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Friday, 21 February 2014

..........और मियां जावेद गिर पड़े! (भाग-3)

                                                  लेखक: आशुतोष अस्थाना


उन्होंने अपने आप को सँभालते हुए कहा, “तुम दोनों को गाड़ी धीमे चलानी चाहिए थी, मुझे अभी बहुत दर्द होरहा है, सिर्फ तुम्हारी वजह से!” उन्होंने गुस्से में लेकिन फिर भी थोड़ा धैर्य से बोला. “हाँ साले देखा कितना दर्द होरहा है भाई साहब को! चल अब निकाल पैसे इनको डॉक्टर को दिखाना होगा”, एक आदमी ने गुस्से से कहा. “अंकल मेरे पास पैसे नहीं हैं, आप प्लीज़ बुलादीजिये भैया को वो देदेंगे!”. फिर से फ़ोन की परेशानी सामने आई, तभी चाय वाले ने जावेद मियां के फट चुके नए कुरते की जेब की ओर देखा और अचानक से बोला, “भैया देखा ई भाई साहब के पास हई मोबाइल!” सब ने जावेद मियां की तरफ देखा और बिना उनसे पूछे उनके जेब में से मोबाइल निकाल लिया. “हेल्लो! भैया जल्दी यहाँ आजाइए कुछ रुपये लेके, जल्दी, जल्दी!!!” उस लड़के ने डरी हुई आवाज़ में उस चौराहे का नाम बताया और फ़ोन रख दिया. जावेद मियां के कुछ समझ में ही नहीं आरहा था की आखिर होक्या रहा है, वो बस सहमे से सब कुछ देख रहे थे. बिचारे सोचने लगे जब बेग़म को पता चलेगा की नया कुर्ता फट गया है तब तो वो उनकी जान लेलेगी, दिन भर कुछ न कुछ सुनाती रहेगी, अब तो उनका कुछ नहीं होसकता.
तभी उनकी नज़र उनकी प्यारी मोटरसाइकिल पे पड़ी, बिचारी सड़क के एक कोने में पड़ी थी, उसकी हेडलाइट टूट चुकी थी, और उसमें भारी नुकसान हुआ था. उसको देखते ही उन्हें और गुस्सा आने लगा, तुरंत उन्हें उन लड़को को थप्पड़ मारने की इच्छा हुई! जैसे ही लड़को की तरफ ध्यान से देखा तो गुस्से को दबा के शांत होगए सोचने लगे की दिखने में तो दोनों उनसे ज़्यदा बलवान हैं, कही पलट के मार दिया तो चेहरा भी ख़राब होजायेगा. अब माहौल थोड़ा ठंडा होरहा था और सब उस लड़के के भाई का इंतज़ार कर रहे थे. किसी को ख्याल ही नहीं था की जावेद मियां को अस्पताल लेजायें या उनका हाल पूछ लें. उनमें से एक सज्जन को अब पहले की तरह मज़ा नहीं आरहा था तो उन्होंने आग फिर से भड़काना शुरू कर दिया. “बताइए साहब ये कोई तरीका होता है, रास्ते पे चलना दुश्वार होगया है, अरे मैं बिलकुल बगल में खड़ा था अगर गाड़ी थोड़ा सा बगल में गिरती तो मुझे भी चोट आजाती! इन सालों को तो छोड़ना ही नहीं चाहिए”. थप्पड़ वाले भाईसाहब ने फिर बोला, “अरे छोडेंगे कैसे अब सज़ा तो मिलेगी ही इन लोफरों को साले सड़क तो अपने बाप की समझते हैं ना!”

