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Thursday, 19 August 2021

स्वतंत्रता दिवस का 'घोटाला'

भारत का सबसे बड़ा घोटाला 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन होता आया है जिसका मैं साक्षी रहा हूँ। स्कूल में मिलने वाली दो चॉकलेट कैसे 3, 4 या 5 में तब्दील हो जाती थी, ये ना ही कोई शराब कारोबारी समझ सकता है और ना ही किसी हीरा कारोबारी को इसका हुनर पता है। ये सिर्फ उन कुछ चुनिंदा आस्तीन के सांपों को पता है जो स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के दिन दोस्त बनकर स्कूल में प्रवेश करते थे और स्कूल में दगा देकर कई चॉकलेटों की डकार मारते हुए घर की ओर प्रस्थान कर जाते थे।

'सावधानी हटी दुर्घटना घटी' का सबसे बड़ा उदाहरण जश्न-ए-आज़ादी के रोज़ नज़र आता था। स्कूल में बच्चों को दो-दो चॉकलेट भेंट की जाती थी। कुछ समझदार साथी उसी वक्त चॉकलेट निपटा देते थे मगर कुछ लड़के घर ले जा कर खाने में विश्वास करते थे। ऐसा नहीं है कि बाहर से चॉकलेट खरीद कर खाना बड़ी बात थी। मगर पहला तो ये कि लड़के कभी खुद से अपने लिए चॉकलेट जैसी फ़िज़ूल की चीज़ में पैसा इंवेस्ट नहीं करते...(प्रेमिका के लिये खरीदने का मसला अलग है), दूसरा कि लड़कों को अगर फ़िज़ूल की चीज़ भी मुफ्त में मिल जाये तो उसके लिए छीना-झपटी करने में परहेज़ नहीं करते।

'एक का डबल' वाला फार्मूला सिर्फ दोस्त की चॉकलेट चोरी कर के ही नहीं सिद्ध होता था। लड़कों में टीचर को भी डबल क्रॉस करने का हुनर कूंट-कूंट कर भरा था। 
'रोल नंबर 13, हैव यू गॉट द चॉकलेट्स?' लाइट की स्पीड से भी तेज़ इस सवाल का जवाब 'नो' में आता था। इधर नो निकला और उधर तीसरी चॉकलेट मिल गयी। हालांकि टीचर को गलती से भी याद रहा कि वो उस लड़के को चॉकलेट दे चुके हैं, तो पहले दी हुई चॉकलेट भी ज़ब्त कर ली जाती थी। 

घोटाले का दूसरा तरीका पहले से भी ज़्यादा इंटरेस्टिंग था। कई बार टीचर क्लास के मॉनिटर को चॉकलेट बांटने का ज़िम्मा दे देते थे, बिल्कुल वैसे ही जैसे सरकारी बाबू ठेका अलॉट करते हैं। लड़के लाइन से अपनी चॉकलेट लेने आते थे मगर घपलेबाज़ी में महारथ हासिल कर लिए कुछ साथी चॉकलेट लेने के बाद घूम कर उसी लाइन में फिर से लग जाते थे। इस केस में दो चीज़ें होती थीं...अगर मॉनिटर ने चॉकलेट बांटते वक़्त सिर्फ लेने वालों का हाथ देखा था और शक्ल नहीं तो फिर से उसी शख्स को चॉकलेट मिल जाती थी और अगर चेहरा देख भी लिया तो कूंटे जाने के डर से वो मुंह नहीं खोलता था। बहरहाल, आखिर के 15 बच्चों के लिए एक भी चॉकलेट नहीं बचती थी तो एसबीआई के हताश कर्मचारी की तरह मॉनिटर को आरबीआई को इस घोटाले की जानकारी देनी पड़ती थी। फिर एसबीआई पर जुर्माना के तौर पर उसके हिस्से की चॉकलेट में कटाई की जाती थी और तत्काल प्रभाव से लड़कों की डेस्क पर छापे मारे जाते थे। उसके बाद जो हश्र होता था उसका ज़िक्र करने की शायद आवश्यकता नहीं है।

कई बार ऐसा भी होता था कि 15 अगस्त या 26 जनवरी को लड़के एब्सेंट रहते थे तो उनके हिस्से की चॉकलेट शेयर्स के रूप में मौजूद लड़कों को बांट दी जाती थी। उस दिन स्कैम होते होते रह जाता था।

