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Tuesday, 31 March 2020

जवान होती धरती, बंदिशों में इंसान

जिस आसमान को अब तक आग बरसाना शुरू कर देना चाहिए था वो पानी बरसाए जा रहा है। बादलों में जैसे बरस जाने की होड़ लगी है। जिस हवा से अब तक होंठों पर पपड़ियां पड़ जानी चाहिए थीं उसकी सोहबत बदली सी लग रही है। सड़क पर पड़ी नीम की पत्तियां ही एक मात्र सबूत हैं कि पतझड़ बीत रहा है। सड़कें किसी विधवा की मांग की तरह सूनी हो चुकी हैं। घरों के अंदर सुगबुगाहट तो है मगर इंसानी शोर शून्य हो चुका है। लग रहा है मानो मुर्दों की बस्ती है। शोर है, कुत्तों का, जो अब रोड पर अपना मालिकाना हक समझने लगे हैं। किसी घर के अंदर से बर्तन गिरने की आवाज़ आती है तो लगता है कोई अपशकुन होने वाला है। ये दौर अपशकुन का है।
ये अंत है...अंत ही तो है! लग रहा है प्रकृति करवट ले रही है। सालों तक मानवता ने उसका बलात्कार किया है। शायद अब उसने हिसाब चुकता करने का प्रण लिया है। 
हर दिन मौत की खबर आ रही है,...इंसान की, यहां से, वहां से...उन जगहों से भी जहां लोगों ने मौत पर विजय पा लेने का दावा किया था। इंसान के बीच दायरे बन चुके हैं। अब कोई किसी से नहीं मिलता। हाथ मिलाने से भी कतराते हैं। हर कोई फिक्रमंद है। ये दौर फिक्र करने का है, अपनों की फिक्र। हर सुबह उठ कर लगता है कि बस आज का दिन गुज़र जाए। गुज़र रहे हैं, दिन और उसके साथ वो लोग भी जो किसी न किसी के अपने थे।
घरों में कैद, कमरे में बंद, बाहर कोई दुर्गा का पाठ कर रहा है। मगर दुर्गा सब देख रही है। हंस रही है। उसकी बूढ़ी धरती फिर जवान हो रही है। 
कूड़ा ले जाने वाली गाड़ी अब भारत को स्वच्छ रखने के गीत नहीं गाती। मौत से बचने के उपाय दे जाती है। चौकीदार गेट के कोने पर दुबका बैठा रहता है। अब वो रात को सीटियां बजाता, घर की खिड़कियों से अंदर नहीं झांकता है। अंदर झांकती है अब लाचारी, असहाय होने की लाचारी। लोग अपने अंदर मौत लिए घूम रहे हैं। वो मौत जो एक एक कर के सबको निगलती जा रही है। किसी के मुंह से होकर किसी के हाथ के सहारे भीतर घुसती जा रही है।
मंदिर की घंटी, अज़ानें शांत हैं, चर्च की लॉ बुझ चुकी, गुरुद्वारे की अरदासें शांत हैं। शांत वो हंगामा भी है जो धर्म और समुदाय में बंधे लोग करते थे। सियासत घुटनों पर आ चुकी है। ट्रेनें न जाने किस स्टेशन पर गुमसुम सी खड़ी हैं। बसें भी सवारी का रस्ता देख रही हैं। मज़दूर सर पर मुफलिसी की गठरी उठाये निकल पड़े हैं...अपने घरों की ओर,जो मीलों दूर से, बहुत दूर से उन्हें बुला रहे हैं। उनके चेहरे पर खौफ है...खौफ है मर जाने का...खौफ है इस बात का कि वो मर गए तो उनके परिवार का पेट कौन भरेगा। 
ये दौर खौफ का है...और ये खौफ उन लोगों में भी है, जिनकी रगों में अमीरी खून बनकर बहती थी, जो हर मर्ज़ पर दौलत से मरहम लगा सकते थे। हर चेहरा खौफ को नकाब से ढके, चरमराई हिम्मत से सड़कों पर निकलने की कोशिश कर रहा है, पर हार जा रहा है। 
चिड़ियों का कलरव, नीला आसमां और लहराते हरे पेड़ देखकर लग रहा है, जैसे प्रकृति झूम रही है, जैसे अरसे बाद अपने प्रियतम से मिल रही है। 
मगर इंसान, इंसान बेचैन है। मौत सर पर खड़ी नाच रही है और इंसानों को अपनी उंगलियों को पर नचा रही है। रातें उदास मालूम हो रही हैं और दिन चहकते हुए से लग रहे हैं। लग रहा है जैसे अस्तित्व मिटने वाला है, मानव का, मानवता का और उस अहंकार का जिसने मानव को अन्य जीवों से बेहतर प्राणी घोषित कर दिया था। 
हर कोई एक दूसरे को हौसला दिलाये जा रहा है, मगर वो खुद अंदर से खोखला हो चुका है और हौसला, पंख लगाकर बादलों के पार उड़ गया है। 
तभी एक रोज़ बारिश थम जाती है। सूरज निकलने लगता है। किरणे चेहरे को छूती हैं, फिर मन को। बेचैनी थम जाती है। दिल स्थिर हो जाता है। हौसला रखो। कानों में एक आवाज़ गूंजती है...हौसला रखो!

