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Monday, 15 June 2020

'मीडिया और टीआरपी'

आप मीडिया को दलाल कहते हैं, शेमलेस कहते हैं, मगर ये नहीं समझ पाते कि मीडिया ऐसा इसलिए है क्योंकि आपने मीडिया को ऐसा बनाया है! आपने उसे ऐसा बनने पर मजबूर किया है। आप तो एक दस मिनट के पैकेज को कुछ सेकंड में बकवास बोल कर चैनल बदल देते हैं मगर उस पैकेज को बनाने में कितनी मेहनत लगती है आप उसे नहीं जानते। हर वक़्त चैनल या अखबारों को इसलिए कोसते हैं क्योंकि उनमें विज्ञापन बहुत ज़्यादा हैं मगर आपको अंदाज़ा नहीं है कि उस मीडिया संस्थान की मार्केटिंग टीम का कोई व्यक्ति कितनी मेहनत से एक-एक विज्ञापन लेकर आता है जिससे उसकी नौकरी बच सके और उसके साथ-साथ अन्य डिपार्टमेंट के लोगों की सैलरी उन्हें मिल सके। किसी न्यूज़ वेबसाइट को खोलते वक़्त उसमें आने वाले पॉपअप विज्ञापन से आप इतना इरिटेट हो जाते हैं कि उस वेबसाइट की खबर छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं मगर आपको नहीं पता होता कि उस वेबसाइट में डेस्क पर बैठे लोग एक दिन में 15-20 खबर लिखने का टारगेट किस तरह पूरा करते हैं। सोशल मीडिया पर महज़ मात्रा की गलती या टाइपो एरर हो जाने पर आप उस खबर का स्क्रीनशॉट ले लेते हैं और उसे वायरल होने के लिए सोशल मीडिया पर छोड़ देते हैं मगर आपको अंदाज़ा नहीं है कि उस मीडिया संस्थान की सोशल मीडिया टीम में काम कर रहे व्यक्ति को कितनी शर्मिंदगी और प्रताड़ना झेलनी पड़ती है अगर उसकी छोटी सी गलती से उसकी संस्थान सोशल मीडिया पर ट्रोल होने लगे!

आप रिपोर्टरों को कोसते हैं कि वो लोगों को परेशान करते हैं या किसी की निजता का हनन करते हैं मगर आप ये भूल जाते हैं कि वो ऐसा अपने निजी स्वार्थ के लिए नहीं करते, वो अपनी नौकरी बचाने के लिए करते हैं। 

आपको लगता है कि मीडिया TRP का भूखा है? 
हां है! मगर ये भूख अप्रत्यक्ष रूप से आप उसके अंदर पैदा करते हैं! 

फर्ज़ करिए कि आपकी किराने की दुकान है। जिस इलाके में वो दुकान है, वहां अन्य कोई दुकान नहीं है...इसलिए आपका ग्राहक, आपके ही पास घर के ज़रूरी सामान लेने के लिए आता है। कोई सामान ना मिले तो वो उस दिन लौट जाता है और अगले दिन इस उम्मीद से फिर आता है कि शायद वो सामान आ गया हो। वो हमेशा आपके पास आता रहेगा, सामान चाहे अच्छा हो या खराब, ...अब अगर उसी इलाके में एक दूसरी किराने की दुकान खुल जाए तो ग्राहक के पास सामान खरीदने के लिए एक और विकल्प सामने आ जाता है। जब आपके यहाँ कोई सामान उपलब्ध नहीं होता तो वो उस दूसरी दुकान से खरीद लेता है। ऐसा करते-करते ग्राहक को दूसरी दुकान पर ज़्यादा भरोसा होने लगता है। इस स्थिति में आपकी दुकान में बिक्री कम होने लगती है। बिक्री बढ़ाने के लिए आप कोशिश करते हैं कि आप अपनी दुकान में वो हर सामान रखें जिसकी ज़रूरत ग्राहक को पड़ सकती है। 
कुछ वक्त बाद उस इलाके में एक और दुकान खुल जाती है, फिर एक और, एक और...और काफी दिन बाद उस इलाके में भीड़-भाड़ वाला बाज़ार सजने लगता है। अब आप अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। ग्राहक को दिन में 10 बार खुद से फ़ोन कर के पूछ लेते हैं कि कहीं उसे किसी सामान की आवश्यकता तो नहीं...और अगर आवश्यकता होती है तो आप उसका सामान घर तक भी पहुंचा देते हैं। आप काफी कोशिश करते हैं मगर फिर भी आपकी बिक्री नहीं बढ़ती....तब आप कई कड़े कदम उठाते हैं और खर्चे बचाने के लिए सबसे पहले अपनी दुकान के 4 नौकरों में से 2 को नौकरी से निकाल देते हैं और बाकी 2 को ये चेतावनी देते हैं कि अगर वो ग्राहक नहीं लेकर आये तो उन्हें भी नौकरी से निकाल दिया जाएगा। 
अब वो 2 नौकर सुबह-शाम दुकान के बाहर खड़े होकर ग्राहक जुटाने में लग जाते हैं। जब ग्राहक आपकी दुकान के सामने से गुज़रता है तो नौकर उसे खींच-खींच कर आपकी दुकान में बुलाते हैं, ग्राहक इससे झुंझला भी जाता है और परेशान होकर नौकरों को भला-बुरा कह कर दूसरी दुकान की ओर बढ़ जाता है। देखते-देखते वक़्त ऐसा आ जाता है कि आपके पास खुद के खर्चे चलाने के लिए रुपये नहीं रह जाते, नौकरों को देना तो दूर की बात है....समस्या बढ़ती है और आपको आखिरकार अपनी दुकान बंद करना पड़ता है, नौकरों की भी नौकरी इसी चक्कर में चली जाती है....

