैं ही नहीं दुखी था जिसका इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बीएचयू के मेन ब्रांच में बीकॉम में चयन नहीं हुआ था, 'बहन जी' भी दुखी थीं जिन्हें अपनी सत्ता त्यागनी पड़ रही थी.

मुझे पता लग चुका था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की भी पढ़ाई होती है...मैंने बिना वक़्त गंवाए उसका फॉर्म भरा और परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन कर एंट्रेंस में चौथा स्थान हासिल किया। लग रहा था जैसे चारों ओर शंखनाद हो रहा हो। वैसे शंखनाद तो हो रहा था क्योंकि उत्तर प्रदेश में समाजवादियों के युवराज सत्ता पर आसीन हो चुके थे। सत्ता में आते ही अखिलेश यादव ने विद्यार्थियों को मुफ्त के लैपटॉप बांटने वाली स्कीम की घोषणा कर दी थी और इसी के साथ मुझे 2013 में मेरा पहला लैपटॉप मिला था।
इधर मैंने पहली बार कॉलेज की दहलीज़ पर कदम रख दिया था। 2012 से 2015 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज ने मुझे एक अलग पहचान दी, साथ ही ऐसे लोगों का साथ दिया जो ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन गए।

वैसे इन तीन सालों को इतनी जल्दी फ़ास्ट फारवर्ड नहीं किया जा सकता।
2012 के निर्भया मामले ने देश को जिस तरह से एक जुट किया वो देखने लायक दृश्य था। उस वक़्त दिन भर टीवी से लग कर यही देखता था कि दोषियों को कब और कैसे सज़ा होगी। वैसे उसी साल मुझे पहली बाइक मिली थी। वैसे मुझे रफ्तार का शौक नहीं था मगर उस साधारण सी बाइक पर बैठ कर भी धूम के जॉन अब्राहम वाली फीलिंग आती थी।

साल 2013 में जहां मेरा पसंदीदा खिलाड़ी क्रिकेट की दुनिया को अलविदा कह रहा था वहीं दूसरी ओर राज्य की राजनीति का एक मंझा हुआ खिलाड़ी केंद्रीय राजनीति में ओपनिंग करने को तैयार था।
सचिन के रिटायरमेंट के बाद क्रिकेट से अचानक मेरी रुचि खत्म हो गयी मगर मोदी जैसे कुशल वक्ता को सुनकर राजनीति में भी फिल्मों जैसी रुचि पैदा होने लगी थी।
2G, CWG और 'जीजाजी' से देश इतना त्रस्त हो चुका था कि लोगों को यकीन होने लगा था कि अच्छे दिन ज़रूर आएंगे। वैसे अच्छे दिन आये भी, काफी हद तक देश के, उससे थोड़ा अधिक हद तक बीजेपी के! लंबे वक्त के बाद बीजेपी को लोकसभा चुनाव में प्रचंड जीत हासिल हुई और 2014 में नरेंद्र दामोदरदास मोदी भारत के प्रधानमंत्री बन गए।

एक ओर जहां पीएम मोदी के विदेश दौरे शुरू हो चुके थे, दूसरी ओर 2015 में भारत की सर्वश्रेष्ठ पीरियड फ़िल्म बाहुबली बड़े पर्दे पर दस्तक दे चुकी थी। 'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा?', फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद देश में दूसरा सर्वाधिक पूछे जाने वाला सवाल बन गया था। पहले नंबर पर, '15 लाख रुपये खाते में कब आएंगे?', सवाल बरकरार था।

2015 में कॉलेज खत्म होने के बाद नौकरी के लिए दौड़ भाग शुरू हो गयी। इसी बीच बड़े भाई की शादी के बाद इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश से निकल कर दिल्ली और नोएडा में ज़िंदगी गुज़रने लगी। दूरदर्शन और इंडिया न्यूज़ में ट्रेनिंग करने के बाद इंडिया टुडे में पहली नौकरी हाथ लगी।

