मैं आसमान का शौकीन नहीं हूं. आसमान पर चलने से औकात का पता नहीं चलता। मुझे पाताल पसंद है, क्योंकि पाताल हक़ीकत से रूबरू कराता है. आप जहां रह रहे हैं, वो भी पाताल ही है. आप को क्या लगता है कि पाताल सिर्फ गर्म तेल, कांटेदार सेज और गर्म ज्वालामुखी ही है? अपने चारों ओर नज़र घुमा कर देखिए, जिस समाज में आप रह रहे हैं वो भी किसी पाताल से कम नहीं है। कभी किसी का बलात्कार होते देखा है? कभी किसी की पीट-पीट कर हत्या होते देखी है? कभी किसी को अपने पूरे परिवार को अन्धविश्वास का हवाला देकर सूली पर चढ़ाते देखा है? अगर नहीं, तो शायद आप अनभिज्ञ हैं, आपको पता नहीं पाताल क्या है। अगर आप ऐसे समाज में आकाश के सपने देखते हैं तो आप लाश हैं, चलती फिरती लाश.
जॉन एलिया ने कहा है, ' क्या तकल्लुफ करें यह कहने में, जो भी खुश हैं, हम उनसे जलते हैं!'
जलना तो लाज़मी है, क्यूंकि जिसको एहसास है कि वो पाताल में रह रहा है, वो आज के समय में ज्वलनशील है. अपनी मस्ती में जीते-जीते आप अपने होने का मकसद भूल जाते हैं। आप खुश होने का ढोंग करते हैं, शायद कुछ पल के लिए खुश हो भी जाते हों मगर वो क्षण मात्र के लिए है। आप खुश हैं क्योंकि आप जीवित हैं, या खुश हैं के अभी तक आप मरे नहीं। मगर असली ग़म तो इस जीने और मरने के बीच ही है। और जिस पाताल की बात मैं कर रहा हूँ, वो भी इस मरने और जीने के बीच समाया है।
वैसे देखें तो इस पाताल के मूल्य रूई की तरह हलके हो चले हैं पर सुई की तरह चुभने लगे हैं. आप हवाला देते हैं की क्या कीजियेगा, समाज ही ऐसा है! अजी समाज कौन है? मेरे और आप जैसे असंख्य शुक्राणु जो किसी अंडाशय से मिलाप के लिए भटक रहे हैं। इस मिलाप से उत्पत्ति होती है, द्वेष की और नफरत की। आपने सोचने की ज़हमत उठायी की ऐसा क्यों है? बात यह है कि आपकी भावनाएं आपके कद से बड़ी हो चुकी हैं. सुई की तरह चुभने लगी हैं. आप दूसरों को चोट पहुंचाने में हिचकते नहीं मगर आपकी महज़ भावनाएं ही आहत हो जाएं तो आप छटपटाने लगते हैं। वैसे छटपटाना भी बेहतर है, कम से कम इस बात का सबूत है कि आप ज़िंदा हैं। मगर ध्यान रहे कि छटपटाहट हड़बड़ाहट को जन्म देती है जिससे लड़खड़ाहट पैदा होती है जिससे समाज गिरता है, पंगु बनता है और फिर बच जाता है सपने देखना, आसमान में चलने के।
पर मैं आसमान का शौकीन नहीं हूं क्योंकि, आसमान पर चलने से औकात का पता नहीं चलता!
This is my personal blog about my personal thoughts. Every person has a world deep inside him, the feelings and emotions which a person never share, even with himself or herself. The world which knows everything about that person, the world which no one else can see, the world which is buried deep inside our soul, its 'The World Within'
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Tuesday, 21 August 2018
आकाश या पाताल?
Friday, 17 August 2018
मेरे लिए क्या लायीं?
