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Monday, 4 March 2019

सूजी का हलवा


ऑफिस में काम करते-करते वक़्त का पता ही नहीं चलता. अचानक से कंप्यूटर की दाहिनी ओर नीचे बनी छोटी सी घड़ी पर ध्यान गया तो देखा दिन के 2 बज कर 5 मिनट हो गए थे. मुझे भूख का ध्यान घड़ी देख कर आता है. 2:04 पर ज़रा भी आभास नहीं हुआ कि भूख जैसी भी कोई चीज़ होती है मगर घड़ी पर जैसे ही नज़र पड़ी तो ऐसा मालूम हुआ जैसे भूख पेट से निकल कर हलक के रस्ते मुंह से बाहर निकलने को बेचैन हुई पड़ी है. काम समेट कर ऑफिस की कैंटीन में पहुंचा तो सामने सजे खाने पर नज़र दौड़ गयी. बाईं ओर सोयाबीन की सब्ज़ी, उसके बगल में बीमार सी दाल, उससे सट कर बिना पनीर के मटर-पनीर की सब्ज़ी बड़े-बड़े डोंगे में रखी हुई थी. मैंने जल्दी से एक वेज-थाली का आर्डर दिया और अपनी थाली को सजते हुए देखने लगा. तभी अचानक दाहिनी ओर नज़र पड़ी तो देखा आज मीठे में हलवा बना रखा है. जो लोग मुझे नज़दीक से जानते हैं उन्हें मालूम है की मैं मीठा खाने का बड़ा शौकीन हूँ. बस फिर क्या था, मैंने पूछा की हलवा कौन सा है तो कैंटीन वाले ने तपाक से कहा, "सूजी का!" मैंने फिर हलवे की ओर देखा. "कितने का है?" मैंने कैंटीन वाले से पूछा. "30 रुपये का, निकाल दूँ?" मैंने हाँ में सर हिला दिया. उसने लकड़ी की छोटी सी अलमारी से प्लास्टिक की छोटी सी एक कटोरी निकाली और उसमें छोटे से पौने के सहारे जितना हलवा फिट हो सकता था, उतना डाल दिया. रुपये अदाएगी के बाद एक कुर्सी और मेज़ पर बैठ गया. खाना खाने से पहले हलवे को चखने का मन हो गया तो उसी पर टूट पड़े. अभी दूसरा ही निवाला खाया था कि 30 रुपये के उस 40-50 ग्राम हलवे के स्वाद ने अचानक एक ऐसी याद ज़हन में ताज़ा कर दी जो कहीं गुम सी हो गयी थी.

उन दिनों ठंड की छुट्टियां लंबी हुआ करती थीं. ठंड भी कड़ाके की पड़ती थी. लाइट अक्सर गायब रहती थी इसलिए हीटर की जगह गर्म कोयले को तसले या तवे पर डाल कर कमरों में रख लिया जाता था. अलसाए से दिन होते थे और सुस्त से हम पड़े रहते थे मानों सारी स्फूर्ति मुंह से गरम भाप की तरह उड़ी चली जाती थी. हमारी छुट्टियां, और कड़ाके की ठंड सबसे अधिक परेशानी मम्मी और चची के लिए पैदा कर देती थीं. घर में 7 भाई-बहन थे जो ठंड की छुट्टियों में भूखे भेड़िये बन जाते थे. आठों पहर पेट भरने के लिए कुछ न कुछ खाते रहते इसलिए चूल्हे पर कढ़ाई हमेशा चढ़ी रहती थी. ठंड की शाम को कुछ गरम, कुछ मीठा खाने का मन हो जाता था. ऐसे में "हलुआ" ही सबसे बेहतर विकल्प होता था जिसे बनाने के लिए तुरंत मान भी लिया जाता था. फिर हलवे में भी फरमाइश की जाती थी. कोई कहता था की आज आटे का हलवा खायेंगे, कोई गाजर का हलवा खाना चाहता था, किसी को मूंग का हलवा पसंद था. जब कुछ देर बाद हलवा बन कर हाज़िर होता था तो सब निराश हो जाते थे. गाजर, मूंग, आटे के हलवे का सपना देखने वालों को सूजी के हलवे से गुज़ारा करना पड़ता था. उन दिनों सूजी के हलवे की स्थिति बहुत ख़राब होती थी. उसके साथ दलितों वाला व्यवहार किया जाता था. भूख को तृप्त करने के लिए किसी ने पूरा निगल लिया, तो किसी ने आधा खाया, आधा कटोरी सहित बिस्तर के नीचे चीटियों के लिए खिसका दिया, किसी ने ज़रा भी नहीं छुआ. वो बिचारा पाव भर से अधिक हलवा, पीड़ित और शोषित वर्ग की तरह कढ़ाई में पड़ा-पड़ा सूख जाया करता.

कभी-कभी किस्मत अच्छी होती तो मूंग या गाजर का हलवा भी नसीब हो जाता था. उस वक़्त वो हलवा लेने के लिए कटोरी नहीं सीधे बड़ा कटोरा उठाया जाता था जिससे की अधिक से अधिक हलवा उसमें फिट हो जाये.
कई बार सूजी खरीदने के लिए जब बाज़ार भेजा जाता था तो सबसे ज़्यादा आना-कानी की जाती थी. अभी नहीं जायेंगे, बाहर बहुत कोहरा है, बहुत ठंड लग रही, अरे अभी तो पढ़ रहे हैं कतई नहीं उठ सकते, ओफ्फो! कितना डिस्टर्ब करती हो मम्मी. मगर कहीं अगर ये कह दिया गया कि ज़रा बाज़ार जा कर गाजर ले आओ, तो फिर बस ये उठे और वो भागे.....
अगर गाजर खरीदने के बाद अधिक रुपये बच जाते थे तो हलवे में डालने के लिए काजू और बादाम भी खरीद लेते थे. स्वाद का पूरा ध्यान रखा जाता था. घर पर कोई मेहमान आ जाए तो हम बोल-बोल कर गाजर या मूंग का हलवा बनवाते थे जिससे हम भी हलवे पर हाथ साफ़ कर सकें. बस सूजी के हलवे के साथ ऐसे ही परायों सा व्यवहार किया जाता था.  
आज 30 रुपये का थोड़ा सा सूजी का हलवा खाया, एक एक दाना साफ़ कर गया तो ध्यान आया की किसी कढ़ाई में पड़ा वो पाव भर से अधिक हलवा भी सोच रहा होगा की काश उसे भी कोई पूरा चट कर जाये....
#आशुतोष