इस बीच सोशल मीडिया पर ट्रोल्स की फौज खड़ी होना शुरू हो गयी थी। सत्ताधारी पार्टी देशभक्ति का पर्याय बन गयी थी और उसके खिलाफ खड़ी होने वाली हर शक्ति देशद्रोही बन गयी थी। देशभक्ति के सर्टिफिकेट बांटे जाने शुरू हो गए थे। एक पार्टी और एक व्यक्ति के लिए समर्थन, प्रेम में बदलता जा रहा था। ऐसा प्रेम जिसके साय में उस पार्टी और व्यक्ति का हर गुनाह नज़रअंदाज़ किया जाना शुरू हो चुका था। आलम ये था कि लोग अपने प्रधानमंत्री से सिर्फ इसलिए प्यार करने लगे थे क्योंकि वो 4 घंटे सोते थे और नवरात्रि पर व्रत भी रहते थे।
चीज़ें फिर भी काफी हद तक सामान्य थीं मगर 2016 में बंधी कलाइयां खुलने लगीं। मुकेश अंबानी प्रसन्न देवता की तरह प्रकट हुए और वरदान स्वरूप देशवासियों को मुफ्त का इंटरनेट बांटने लगे। इंडिया टुडे में रहते हुए मुझे भी फ्री में जियो का सिम प्राप्त हो गया था।

जियो का सिम आते ही देश में इतना बड़ा बदलाव आया कि सब हैरान रह गए। अब भारत का युग BC और AD में नहीं BJ ( Before Jio) और AJ (After Jio) से आंका जाने लगा। देश का युवा जो अखबार, पुस्तकों के नज़दीक था, देश से जुड़ी समस्याओं पर सोच विचार करता था, वो अब इस बात पर विचार करने लगा कि 1 GB डेटा पूरे दिन में कैसे खत्म किया जाए।

धीरे-धीरे वीडियो कंटेंट में इतनी वृद्धि हुई कि हर दूसरा व्यक्ति वीडियो कंटेंट का क्रिएटर बन गया। लोगों ने पढ़ना कम कर दिया, वीडियो देखना अधिक कर दिया मगर इस बात से अनजान रहे कि वीडियो की दुनिया में फेक न्यूज़ और फ़र्ज़ी वीडियो का बाज़ार भी बढ़ रहा है। इन्हीं फ़र्ज़ी वीडियो और खबरों को देख कर लोगों में द्वेष इतना बढ़ गया कि महज़ अफवाहों पर लोगों को पीट पीट कर मार डालने की प्रथा शुरू हो गयी।

2016 के अंत में नौकरी करते एक ही साल हुए थे कि सरकार ने 500-1000 के नोटों को बंद कर सबको सकते में डाल दिया। नोटबंदी के कुछ ही दिन बाद बड़े भाई की शादी हुई जिसमें घरवालों को काफी मुश्किल हुई थी। आम जनता में नोट बंदी के फैसले को लेकर काफी गुस्सा था।
इस वक़्त तक प्रेम भक्ति में तब्दील हो चुका था। लोग धर्म के आधार पर बंट चुके थे। सबसे ज़्यादा दुख इस बात का था कि 11वीं और 12वीं में जो दोस्त साथ पढ़े थे, जो एक ही टिफिन से खाना खाया करते थे, एक साथ खेलते थे...वो अब सिर्फ नाम के दोस्त रह गए थे। वो अब अपने धर्म से पहचाने जाने लगे थे। एक दोस्त भक्त बन गया तो दूसरा पाकिस्तानी। एक दोस्त आरएसएस की संतान बन गया तो दूसरा बाबर की औलाद!
अब राजनीतिक पार्टीयों या नेताओं को अपना बचाव नहीं करना पड़ रहा था, आम लोग खुद उनके पैरोकार बन कर घंटों सोशल मीडिया पर अपनों के दुश्मन बन गए थे।
2016 के अंत तक सेना की एंट्री मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स में हो गयी। सेना अलग इंस्टीट्यूशन न रह कर वोट मांगने का माध्यम हो गयी थी।