आप सभी को स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं 🇮🇳
#AA

Monday, 15 June 2020

'मीडिया और टीआरपी'

आप मीडिया को दलाल कहते हैं, शेमलेस कहते हैं, मगर ये नहीं समझ पाते कि मीडिया ऐसा इसलिए है क्योंकि आपने मीडिया को ऐसा बनाया है! आपने उसे ऐसा बनने पर मजबूर किया है। आप तो एक दस मिनट के पैकेज को कुछ सेकंड में बकवास बोल कर चैनल बदल देते हैं मगर उस पैकेज को बनाने में कितनी मेहनत लगती है आप उसे नहीं जानते। हर वक़्त चैनल या अखबारों को इसलिए कोसते हैं क्योंकि उनमें विज्ञापन बहुत ज़्यादा हैं मगर आपको अंदाज़ा नहीं है कि उस मीडिया संस्थान की मार्केटिंग टीम का कोई व्यक्ति कितनी मेहनत से एक-एक विज्ञापन लेकर आता है जिससे उसकी नौकरी बच सके और उसके साथ-साथ अन्य डिपार्टमेंट के लोगों की सैलरी उन्हें मिल सके। किसी न्यूज़ वेबसाइट को खोलते वक़्त उसमें आने वाले पॉपअप विज्ञापन से आप इतना इरिटेट हो जाते हैं कि उस वेबसाइट की खबर छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं मगर आपको नहीं पता होता कि उस वेबसाइट में डेस्क पर बैठे लोग एक दिन में 15-20 खबर लिखने का टारगेट किस तरह पूरा करते हैं। सोशल मीडिया पर महज़ मात्रा की गलती या टाइपो एरर हो जाने पर आप उस खबर का स्क्रीनशॉट ले लेते हैं और उसे वायरल होने के लिए सोशल मीडिया पर छोड़ देते हैं मगर आपको अंदाज़ा नहीं है कि उस मीडिया संस्थान की सोशल मीडिया टीम में काम कर रहे व्यक्ति को कितनी शर्मिंदगी और प्रताड़ना झेलनी पड़ती है अगर उसकी छोटी सी गलती से उसकी संस्थान सोशल मीडिया पर ट्रोल होने लगे!

आप रिपोर्टरों को कोसते हैं कि वो लोगों को परेशान करते हैं या किसी की निजता का हनन करते हैं मगर आप ये भूल जाते हैं कि वो ऐसा अपने निजी स्वार्थ के लिए नहीं करते, वो अपनी नौकरी बचाने के लिए करते हैं। 

आपको लगता है कि मीडिया TRP का भूखा है? 
हां है! मगर ये भूख अप्रत्यक्ष रूप से आप उसके अंदर पैदा करते हैं! 