TRP का खेल भी कुछ ऐसा ही है। दर्शकों को सब कुछ जानना है। उन्हें सबसे पहले हर खबर देखनी है। उन्हें खबर से जुड़ा हर पहलू समझना है मगर जब कोई रिपोर्टर ऐसा करता है तो दर्शक ही उसे कोसते हैं और कहते हैं कि ऐसे पत्रकार पत्रकारिता के नाम पर कलंक हैं!
आप जानते हैं कि स्वर्ग की सीढ़ी, अश्वत्थामा और तैमूर से जुड़ी खबरें चैनल क्यों दिखाता है? क्योंकि आप वो देखते हैं और जब आप वो देखते हैं तब चैनल की TRP रेटिंग बढ़ती है। 
चैनलों पर सुरक्षा मुद्दों पर बात करने के लिए एक पाकिस्तानी विशेषज्ञ इसीलिए बुलाया जाता है क्योंकि आपको ये देखने में मज़ा आता है कि कैसे भारतीय विशेषज्ञ उसे धूल में मिला रहे हैं। आप आंखें गड़ा कर टीवी देखते हैं जब एक रिपोर्टर जान पर खेलकर हिंसा से जुड़े क्षेत्रों से रिपोर्टिंग करता है और आप ही रस लेकर उस दृश्य को देखते हैं जब कोई पब्लिक फिगर रिपोर्टर को डांट देता है क्योंकि वो उसे सवाल पूछ-पूछ कर तंग कर रहा है। 
हर चैनल एक्सक्लूसिव दृश्य दिखाने के लिए इसलिए बेताब रहता है क्योंकि आप उन्हीं एक्सक्लुसिव दृश्यों को चैनल बदल-बदल कर तलाशते हैं और एक चैनल पर नहीं मिलता तो तुरंत दूसरे पर कूद जाते हैं। बेशक सुशांत सिंह राजपूत के रोते हुए पिता के सामने माइक लगा देना गलत है मगर आप इस सच को क्यों नहीं अपना लेते कि आपकी नज़रें उस चैनल पर टिक गई हैं जहां रोते हुए उसके परिवारवालों को दिखाया जा रहा है! 
मीडिया को गैर ज़िम्मेदार और शेमलेस कहने वाले लोग वहीं हैं जो कल सुशांत के मृत शरीर की फ़ोटो सोशल मीडिया पर वायरल कर रहे थे! 

बेशक आपको क्या देखना है वो आपको ही चुनना है, मगर ये आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप ऐसी चीज़ें न देखें जिसको दिखाने के लिए एक रिपोर्टर को अपने जज़्बात ताक पर रखने पड़ते हैं। विश्वास मानिए, एक मीडियाकर्मी भी इंसान है, जिसके पास दिल है, जिसे पीड़ा होती है...भयावह खबरों को कवर करते समय या उनपर न्यूज़ लिखते समय एक मीडियाकर्मी का भी दिल पसीजता है मगर वो अपना दिल मज़बूत कर के और अपने जज़्बातों पर लगाम लगाकर आपके लिए वो खबरें लेकर आता है जो आप देखना चाहते हैं....ज़्यादा नहीं, मगर मीडियाकर्मियों से भी थोड़ी सहानभूति रखिये, उन्हें भी आपके प्रेम की आवश्यकता है...
#Ashutosh