2017 में जहां निजी ज़िंदगी में काफी हलचल पैदा हो रही थी, वहीं मेरे गृह राज्य में एक नया नेता मुख्यमंत्री के तौर पर चुना जाने वाला था। वो उन नेताओं का उत्तर था जो दाढ़ी रखते थे और अपने धर्म की टोपी लगाकर धर्म की राजनीति करते थे। वो नेता भगवाधारी था, गाय से प्रेम करता था, अनुशासित जीवन बिताता था, घंटों पूजा करता था और अपनी पार्टी का स्टार प्रचारक था। अखिलेश की साईकल को किनारे कर के योगी ने उत्तर प्रदेश में लंबे वक्त बाद कमल खिलाया था।
2017 में लोगों को ये भी पता चल गया कि 'कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा!'
इसी साल अपनी दूसरी नौकरी में रहते हुए पहली बार हवाईजहाज़ में बैठने का मौका मिला साथ ही खुद के अंदर घुमक्कड़ी स्वभाव पैदा हो गया। 2017 और 2018 में कई नए शहरों को देखने का मौका मिला। 2018 के दौरान कई बड़े एंटरप्रेन्योर का इंटरव्यू करने का मौका मिला। इस दौर तक एक पार्टी और व्यक्ति के लिए भक्ति अंधभक्ति में बदल चुकी थी। अब निर्णय चाहे कोई भी हो, उसका समर्थन ही हो रहा था और जो समर्थन न करे वो लाखों लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर इस कदर ट्रोल होने लगा था कि वो फिर कभी कुछ और कहने से डरता था। अब तक छात्र दुश्मन बन चुके थे और दुश्मन सिर्फ पाकिस्तन रह गया था, जिसके सहारे देशभक्ति की अलख हमारे अंदर जली हुई थी।

2018 के अंत में फिर इंडिया टुडे में काम करने का अवसर मिला। 2019 आते-आते कई रिश्ते मज़बूत हो गए, और उसी मज़बूती के साथ बीजेपी ने फिर सत्ता पर अधिकार जमा लिया था। खबरों पर विश्वास नहीं रह गया था, विपक्ष विश्वास के लायक नहीं था और सरकार विश्वास पैदा नहीं होने दे रही थी। लोग धर्म को लेकर इतने कट्टर हो गए कि वो इंसानियत भूल गए। पूरी आबादी अपने में लड़ते, भिड़ते, जलते, जलाते, बनते, बिगड़ते साल के अंत तक पहुँच आयी थी।

आज जब हम 2010-2019 के दशक को अलविदा कह रहे हैं तो मैं अभी भी ये आशा कर रहा हूँ कि आने वाला दशक मेरे लिए ही नहीं, इस देश के लिए भी नई उम्मीदें ले कर आएगा। अगर आप यहां तक पहुँच आये हैं तो आपको 2020 की ढेर सारी बधाई!

#अशुतोष
दिसंबर, 2019

Saturday, 14 September 2019

हिंदी दिवस

13 साल इंग्लिश मीडियम के कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने के बाद भी मेरा लगाव हिंदी से अटूट है। वो इसलिए कि हिंदी मुझे अपनी माँ से विरासत में मिली है। हिंदी मेरी माँ की ज़बान है इसीलिए वो मेरी मातृभाषा है। मेरी ही नहीं, हिंदी पट्टी में रहने वाले बहुतों की मातृभाषा हिंदी है।
अंग्रेज़ी में वो बात नहीं जो हिंदी में है क्योंकि मातृभाषा से अधिक खूबसूरत कोई भाषा नहीं हो सकती। आपकी मातृभाषा मराठी, बंगाली, पंजाबी, गुजराती, तमिल, कन्नड़...कोई भी हो सकती है। ज़रूरी ये है कि आप अपनी मातृभाषा पर गर्व करें। उससे भी ज़्यादा ज़रूरी आज के वक़्त में अपने बेटे बेटियों को भाषा का ज्ञान देना है। दिल्ली एनसीआर में जब से रह रहा हूँ, ये देख रहा हूँ कि लोग अपनी भाषा से कटते जा रहे हैं। दिल्ली के पॉश इलाकों में बड़ी मुश्किल से आपको कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा में बात करते हुए मिलेगा।
‌पिछले साल अपनी पुरानी कंपनी के एक इवेंट के सिलसिले में दिल्ली के एक बड़े होटल में जाना हुआ था। इवेंट में शामिल होने वाला हर स्पीकर अंग्रेज़ी में ही बात कर रहा था। दर्शक भी आपस में अंग्रेज़ी में ही बात कर रहे थे। इवेंट के अंत में पेटीएम कंपनी के मालिक विजय शेखर भी  स्पीकर के तौर पर शामिल हुए और उन्होंने अपनी आधी से ज़्यादा बात हिंदी में रखी। लोग चौंके, फिर उनकी बातों पर तालियां पीटने लगे। दूसरों के सेशन से ज़्यादा विजय शेखर के सेशन की चर्चा हुई। वो इसलिए कि उन्होंने अपनी भाषा में संवाद किया...जिससे दर्शक उनसे अधिक जुड़ सके। मातृभाषा में बात करने से नज़दीकियां झलकती हैं। अंग्रेज़ी में औपचारिकता महसूस होती है। वही औपचारिकता जो विजय शेखर के सेशन से पहले के सेशन में दिखाई दे रही थी।
‌वैसे यहां गौर करने वाली बात ये भी है कि अगर विजय शेखर की जगह कोई आम आदमी ऐसी जगह पर हिंदी में बात करता तो लोग हेय दृष्टि से देखते। वो इसलिए आज कल लोगों को अपनी भाषा में बात करने में शर्मिंदगी महसूस होती है। कभी कभी सोचता हूँ कि क्या उन्हें अपनी माँ से भी बात करने में शर्मिंदगी होती होगी...शायद नहीं...तो मातृभाषा में बात करने में क्यों शर्म महसूस होती है! ये दुर्भाग्यपूर्ण है। सिर्फ अगली पीढ़ी के लिए ही नहीं, हमारे लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम अगली पीढ़ी तक भाषा की विरासत को नहीं बढ़ा पा रहे हैं।
‌अलग अलग भाषाओं का ज्ञान होना अच्छी बात है। अंग्रेज़ी एक ग्लोबल ज़बान है, उसे सीखना भी आवश्यक है मगर अपने देश और अपने क्षेत्र में रह कर कोई दूसरी ज़बान बोलना ठीक नहीं है।
#आशुतोष