फर्ज़ करिए कि आपकी किराने की दुकान है। जिस इलाके में वो दुकान है, वहां अन्य कोई दुकान नहीं है...इसलिए आपका ग्राहक, आपके ही पास घर के ज़रूरी सामान लेने के लिए आता है। कोई सामान ना मिले तो वो उस दिन लौट जाता है और अगले दिन इस उम्मीद से फिर आता है कि शायद वो सामान आ गया हो। वो हमेशा आपके पास आता रहेगा, सामान चाहे अच्छा हो या खराब, ...अब अगर उसी इलाके में एक दूसरी किराने की दुकान खुल जाए तो ग्राहक के पास सामान खरीदने के लिए एक और विकल्प सामने आ जाता है। जब आपके यहाँ कोई सामान उपलब्ध नहीं होता तो वो उस दूसरी दुकान से खरीद लेता है। ऐसा करते-करते ग्राहक को दूसरी दुकान पर ज़्यादा भरोसा होने लगता है। इस स्थिति में आपकी दुकान में बिक्री कम होने लगती है। बिक्री बढ़ाने के लिए आप कोशिश करते हैं कि आप अपनी दुकान में वो हर सामान रखें जिसकी ज़रूरत ग्राहक को पड़ सकती है। 
कुछ वक्त बाद उस इलाके में एक और दुकान खुल जाती है, फिर एक और, एक और...और काफी दिन बाद उस इलाके में भीड़-भाड़ वाला बाज़ार सजने लगता है। अब आप अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास करते हैं। ग्राहक को दिन में 10 बार खुद से फ़ोन कर के पूछ लेते हैं कि कहीं उसे किसी सामान की आवश्यकता तो नहीं...और अगर आवश्यकता होती है तो आप उसका सामान घर तक भी पहुंचा देते हैं। आप काफी कोशिश करते हैं मगर फिर भी आपकी बिक्री नहीं बढ़ती....तब आप कई कड़े कदम उठाते हैं और खर्चे बचाने के लिए सबसे पहले अपनी दुकान के 4 नौकरों में से 2 को नौकरी से निकाल देते हैं और बाकी 2 को ये चेतावनी देते हैं कि अगर वो ग्राहक नहीं लेकर आये तो उन्हें भी नौकरी से निकाल दिया जाएगा। 
अब वो 2 नौकर सुबह-शाम दुकान के बाहर खड़े होकर ग्राहक जुटाने में लग जाते हैं। जब ग्राहक आपकी दुकान के सामने से गुज़रता है तो नौकर उसे खींच-खींच कर आपकी दुकान में बुलाते हैं, ग्राहक इससे झुंझला भी जाता है और परेशान होकर नौकरों को भला-बुरा कह कर दूसरी दुकान की ओर बढ़ जाता है। देखते-देखते वक़्त ऐसा आ जाता है कि आपके पास खुद के खर्चे चलाने के लिए रुपये नहीं रह जाते, नौकरों को देना तो दूर की बात है....समस्या बढ़ती है और आपको आखिरकार अपनी दुकान बंद करना पड़ता है, नौकरों की भी नौकरी इसी चक्कर में चली जाती है....

TRP का खेल भी कुछ ऐसा ही है। दर्शकों को सब कुछ जानना है। उन्हें सबसे पहले हर खबर देखनी है। उन्हें खबर से जुड़ा हर पहलू समझना है मगर जब कोई रिपोर्टर ऐसा करता है तो दर्शक ही उसे कोसते हैं और कहते हैं कि ऐसे पत्रकार पत्रकारिता के नाम पर कलंक हैं!
आप जानते हैं कि स्वर्ग की सीढ़ी, अश्वत्थामा और तैमूर से जुड़ी खबरें चैनल क्यों दिखाता है? क्योंकि आप वो देखते हैं और जब आप वो देखते हैं तब चैनल की TRP रेटिंग बढ़ती है। 
चैनलों पर सुरक्षा मुद्दों पर बात करने के लिए एक पाकिस्तानी विशेषज्ञ इसीलिए बुलाया जाता है क्योंकि आपको ये देखने में मज़ा आता है कि कैसे भारतीय विशेषज्ञ उसे धूल में मिला रहे हैं। आप आंखें गड़ा कर टीवी देखते हैं जब एक रिपोर्टर जान पर खेलकर हिंसा से जुड़े क्षेत्रों से रिपोर्टिंग करता है और आप ही रस लेकर उस दृश्य को देखते हैं जब कोई पब्लिक फिगर रिपोर्टर को डांट देता है क्योंकि वो उसे सवाल पूछ-पूछ कर तंग कर रहा है। 
हर चैनल एक्सक्लूसिव दृश्य दिखाने के लिए इसलिए बेताब रहता है क्योंकि आप उन्हीं एक्सक्लुसिव दृश्यों को चैनल बदल-बदल कर तलाशते हैं और एक चैनल पर नहीं मिलता तो तुरंत दूसरे पर कूद जाते हैं। बेशक सुशांत सिंह राजपूत के रोते हुए पिता के सामने माइक लगा देना गलत है मगर आप इस सच को क्यों नहीं अपना लेते कि आपकी नज़रें उस चैनल पर टिक गई हैं जहां रोते हुए उसके परिवारवालों को दिखाया जा रहा है! 
मीडिया को गैर ज़िम्मेदार और शेमलेस कहने वाले लोग वहीं हैं जो कल सुशांत के मृत शरीर की फ़ोटो सोशल मीडिया पर वायरल कर रहे थे! 