Sunday, 1 March 2020

दिल्ली हिंसा पर

पढ़े लिखे हिन्दू मुसलमानों द्वारा उपद्रव मचाने की तस्वीरें, वीडियो, और खबरें सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे हैं। पढ़े लिखे मुसलमान हिंदुओं द्वारा उपद्रव मचाने की तस्वीरें, वीडियो, और खबरें सोशल मीडिया पर फैलाये जा रहे हैं।

जाहिल हिन्दू और मुसलमान इन तस्वीरों, वीडियो और खबरों को देख कर सड़क पर कूद जा रहे हैं।
मीडिया दिन-रात दंगाइयों को ही दिखाए जा रहा है। वो कह रहा है कि जो हो रहा है हम तो वही दिखा रहे हैं।

 सरकारें सोई हैं, बस एक एडवाइज़री जारी कर देती हैं कि मीडिया कोई भी भड़काऊ चीज़ें न दिखाए। 
मीडिया मान जाता है मगर अपने चैनल की छोटी खिड़कियों के दरमियाँ ऐसी कमरों में बैठे प्रवक्ताओं को चुप नहीं कराता।

पढ़े लिखे सरकार को दोष दे रहे, सरकार पढ़े लिखों को दोष दे रही है, मीडिया दोनों को दोष देते दिखा रहा है और सड़क पर पागल भीड़ एक दूसरे की जान लेने पर तुले हैं। 
उन 22 लोगों की मौत के और उस एक पुलिसवाले की मौत के हम सब ज़िम्मेदार हैं।

ब्रो, it's about ब्रा!

सोशल मीडिया पर M TV द्वारा एक मुहिम चलाई जा रही है #MTVBaarBraDekho 
बार ब्रा देखो! रियली!
ब्रा होना आसान नहीं है जनाब! खूबसूरत होने के बावजूद अगर गलती से दिख जाए तो समाज की भावनाएं आहत हो सकती हैं। ब्रा के साथ तो दलितों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। अगर कोई पढ़ा लिखा दलित किसी बड़े ओहदे पर पहुँच जाए तो कम से कम उसकी इज़्ज़त तो होती है, मगर एक ब्रा की किस्मत में दुत्कारा जाना ही लिखा है फिर चाहे वो एक करोड़ रुपए कमाने वाली महिला के बदन से चिपकी हुई हो या एक हज़ार रुपये कमाने वाली स्त्री से!