Saturday, 4 May 2019

ब्रांडेड बचपन

जब 10-11 साल के बच्चों से ब्रांड और कीमत के बारे में बात करते सुनता हूँ तो बड़ी कोफ्त होती है। उनसे ज़्यादा उनके परिजनों पर हैरानी होती है जो अपने बच्चों को इतनी छोटी उम्र में ब्रांड और सामान की कीमत बताते हैं। ऐसा कर के हम उन बच्चों की मानसिकता को सही राह नहीं देते जिससे समाज की कई मायनों में हानि होती है।

योनेक्स के बैडमिंटन रैकेट, 200 रुपये वाली पार्कर पेन, 3 हज़ार का बैट, रीबॉक के 2 हज़ार के जूते, 100 रुपये वाली क्लासमेट की कॉपी, 4 हज़ार की जीन्स...परिजन हर वस्तु की कीमत और वस्तु का बाज़ार में कितना महत्व है, इसकी जानकारी दे कर बच्चों को छोटी उम्र में ही मटीरियलिस्टिक बना देते हैं। इससे बौद्धिक विकास की दिशा ही बदल जाती है। जिस उम्र में उन्हें ये प्रश्न करना चाहिए कि रात में सूरज कहाँ छिप जाता है, या फिर चाँद हमारे साथ क्यों चलता है, वो अपने से 3 गुना बड़ी उम्र के लोगों से ये पूछते हैं की आपने जो घड़ी पहनी है वो कौन सी कंपनी की है? मेरे पापा के पास तो 15 हज़ार की फॉसिल की घड़ी है! आपकी की घड़ी तो सस्ते ब्रांड की है!

इस उम्र में बच्चों को जानवरों और पेड़ों से परिचित कराना चाहिए, उन्हें प्यार करना सिखाना चाहिए। बच्चों को खिलौनों के तालाब में फेंकने के बजाए किताबों के महासागर में गोते लगाने के लिए छोड़ना चाहिए। हर मांग को पूरी करने के साथ साथ उन्हें ऐसे लोगों के बारे में भी बताना चाहिए जो अपनी हसरतों को पूरा नहीं कर पाते। अगर ऐसा नहीं किया तो ये बच्चे इंसान या अन्य जीवों से प्यार करना नहीं, सिर्फ भौतिक वस्तुओं और दिखावे से ही प्यार करना सीखेंगे, उन्हें जीवन में अधिक महत्व देंगे।