बेशक आपको क्या देखना है वो आपको ही चुनना है, मगर ये आपकी ज़िम्मेदारी है कि आप ऐसी चीज़ें न देखें जिसको दिखाने के लिए एक रिपोर्टर को अपने जज़्बात ताक पर रखने पड़ते हैं। विश्वास मानिए, एक मीडियाकर्मी भी इंसान है, जिसके पास दिल है, जिसे पीड़ा होती है...भयावह खबरों को कवर करते समय या उनपर न्यूज़ लिखते समय एक मीडियाकर्मी का भी दिल पसीजता है मगर वो अपना दिल मज़बूत कर के और अपने जज़्बातों पर लगाम लगाकर आपके लिए वो खबरें लेकर आता है जो आप देखना चाहते हैं....ज़्यादा नहीं, मगर मीडियाकर्मियों से भी थोड़ी सहानभूति रखिये, उन्हें भी आपके प्रेम की आवश्यकता है...
#Ashutosh

Wednesday, 29 April 2020

एक अभिनेता जो था, जो है और जो रहेगा!

साल 2020 में बेशक ये साबित हो गया है कि सबसे बड़ा 'मदारी' वो ऊपर वाला है....रह-रह कर ऊपर वाले की बात इरफान खान की आवाज़ में कानों में गूंज रही है,
"तुम मेरी दुनिया छीनोगे, मैं तुम्‍हारी दुनिया में घुस जाऊंगा!"
हमने उसकी दुनिया के साथ जो सुलूक किया, उसने उसका बदला एक महान अभिनेता को अपने पास बुलाकर ले लिया। 
"जो कहूंगा नहीं समझोगे...5, 10, 15 साल बाद शायद कहे का असर होगा...गहरा!"
असर तो होने लगा है। अभी से ही। अब वो जज़्बात से भरी आंखें, वो चीखती खामोशी और असलियत को छूता अभिनय दोबारा देखने को नहीं मिलेगा।
इरफान अभिनेता नहीं जज़्बात हैं, वो जज़्बात जो उन करोड़ों लोगों के मन में कैद है जिनकी शक्ल-सूरत फिल्मों के लायक नहीं है मगर कहीं न कहीं उन्हें खुद को बड़े पर्दे पर जीना है। इरफान ने उन लोगों की परछाई प्रस्तुत की...आम आदमी को बड़े पर्दे पर दर्शाया और शायद आज वही आम आदमी इरफान के जाने से सबसे ज़्यादा दुखी है।
"ये शहर हमें जितना देता है, बदले में कहीं ज्‍यादा हम से ले लेता है"
शहर का तो पता नहीं मगर भगवान ऐसा ही...जो थोड़ा भी हमसे लेता है वो हमारे लिए बहुत होता है।
पान सिंह तोमर, हासिल, डी-डे, मदारी, हैदर, हिंदी मीडियम, लाइफ इन मेट्रो, पीकू...आप फिल्मों का नाम लीजिये और हर बार एक ऐसे इरफान की शक्ल ज़हन में आती है जो पिछली फिल्म से अलग होती है। 
लॉकडाउन के पहले मैंने जो आखिरी फ़िल्म देखी थी वो इरफान की ही अंग्रेज़ी मीडियम थी...और उस फिल्म को देखकर इरफान खान से फिर प्यार हो गया था। 
"टोटल तीन बार इश्क़ किया, और तीनों बार ऐसा इश्क़, मतलब जानलेवा इश्क़, मतलब घनघोर, हद पार!"
मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही था...इरफान की तो सभी फिल्में बेहतरीन थीं, मगर मदारी, पान सिंह तोमर और अंग्रेज़ी मीडियम मेरे दिमाग में चिपक गयी हैं। 
इरफान से जुड़ी पहली याद 'हासिल' फ़िल्म की है। फ़िल्म इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति पर बनी थी इसलिए भी बेहद करीब थी और उसमें इरफान का अंदाज़... 
"...और जान से मार देना बेटा, हम रह गये ना, मारने में देर नहीं लगायेंगे, भगवान कसम!"
काश की इरफान रह जाते। अभी उनको और देखना था। उस बड़े कलाकार को बूढ़ा होते देखना था। उनके अंदाज़ पर तालियां पीटनी थीं मगर ये बात भी सच है कि "डेथ और शिट, किसी को, कहीं भी, कभी भी, आ सकती है!"