थोड़ी देर में उस लड़के का भाई भी आगया, अपने भाई की गलती को ढकने के लिए और मामला खत्म करने के लिए उसने अपनी गाड़ी से उतारते ही माफ़ी मांगना शुरू कर दिया था. जावेद मियां को उठने में तकलीफ होरही थी तो वो चाय के ठेले के पास ही पड़ी एक टूटी बेंच पे लेट गए और आँखें बंद करके अपनी किस्मत को कोसने लगे. “शिराज़ ने गोश्त बनवाया होगा, शीरमाल भी होगी, पेप्सी भी मंगवाया होगा, सब खराब होगया” जावेद मियां ने बुदबुदाते हुए अपने आप से कहा. उन लड़कों में और उन चार महापुरुषों में सॉरी और गाली का दौर चालू था. बात-बात में उन लड़कों की माताओं और बहनों को याद कर लिया जारहा था. समझ में नहीं आरहा था की दुर्घटना जावेद मियां के साथ हुई थी या उन चार सज्जनों के साथ. खैर, ऐसा प्रतीत होरहा था मानो वो जावेद मियां के सबसे बड़े शुभचिनतंक हों. “वो बिचारे भाईसाहब इतने आराम से जारहे थे और ये तुम्हारे भाई ने उनको गिरा दिया!”. एक आदमी ने लड़के के भाई से बोला. “सर देखिये मैं माफी मांगता हूँ इन लोगों की तरफ से लेकिन सच में हमारे पिता जी की तबियत खराब है, तो आप लोग कुछ रुपये लेलीजिये और उन भाईसाहब को डॉक्टर को दिखा दीजिये और हम लोगों को जाने दीजिये” लड़के के भाई ने स्थिति को संभालते हुए कहा. सब ने इस बात पे सहमति जताई और पांच हज़ार रुपये मांगे. “पांच हज़ार! इतने रुपये क्यों?” लड़के के भाई ने चौंक कर बोला. “उनकी हालत देखो बिचारे उठ नहीं पारहे हैं, गाड़ी देखो पूरी चूर-चूर होचुकी है, इतना तो लगेगा ही”. काफी राय-बात होने पे चार हज़ार रुपये तय हुए. लड़के के भाई ने वो रुपये थप्पड़ वाले आदमी के हाथ में दिए. शायद अब उनके हाथ की खुजली खत्म होगई थी. उन लड़को ने अपनी मोटरसाइकिल उठाई और चले गए. लड़के का भाई भी चला गया. सबके जाने के बाद और समस्या सुलझने के बाद वो चरों शुभचिंतक जावेद मियां के पास गए. जावेद मियां की न जाने कब आँख लग गई थी. उन्होंने जावेद जी को उठाने की ज़हमत नहीं की. एक दूसरे को चालाकी भरी नज़रों से देखा और वहा से रफूचक्कर होगए. कुछ देर बाद जब जावेद साहब की आंख खुली तो देखा वहा कोई नहीं था. चाय वाला अपने ठेले के बगल में एक ईटे पे बैठा गाड़ियों को आता-जाता देख रहा था. “भैया वो सब लोग कहा गए?” जावेद मियां ने धीरे से पूछा. “अरे ऊ लोगन तो गए! और जो पैसा मिला था वोहू खागए!”

जावेद मियां चाय वाले को देखते रहगये. अब उन्हें समझ नहीं आरहा था की पहले बेग़म जी से डांट खाने घर जाये या ठंडा गोश्त खाने दोस्त के यहाँ जाए. जावेद मियां ने सोचा की ऐसी हालत में फटे कपड़ो के साथ वो दावत में तो नहीं जासकते इसी लिया उन्होंने बेग़म की डांट से पेट भरने का फैसला किया. अब वो पैर हिला पारहे थे, तो बिचारे धीरे से उठे और खाली होचुकी चाय की दुकान को निहारा. हिम्मत करके गाड़ी तक गए और उसे उठा के लुढ़काते हुए चल दिए.
 

Wednesday, 19 February 2014

..........और मियां जावेद गिर पड़े! (भाग-2)


                                                       लेखक: आशुतोष अस्थाना 

हमेशा की तरह जावेद मियां घर से निकलते ही पान की दुकान पे गए, एक पान वहीं पे खालिया और एक बाद के लिए रख लिया. अपनी गाड़ी से भी वो बहुत प्रेम करते थे जब उसपे बैठ के वो कही निकलते तो अपने आप को किसी राजा से कम नहीं समझते थे. शिराज़ का घर कुछ दूर था इसीलिए वो गाड़ी थोड़ा तेज़ चला रहे थे. पवन का आनंद लेते, कुछ पुराने गीत गुनगुनाते वो सफ़र का मज़ा लिए चले जारहे थे.