घर पर अकेला था। बड़ा भाई नौकरी पर गया था और भाभी अपनी माता जी के साथ बाज़ार से कुछ सामान खरीदने। तबियत नासाज़ थी। घर में आराम कर रहा था। लेटे लेटे कब नींद आ गयी पता नहीं चला। कुछ देर बाद डोर बेल बजी। हड़बड़ाहट में नींद खुली तो जल्दी दरवाज़ा खोलने गया। भाभी और उनकी माता जी बाज़ार से लौट आईं थीं। हाथ में सामान से भरा झोला था। दरवाज़ा खोल कर मैं अपने कमरे में आकर दुबारा सोने के लिए लेट गया। पर तुरंत नींद ना आई। तबियत खराब होने के बावजूद भी उस दौरान ऊर्जा का प्रवाह महसूस हुआ। एक पुरानी याद लौट कर ज़हन में आ गयी। एक ऐसी याद जो इतने दिनों में कभी नहीं आयी।
उन दिनों शामें कुछ अधिक लंबी हुआ करती थीं। दिन का खाना बनाने और खिलाने के बाद मम्मी और चाची जब फुरसत पाती थीं तो बाज़ार से सामान लाने की लिस्ट तैयार करने में जुट जाती थीं। साबुन, तेल, मंजन, खाने में उपयोग होने वाले मसाले, और ज़रूरत के अन्य सामानों को हिंदी की एक धारी वाली कॉपी के बीच के पन्नों पर लिखा जाता था। घर चलाने का ऐसा हुनर और ज्ञान जो कहीं और देखने को ना मिले। 12-13 लोगों के घर में महीने में कितना साबुन लगेगा, किसको किस चीज़ की आवश्यकता है, इन सब चीज़ों का उन्हें ज्ञात था। जितना किलो समान आता, उससे एक ग्राम भी महीने में कम ना पड़ता। ज़रूरत का सारा सामान चौक में उपलब्ध होता था। जिस दिन पता चल जाये कि आज मम्मी और चाची को चौक जाना है, उस दिन सुबह से ही भाई बहनों की ख्वाहिशों की गठरी खुलने लगती थी। हमारे लिए नई बनियान ला देना, मेरा स्कूल बैग फट गया है, चौक से फुल्की लेती आना, खन्ना वाले के यहां से एक टॉप ला देना, आज दोस्त नई वाली मैग्गी लाया था, वही वाली मेरे लिए भी लेती आना... सिर्फ उस दिन ज़रूरतें अपने आप पैदा होती थीं। शाम के 4 बजते बजते मम्मी और चाची के निकलने का वक़्त हो जाता था।
उनके घर से निकलते ही इंतज़ार करना भी शुरू हो जाता था। किसी की नई बनियान आने वाली होती थी, किसी का नया टॉप आने वाला होता था, कोई चौक की फुल्की के स्वाद को चखना चाहता था। उस दौरान इंटरव्यू के लिए कॉल आने का इंतज़ार करने से ज़्यादा भारी मम्मी-चाची का घर लौटने का इंतज़ार करना होता था। शाम के 6-7 बजते बजते उत्सुक्ता अपनी चरम सीमा पर होती थी। बस किसी भी वक़्त दोनी आते होंगे। रात के 8 बजते बजते गुस्सा आने लगता था कि इतनी देर भला कोई करता है! गली के बाहर किसी भी रिक्शे की घंटी सुनाई पड़ती थी तो भाग कर गेट के पास खड़े हो जाते थे। फिर वहीं से चिल्ला कर अंदर इतिल्ला किया जाता था कि अभी नहीं आयी हैं। बेसब्री ऐसी होने लगती थी कि हम में से कोई एक गेट के पास ही खड़ा हो जाता था। फिर किसी रिक्शे की घंटी, फिर घर से निकल कर देखना।
आखिरकार मम्मी और चाची का रिक्शा भी गली में प्रवेश कर ही जाता था। भाग कर हम लोग रिक्शे तक जाते थे और सामान से भरे तमान झोलों को उठा कर अंदर लाते थे। मसाले से भरे झोलों को उठाने में किसी की रुचि नहीं होती थी जिसे मम्मी-चाची या तो रिक्शे वाले से अनुरोध कर के घर के अंदर रखवाती थीं या चाची खुद ढो कर अंदर लेकर आती थी।
जितनी देर में वो दोनों रिक्शे वाले को रुपये देकर अंदर आती थीं, उतनी देर में सारा सामान झोलों से निकल कर ज़मीन पर पड़ा रहता था। उनके अंदर आते ही 'मेरे लिए क्या लाई?' के सवाल के गोले उनपर दागने शुरू हो जाते थे।
आधे से ज़्यादा सामान ऐसा होता था जिससे हमारा कोई सीधा वास्ता नहीं था, पर सामान देख कर ऐसी उत्सुक्ता होती थी, जिसकी कोई तुलना ही नहीं।
कोई नई चाय की पत्ती, या कोई नया साबुन, किसी पाउडर के साथ मुफ्त मिली छोटी तेल की डिब्बी, चाय के लिए नया कप सेट, सब अद्भुत एहसास देता था। सारा सामान करीने से अपने पास सजा कर दुकानदार वाला एहसास होता था। सारे सामानों को देखने के बाद ध्यान आता था कि जिसने जो मंगवाया है वो आया या नहीं। कभी-कभी सबके लिए कुछ ना कुछ आता और मेरे लिए नहीं तो मन रोआंसा हो जाता था, पर तभी मम्मी रुमाल का एक पैकेट निकाल कर खुशी से कहती थी, ये देखो तुम्हारे लिए ये लाये हैं! बस उस एक पल में सारी खुशी अपने हिस्से में आ जाती थी। उसके बाद अन्य सामानों की चकाचौंध में ऐसा खो जाते थे कि ये ध्यान ही नहीं आता था कि वो लेडीज़ रुमाल का पैकेट मेरे लिए नहीं, ज़रूरत पड़ने पर घर की महिलाओं के लिए काम आएगा। रात का खाना खाने के बाद सारा सामान हरे रंग की लकड़ी की छोटी सी अलमारी में रख दिया जाता था।
आज लंबे समय बाद जब भाभी और उनकी मम्मी को समान के साथ बाज़ार से आते देखा तो कुछ पल के लिए वैसी ही उत्सुक्ता मन में उठ आयी...लगा शायद उन झोलों में मेरे लिए भी कुछ हो, मन हुआ कि पूछा जाए, मेरे लिए क्या लायीं?