होनी को कोई नहीं टाल सकता...इरफान हमारे बीच नहीं हैं...अब सिर्फ हैं तो उनकी फिल्में...जिसके सहारे आने वाली पीढ़ी ये जानेगी कि इरफान खान होने के क्या मायने थे। 
रूहदार ने सच ही कहा था, "दरिया भी मैं दरख्त भी मैं, झेलम भी मैं, चेनाब भी मैं...दैर हूँ, हरम भी हूँ...शिया भी हूँ, सुन्नी भी हूँ...मैं हूँ पण्डित!...मैं था, मैं हूँ, और मैं ही रहूँगा..."
#Ashutosh

Saturday, 18 April 2020

मेरा पहला सफेद बाल

सुबह शीशे के सामने खड़े हो कर ब्रश करना इसलिए भी ज़रूरी होता है जिससे चेहरे को अलग-अलग एंगल से देर तक देखा जा सके। आज की सुबह भी अलग नहीं थी। ब्रश करते-करते चेहरे के तमाम हिस्सों पर नज़र दौड़ रही थी कि तभी सर पर नज़र पड़ी और मैं हैरान रह गया! माथे के ठीक ऊपर वाले बालों पर एक पतला, कमज़ोर सा बाल सफेद दिखाई दे रहा था। पहली नज़र में तो लगा कि लाइट शायद इस अंदाज़ से पड़ रही होगी कि बाल चमक रहा होगा। मगर मामला गंभीर था तो अंदाज़े पर रफा-दफा करना ठीक नहीं था। उसी वक़्त ब्रश करने जैसे निरर्थक कार्य को बीच में ही समाप्त कर के मैंने बड़े ही एहतियाद से बाल को परखना शुरू किया। उस पतले, कमज़ोर और महीन बाल का रंग वाकई सफेद हो चला था। 
क्या मैं बूढ़ा हो रहा हूँ? क्या अभी से सारे बाल पक जाएंगे? सवाल तो मन में कई उठ रहे थे मगर उन सवालों के बारे में सोच कर चिंता नहीं हो रही थी। खयाल आया कि जॉर्ज क्लूनी की तरह सारे बाल सफेद कर लेंगे। या डॉक्टर स्ट्रेंज की तरह दोनों तरफ की कलम के आसपास के बालों को सफेद छोड़ कर बाकी के बालों को काला रंग लिया जाएगा। 
कुछ वक्त बाद लगा कि अभी उम्र ही क्या है, इतनी जल्दी तो बाल नहीं सफेद होना चाहिए था, फिर ध्यान आया कि स्कूल के दौरान ही कुछ दोस्तों के बाल सफेद हो गए थे। 
वैसे देखा जाए तो बाल हमेशा के लिए सफेद हो जाना कितना अजीब है ना! आधी ज़िंदगी बाल के जिस रंग की आदत हो गयी थी अब बाल वैसे न रह कर उस रंग के हो जाएंगे जिससे लोग आपको बुज़ुर्ग समझने लगेंगे। एक बार गुरुजी ने कहा था कि बाल पक जाने का अलग आनंद होता है, मगर अब महसूस हो रहा है कि उन्होंने ये तो बताया ही नहीं कि जब सर पर पहला सफेद बाल दिखाई दे तो उसे अपनाया कैसे जाए। ज़ुल्फ़ों पर हाथ फेरने में डर बना रहेगा कि कहीं वो एक बाल टूट गया और उससे सारे बाल सफेद हो गए तो! 
कुछ देर के लिए अजीब सा एहसास होता रहा। न जाने किस बात का...फिर बालों को झाड़ने के बाद वो सफेद बाल आसानी से नज़र नहीं आया इसलिए उस पर से ध्यान हट गया। वैसे अब मैं भी आधिकारिक रूप से कह सकता हूँ कि मैंने धूप में बाल नहीं सफेद किये हैं!
#आशुतोष