अब इसमें आप ये तर्क भी दे सकते हैं कि अरे बच्चे ही तो हैं, इतनी चिंताएं लाद देंगे तो बचपन ही खत्म हो जाएगा। तो जनाब बचपन तो आपने उसी दिन खत्म कर दिया था जब आपने उसकी ज़िद पर बेहद महंगा खिलौना उसे दिलाया था और टूट जाने पर उसे ये कह कर डांटा था कि जानते हो कितने रुपये का था!
या फिर आपने उसे रिश्वतखोरी सिखाते हुए ये कहा था कि मेरी बात मान लो तो तुम्हारी पसंद की कार ला कर देंगे।

आप ये भी कह सकते हैं कि बच्चों की अलग अलग रुचि हो सकती है। क्या पता उसे बचपन से ही गैजेट या टेक संबंधी चीज़ों के बारे में जानना पसंद हो, तो उनके बारे में जानने में क्या हर्ज है?
आप भी समझते होंगे कि बच्चों को समाज की कई चीजों की जानकारी कम उम्र में देना ठीक नहीं है। जिस प्रकार फिल्मों में आपत्ति जनक दृश्यों को बच्चों को दिखाने से परहेज़ करते हैं, उसी प्रकार कई जानकारियां ऐसी हैं जो इस उम्र के लिए ठीक नहीं हैं। रुचि विकसित करने के लिए और उस रुचि को पेशा बनाने के लिए बच्चों के सामने बहुत लंबा वक्त पड़ा है मगर बौद्धिक विकास इस उम्र से ही शुरू हो जाता है।

बच्चों को खुद से मोबाइल का लॉक खोल कर गेम खेलते देख कर कुछ पल के लिए खुश तो हुआ जा सकता है मगर अगले ही पल ये सोच कर भी चिंता करनी चाहिए कि वो बच्चा बड़ा हो कर समाज में क्या योगदान देगा।
समाज के निर्माण में हर व्यक्ति खास है और हर इकाई ज़िम्मेदार है। हमें खुद की ज़िम्मेदारी समझनी होगी और बच्चों को समझानी होगी, तभी एक बेहतर समाज निर्मित होगा।
#आशुतोष

Monday, 4 March 2019

सूजी का हलवा


ऑफिस में काम करते-करते वक़्त का पता ही नहीं चलता. अचानक से कंप्यूटर की दाहिनी ओर नीचे बनी छोटी सी घड़ी पर ध्यान गया तो देखा दिन के 2 बज कर 5 मिनट हो गए थे. मुझे भूख का ध्यान घड़ी देख कर आता है. 2:04 पर ज़रा भी आभास नहीं हुआ कि भूख जैसी भी कोई चीज़ होती है मगर घड़ी पर जैसे ही नज़र पड़ी तो ऐसा मालूम हुआ जैसे भूख पेट से निकल कर हलक के रस्ते मुंह से बाहर निकलने को बेचैन हुई पड़ी है. काम समेट कर ऑफिस की कैंटीन में पहुंचा तो सामने सजे खाने पर नज़र दौड़ गयी. बाईं ओर सोयाबीन की सब्ज़ी, उसके बगल में बीमार सी दाल, उससे सट कर बिना पनीर के मटर-पनीर की सब्ज़ी बड़े-बड़े डोंगे में रखी हुई थी. मैंने जल्दी से एक वेज-थाली का आर्डर दिया और अपनी थाली को सजते हुए देखने लगा. तभी अचानक दाहिनी ओर नज़र पड़ी तो देखा आज मीठे में हलवा बना रखा है. जो लोग मुझे नज़दीक से जानते हैं उन्हें मालूम है की मैं मीठा खाने का बड़ा शौकीन हूँ. बस फिर क्या था, मैंने पूछा की हलवा कौन सा है तो कैंटीन वाले ने तपाक से कहा, "सूजी का!" मैंने फिर हलवे की ओर देखा. "कितने का है?" मैंने कैंटीन वाले से पूछा. "30 रुपये का, निकाल दूँ?" मैंने हाँ में सर हिला दिया. उसने लकड़ी की छोटी सी अलमारी से प्लास्टिक की छोटी सी एक कटोरी निकाली और उसमें छोटे से पौने के सहारे जितना हलवा फिट हो सकता था, उतना डाल दिया. रुपये अदाएगी के बाद एक कुर्सी और मेज़ पर बैठ गया. खाना खाने से पहले हलवे को चखने का मन हो गया तो उसी पर टूट पड़े. अभी दूसरा ही निवाला खाया था कि 30 रुपये के उस 40-50 ग्राम हलवे के स्वाद ने अचानक एक ऐसी याद ज़हन में ताज़ा कर दी जो कहीं गुम सी हो गयी थी.