ब्रा के अस्तित्व पर वैसी ही जंग छिड़ी है जैसे आस्तिक और नास्तिक के बीच भगवान के अस्तित्व को लेकर छिड़ी रहती है। एक पक्ष उसके होने को ही नकार देता है और दूसरा उसकी मौजूदगी साबित करते-करते थक जाता है।

लड़कियों के लिए ब्रा को पहनना और उसका ना दिखना एक दूसरे से इन्वर्स्ली प्रोपोर्शनल है। वैसे लड़कियों की ज़िंदगी भी बेहद कठिन है। सारी ज़िंदगी कुछ न कुछ बदन से चिपकाए ही रहना पड़ता है। पैदा होते ही डायपर चिपका दिया जाता है, थोड़े बड़े होने पर पैड और फिर कुछ वक्त बाद ब्रा, और फिर ब्रा और पैड का बोझ उठाये-उठाये ज़िंदगी आधी से ज़्यादा बीत जाती है। बुढ़ापे की दहलीज़ पर कदम रखते ही पैड से पीछा छूट जाता है और कुछ वक्त बाद ब्रा से भी रिश्ता खत्म होने लगता है मगर एक उम्र आते-आते डायपर फिर से शरीर की ज़रूरत बन जाता है जो अंत तक शरीर से जुड़ा रहता है।
शायद मैं किसी कट्टर फेमिनिस्ट की तरह साउंड कर रहा होऊंगा मगर फिलहाल मैं ब्रा की आपबीती शेयर करने में इंटरेस्टेड हूँ...महिलाओं की फिर किसी रोज़ बताऊंगा।

तो, मैं ये बता रहा था कि ब्रा होना कितना कठिन है!
कई बार सोचता हूँ कि अंडरगारमेंट्स की दुनिया की बनियान डोमिनटेड सोसाइटी में ब्रा होना श्राप है! उसे सूरज की किरणें भी ठीक से नसीब नहीं हो सकतीं। साड़ी, टीशर्ट या किसी अन्य कपड़े के नीचे रह कर ही उसने मौसमों का आनंद लिया है। ब्रा अपने जीवनकाल में या तो चांद से रूबरू होती है या फिल्टर के साथ सूरज देख पाती है। वो तो अपनी मालकिन का चेहरा भी कभी ठीक से नहीं देख पाती। हां कभी-कभी कुछ परवर्ट नज़रों से आंखें मिल जाती हैं मगर फिर उसे संकोच के साथ कपड़े के अंदर छुपा लिया जाता है। उसे अपने रंग पर भी गुरूर करने का मौका नहीं मिलता। कपड़ों की दुनिया में जहां काली टीशर्ट कूल बन जाती है वहां बिचारी काली ब्रा स्लट का ही खिताब हासिल कर पाती है।
इन सबके बावजूद वो सहारा प्रदान करती हैं मगर इसी बीच न जाने कहाँ से कल्चर और सोसाइटी का झंडा हाथ में थामे एक आंटी प्रकट होती हैं और आकाशवाणी की तरह अनाउंस करते हुए निकलती हैं - तुम्हारी ब्रा दिख रही है...बस फिर क्या, खुली हवा में सांस ले रही ब्रा को फिर कपड़े के अंदर ढकेल दिया जाता है।
वो यही सोचती है कि मेरा किरदार भी तो बनियान जैसा ही है मगर उस मासूम को ये नहीं पता होता कि जब समाज में औरतों को पुरुषों के बराबर दर्जा नहीं मिलता तो उसको बनियान के बराबर होने का मौका कैसे मिल जाएगा।
खैर, ब्रा को बराबरी का दर्जा दिलाना आसान है। करना ये है कि उसकी बराबरी के लिए उसे दूसरों पर थोपना नहीं है। उसे बस स्वाभाविक और आम बनाना है। वो तभी हो सकता है जब उसे कपड़ों के नीचे नहीं, अन्य कपड़ों के साथ उसके बगल में सुखाने को छोड़ दिया जाए। जब उसे गुरमेठ कर अलमारी में सबसे अंदर नहीं, बाकी के कपड़ों के साथ रखा जाए। जब उसे बदन को कसाव देने वाला महज़ एक कपड़ा माना जाए.... और जब उसे पहनने वाले उसे सिर्फ इसलिए ढकने की सलाह न दें क्योंकि उसे देख कर समाज को आपत्ति होती है! तभी कोई ब्रा ये कह पाएगी कि 'ब्रो, अगले जन्म मोहे ब्रा ही कीजो!'