सही-गलत के बीच फंसा धर्म

हो ये रहा है कि पूरी शिद्दत से गलत को गलत कहा जा रहा है और साथ ही ढिंढोरा पीट-पीट कर सही को सही भी कहा जा रहा है...मगर समस्या ये है कि खुद की गलत मान्यताओं या कृत को कोई गलत नहीं कह रहा और दूसरे की मान्यताओं या कृत को गलत ठहराने की होड़ लगी है। 
अपनी गलती को ढकने के लिए सामने वाले की गलती को उजागर किया जा रहा है। खुद की गलती को छोटा बताने के लिए दूसरे की गलती को बड़ा बनाया जा रहा है। कहा ये जा रहा है कि अकेले मैं ही गलत नहीं हूं तुम भी गलत हो...और इस उधेड़बुन में कोई ये ध्यान नहीं दे रहा कि दो गलत चीज़ों को जोड़ कर सही चीज़ की उतपत्ति नहीं होगी। 
तुम अगर हिन्दू हो और मुसलमान की गलती ढूंढ रहे हो या फिर तुम मुसलमान हो और हिन्दू की गलती ढूंढ रहे हो तो तुम वाकई अंदर से खोखले हो क्योंकि दूसरे पर सवाल उठाने से पहले अगर तुम खुद ही अपनी कमियां और खामियां नहीं देख पा रहे तो तुम कट्टरपंथी विचारधाराओं के द्वारा मूर्ख बनाये जा चुके हो। 

ये सच है कि हर किसी के लिए उसका धर्म सम्मानजनक है, इसलिए किसी और के द्वारा बार बार उसपर सवाल उठाया जाना गलत है, लेकिन तुम खुद भी अपने धर्म और उसके गलत कृत पर अगर सवाल नहीं उठा रहे तो समझ जाओ कि तुम धर्म के चंगुल में फंस चुके हो।
खुद को अपने धर्म का रक्षक समझना बंद करो! और बंद करो अपने ज़हरीले दिमाग के साथ सोशल मीडिया के अखाड़े में कूदना! 5-6 इंच के मोबाइल फोन से तुम अपने 'धर्म' को बचाने के लिए जिस धर्म युद्ध को इस सोशल मीडिया पर छेड़ रहे हो उसकी ज़रूरत नहीं है! बंद करो ये सोचना कि धर्म खतरे में है क्योंकि जिस धर्म की गलत तस्वीर तुम्हारे प्रिय नेताओं ने तुम्हें दिखाई है वो असल धर्म नहीं है! तुम्हें अगर धर्म के लिए कुछ करना है तो घर में बैठकर एक दूसरे के धर्म पर कटाक्ष करना बंद करो! उस धर्म के लोगों के उत्थान के लिए कुछ करो! तुम्हें अपने धर्म की अच्छाई बताती एक फेक न्यूज़ मिलती है और तुम उसे झटपट सोशल मीडिया पर शेयर कर देते हो ताकि तुम दूसरे धर्म वाले पर हमला कर सको और ये बात सको कि तुम्हारा धर्म उसके धर्म से कितना महान है! 
ये धर्मों की तुलना करने से, और एक को दूसरे से बेहतर बना लेने से तुम क्या हासिल कर लोगे? राजनीतिक दलों ने हमें बिना बताए अपने अपने धर्मों का 'रक्षक' बना दिया है...विश्वास मानो धर्म को ऊंचा या नीचा दिखाने का ये खेल इतना बुरा है कि इसका कोई अंत नहीं है क्योंकि कोई भी दूसरे पर लांछन लगाने का मौका नहीं छोड़ना चाहता। 