उन दिनों ठंड की छुट्टियां लंबी हुआ करती थीं. ठंड भी कड़ाके की पड़ती थी. लाइट अक्सर गायब रहती थी इसलिए हीटर की जगह गर्म कोयले को तसले या तवे पर डाल कर कमरों में रख लिया जाता था. अलसाए से दिन होते थे और सुस्त से हम पड़े रहते थे मानों सारी स्फूर्ति मुंह से गरम भाप की तरह उड़ी चली जाती थी. हमारी छुट्टियां, और कड़ाके की ठंड सबसे अधिक परेशानी मम्मी और चची के लिए पैदा कर देती थीं. घर में 7 भाई-बहन थे जो ठंड की छुट्टियों में भूखे भेड़िये बन जाते थे. आठों पहर पेट भरने के लिए कुछ न कुछ खाते रहते इसलिए चूल्हे पर कढ़ाई हमेशा चढ़ी रहती थी. ठंड की शाम को कुछ गरम, कुछ मीठा खाने का मन हो जाता था. ऐसे में "हलुआ" ही सबसे बेहतर विकल्प होता था जिसे बनाने के लिए तुरंत मान भी लिया जाता था. फिर हलवे में भी फरमाइश की जाती थी. कोई कहता था की आज आटे का हलवा खायेंगे, कोई गाजर का हलवा खाना चाहता था, किसी को मूंग का हलवा पसंद था. जब कुछ देर बाद हलवा बन कर हाज़िर होता था तो सब निराश हो जाते थे. गाजर, मूंग, आटे के हलवे का सपना देखने वालों को सूजी के हलवे से गुज़ारा करना पड़ता था. उन दिनों सूजी के हलवे की स्थिति बहुत ख़राब होती थी. उसके साथ दलितों वाला व्यवहार किया जाता था. भूख को तृप्त करने के लिए किसी ने पूरा निगल लिया, तो किसी ने आधा खाया, आधा कटोरी सहित बिस्तर के नीचे चीटियों के लिए खिसका दिया, किसी ने ज़रा भी नहीं छुआ. वो बिचारा पाव भर से अधिक हलवा, पीड़ित और शोषित वर्ग की तरह कढ़ाई में पड़ा-पड़ा सूख जाया करता.

कभी-कभी किस्मत अच्छी होती तो मूंग या गाजर का हलवा भी नसीब हो जाता था. उस वक़्त वो हलवा लेने के लिए कटोरी नहीं सीधे बड़ा कटोरा उठाया जाता था जिससे की अधिक से अधिक हलवा उसमें फिट हो जाये.
कई बार सूजी खरीदने के लिए जब बाज़ार भेजा जाता था तो सबसे ज़्यादा आना-कानी की जाती थी. अभी नहीं जायेंगे, बाहर बहुत कोहरा है, बहुत ठंड लग रही, अरे अभी तो पढ़ रहे हैं कतई नहीं उठ सकते, ओफ्फो! कितना डिस्टर्ब करती हो मम्मी. मगर कहीं अगर ये कह दिया गया कि ज़रा बाज़ार जा कर गाजर ले आओ, तो फिर बस ये उठे और वो भागे.....
अगर गाजर खरीदने के बाद अधिक रुपये बच जाते थे तो हलवे में डालने के लिए काजू और बादाम भी खरीद लेते थे. स्वाद का पूरा ध्यान रखा जाता था. घर पर कोई मेहमान आ जाए तो हम बोल-बोल कर गाजर या मूंग का हलवा बनवाते थे जिससे हम भी हलवे पर हाथ साफ़ कर सकें. बस सूजी के हलवे के साथ ऐसे ही परायों सा व्यवहार किया जाता था.  
आज 30 रुपये का थोड़ा सा सूजी का हलवा खाया, एक एक दाना साफ़ कर गया तो ध्यान आया की किसी कढ़ाई में पड़ा वो पाव भर से अधिक हलवा भी सोच रहा होगा की काश उसे भी कोई पूरा चट कर जाये....
#आशुतोष