क्या वाकई हमें अपने धर्म को लेकर इस प्रकार संवेदनशील होने की ज़रूरत है और इस कदर कि ज़हर फैलाते फैलाते हम खुद ज़हर बन जाएं!
खतरे में धर्म नहीं इंसान है और इस देश का हर नागरिक जिसने आंखें मूंद रखी हैं। 
अक्सर फेसबुक पर हम ये तंज़ मारते हैं कि 'अब फलाने धर्म के लोग चुप रहेंगे' या 'अब फलाने धर्म के लोग इसपर कुछ नहीं बोलेंगे'...सोच कर देखिए तो आप पाएंगे कि आप वाकई चुप हैं, क्योंकि आप सही चीज़ों के खिलाफ सवाल नहीं खड़ा करते! आप बेरोज़गार हैं तो आप क्यों नहीं आवाज़ बुलंद करते कि काबिल होने के बावजूद आपको नौकरी क्यों नहीं मिल रही! आप आवाज़ क्यों नहीं उठाते कि आपके शहर की सड़कें क्यों नहीं बनती! आपके धर्म के नेता आपको ये कह कर भड़काता है कि आप खतरे में हैं तो आप उससे ये सवाल क्यों नहीं पूछते कि अगर हमने तुम्हें चुना तो तुम हमें खतरे से कैसे बाहर निकालोगे? मगर ये सवाल तो काफी उलझे हुए हो जाएंगे! आपको अगर धर्म पर ही सवाल करना है तो अपने अपने धर्मों पर नज़र क्यों नहीं डालते! क्यों नहीं पूछते कि हमारे धर्म में ये जो कृत हो रहा है वो क्यों हो रहा है....मगर नहीं! आपको सिर्फ लड़ना है, दूसरों पर सवाल खड़े करने हैं और फिर सोचना है कि देश तरक्की क्यों नहीं कर रहा! देश इसलिए तरक्की नहीं कर रहा क्योंकि आप खुद को बदलना नहीं चाह रहे। आप राजनीतिक दलों की कठपुतली बने रहना चाहते हैं। आप अगर किसी भी पार्टी के अंध समर्थक हैं या अंध विरोधी हैं तो आप भी भक्त की ही श्रेणी में आते हैं, इसलिए खुद को भी ये उपाधि दे दीजिएगा। 
अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात, आप देश में रहते हैं, अपने नेता चुनते हैं इसलिए उन्हें आपके जीवन को बेहतर करने का ज़रिया बनने दीजिये, आप उनकी राजनीति चमकाने का ज़रिया मत बनिये...रही बात धर्म की, तो ये शाश्वत सत्य है कि व्यक्ति पैदा होते के साथ ही धर्म में बंध जाता है मगर इसके ये मायने नहीं हैं कि आप मानवता भूल जाएं!
Jai Hind!
#Ashutosh

Tuesday, 31 March 2020

जवान होती धरती, बंदिशों में इंसान

जिस आसमान को अब तक आग बरसाना शुरू कर देना चाहिए था वो पानी बरसाए जा रहा है। बादलों में जैसे बरस जाने की होड़ लगी है। जिस हवा से अब तक होंठों पर पपड़ियां पड़ जानी चाहिए थीं उसकी सोहबत बदली सी लग रही है। सड़क पर पड़ी नीम की पत्तियां ही एक मात्र सबूत हैं कि पतझड़ बीत रहा है। सड़कें किसी विधवा की मांग की तरह सूनी हो चुकी हैं। घरों के अंदर सुगबुगाहट तो है मगर इंसानी शोर शून्य हो चुका है। लग रहा है मानो मुर्दों की बस्ती है। शोर है, कुत्तों का, जो अब रोड पर अपना मालिकाना हक समझने लगे हैं। किसी घर के अंदर से बर्तन गिरने की आवाज़ आती है तो लगता है कोई अपशकुन होने वाला है। ये दौर अपशकुन का है।
ये अंत है...अंत ही तो है! लग रहा है प्रकृति करवट ले रही है। सालों तक मानवता ने उसका बलात्कार किया है। शायद अब उसने हिसाब चुकता करने का प्रण लिया है। 
हर दिन मौत की खबर आ रही है,...इंसान की, यहां से, वहां से...उन जगहों से भी जहां लोगों ने मौत पर विजय पा लेने का दावा किया था। इंसान के बीच दायरे बन चुके हैं। अब कोई किसी से नहीं मिलता। हाथ मिलाने से भी कतराते हैं। हर कोई फिक्रमंद है। ये दौर फिक्र करने का है, अपनों की फिक्र। हर सुबह उठ कर लगता है कि बस आज का दिन गुज़र जाए। गुज़र रहे हैं, दिन और उसके साथ वो लोग भी जो किसी न किसी के अपने थे।
घरों में कैद, कमरे में बंद, बाहर कोई दुर्गा का पाठ कर रहा है। मगर दुर्गा सब देख रही है। हंस रही है। उसकी बूढ़ी धरती फिर जवान हो रही है। 
कूड़ा ले जाने वाली गाड़ी अब भारत को स्वच्छ रखने के गीत नहीं गाती। मौत से बचने के उपाय दे जाती है। चौकीदार गेट के कोने पर दुबका बैठा रहता है। अब वो रात को सीटियां बजाता, घर की खिड़कियों से अंदर नहीं झांकता है। अंदर झांकती है अब लाचारी, असहाय होने की लाचारी। लोग अपने अंदर मौत लिए घूम रहे हैं। वो मौत जो एक एक कर के सबको निगलती जा रही है। किसी के मुंह से होकर किसी के हाथ के सहारे भीतर घुसती जा रही है।
मंदिर की घंटी, अज़ानें शांत हैं, चर्च की लॉ बुझ चुकी, गुरुद्वारे की अरदासें शांत हैं। शांत वो हंगामा भी है जो धर्म और समुदाय में बंधे लोग करते थे। सियासत घुटनों पर आ चुकी है। ट्रेनें न जाने किस स्टेशन पर गुमसुम सी खड़ी हैं। बसें भी सवारी का रस्ता देख रही हैं। मज़दूर सर पर मुफलिसी की गठरी उठाये निकल पड़े हैं...अपने घरों की ओर,जो मीलों दूर से, बहुत दूर से उन्हें बुला रहे हैं। उनके चेहरे पर खौफ है...खौफ है मर जाने का...खौफ है इस बात का कि वो मर गए तो उनके परिवार का पेट कौन भरेगा। 
ये दौर खौफ का है...और ये खौफ उन लोगों में भी है, जिनकी रगों में अमीरी खून बनकर बहती थी, जो हर मर्ज़ पर दौलत से मरहम लगा सकते थे। हर चेहरा खौफ को नकाब से ढके, चरमराई हिम्मत से सड़कों पर निकलने की कोशिश कर रहा है, पर हार जा रहा है। 
चिड़ियों का कलरव, नीला आसमां और लहराते हरे पेड़ देखकर लग रहा है, जैसे प्रकृति झूम रही है, जैसे अरसे बाद अपने प्रियतम से मिल रही है। 
मगर इंसान, इंसान बेचैन है। मौत सर पर खड़ी नाच रही है और इंसानों को अपनी उंगलियों को पर नचा रही है। रातें उदास मालूम हो रही हैं और दिन चहकते हुए से लग रहे हैं। लग रहा है जैसे अस्तित्व मिटने वाला है, मानव का, मानवता का और उस अहंकार का जिसने मानव को अन्य जीवों से बेहतर प्राणी घोषित कर दिया था। 
हर कोई एक दूसरे को हौसला दिलाये जा रहा है, मगर वो खुद अंदर से खोखला हो चुका है और हौसला, पंख लगाकर बादलों के पार उड़ गया है। 
तभी एक रोज़ बारिश थम जाती है। सूरज निकलने लगता है। किरणे चेहरे को छूती हैं, फिर मन को। बेचैनी थम जाती है। दिल स्थिर हो जाता है। हौसला रखो। कानों में एक आवाज़ गूंजती है...हौसला रखो!

Sunday, 1 March 2020

दिल्ली हिंसा पर

पढ़े लिखे हिन्दू मुसलमानों द्वारा उपद्रव मचाने की तस्वीरें, वीडियो, और खबरें सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे हैं। पढ़े लिखे मुसलमान हिंदुओं द्वारा उपद्रव मचाने की तस्वीरें, वीडियो, और खबरें सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे हैं।

जाहिल हिन्दू और मुसलमान इन तस्वीरों, वीडियो और खबरों को देख कर सड़क पर कूद जा रहे हैं।
मीडिया दिन-रात दंगाइयों को ही दिखाए जा रहा है। वो कह रहा है कि जो हो रहा है हम तो वही दिखा रहे हैं।

 सरकारें सोई हैं, बस एक एडवाइज़री जारी कर देती हैं कि मीडिया कोई भी भड़काऊ चीज़ें न दिखाए। 
मीडिया मान जाता है मगर अपने चैनल की छोटी खिड़कियों के दरमियाँ ऐसी कमरों में बैठे प्रवक्ताओं को चुप नहीं कराता।

पढ़े लिखे सरकार को दोष दे रहे, सरकार पढ़े लिखों को दोष दे रही है, मीडिया दोनों को दोष देते दिखा रहा है और सड़क पर पागल भीड़ एक दूसरे की जान लेने पर तुले हैं। 
उन 22 लोगों की मौत के और उस एक पुलिसवाले की मौत के हम सब ज़िम्मेदार हैं।