रविवार का दिन होने के कारण सड़कों पे भीड़ कुछ कम थी इसीलिए वो इस बात से खुश थे की उन्हें जाम में नहीं फसना पड़ा. वो अपनी मंजिल के पास पहुँच गए थे. आगे रास्ते में एक चौराहा पड़ा, लेकिन भीड़ कम होने की वजह से वहा कोई पुलिसवाला नहीं था. चौराहे के थोड़ी दूर से ही जावेद जी ने देख लिया था की दूसरी ओर से कोई गाड़ी नहीं आरही है फिर भी उन्होंने अपनी रफ़्तार बिलकुल धीमे करली. वो चौराहे को पर करने ही वाले थे की अचानक बाईं सड़क से एक मोटरसाइकिल पे तीन छात्र उसी तरफ आए उनकी रफ्ता बहुत तेज़ थी, जावेद मियां उनको अपनी ओर आता देख चीखे, “अरे!”, लेकिन बहुत देर होचुकी थी.....धड़ाम!!! दोनों गाड़ियाँ एक दूसरे से टकरागाई.

आसपास के सब लोग भागे और जावेद मियां और उन तीन छात्रों को उठाने लगे. सभी ने जावेद मियां को उठा के पास की चाय की दुकान पर बैठाया. वो दर्द से कराह रहे थे, लग रहा था मानो पैर की हड्डी टूट गई हो! घुटने से खून निकल रहा था और कोहनी से हाथ तक छिल गया था. तभी वहा मौजूद उन भले मानसों ने उन तीन लड़को को दबोच लिया. “साले तीन सवारी चला रहा है!” एक आदमी ने चिल्ला कर गाड़ी चलने वाले लड़के से बोला. तड़ाक!!....तेज़ी से एक चांटा उनमें से एक लड़के के गाल पे पड़ा. भीड़ में होने का यही फायदा होता है, बहती गंगा में कौन हाथ धोले पता ही नही चलता है. “लोफर हैं साले तीन के तीनों!” एक और सज्जन ने बोला. तड़ाक!!!....दूसरा थप्पड़ पड़ा. “अंकल प्लीज़ छोड़ दीजिये, गलती होगई, वो अंकल आते हुए दिखे नहीं”, एक लड़के ने डरते हुए बोला. तभी उनमें से एक लड़का डर के भाग निकला. अब तो वहा जितने लोग थे उन दोनों लड़कों को किसी आतंकवादी की तरह पकड़ लिया. कोई कालर पकड़ा था, कोई हाथ पकड़ा था, कोई बाल पकड़ा था और वो दोनों लड़के बस यही बोल रहे थे की गलती होगई. “अंकल मैं पढ़ने में बहुत अच्छा लड़का हूँ, मैं घूमने-फिरने वाला नहीं हूँ, प्लीज़ छोड़ दीजिये!” उनमें से एक लड़का रोने लगा.

चाय की दुकान पे चाय उबलती जारही थी और वहा सबका गुस्सा उबलता जारहा था. “अरे साले बड़े हरामी लौंडे हैं, छोड़ेंगे नहीं इनको, साले हवा की तरह गाड़ी चला रहे हैं अभी वो आदमी मर जाता तो!!” उन सज्जन की बातों से सबको ध्यान आया की जावेद मियां तो अभी वोही बैठे दर्द से बेचैन हैं. “आप ठीक तो हैं भाई साहब?”, चाय वाले ने पूछा. जावेद मियां के पैर में दर्द होरहा था, बस सर हिला के बता दिया की नहीं ठीक हैं. फिर से सबका गुस्सा भड़क गया, तड़ाक!!!....एक और थप्पड़! इनही सज्जन ने पहले भी दो बार हाथ साफ़ किया था, इस बार उस लड़के ने देख लिया की कौन मार रहा है तो उन्होंने अपने थप्पड़ को जायज़ दिखाने के लिए बोला, “बताइए साहब, ये साले आज कल के लड़के, पढ़ना-लिखना है नहीं बस गाड़ी उठा के दौड़ते रहते हैं, इन दोनों को तो जेल में डलवादेना चाहिए!”, “नहीं-नहीं अंकल, आप कहिये तो मैं आप के पैर छु लूँ, प्लीज़ हम दोनों को जाने दीजिये, देखिये हम दोनों को भी कितनी चोट आई है”, उस लड़के ने अपनी कोहनी से निकलते खून को दिखा कर कहा. तभी दूसरे लड़के ने भी अपना दुखड़ा सुनाना शुरू किया, “अंकल मेरे पापा की तबियत बहुत ख़राब है उन्हें हॉस्पिटल देखने ही हम तीनो जारहे थे बस इसीलिए इतनी तेज़ चलाना पड़ा, आप चाहे तो मेरे भाई को फ़ोन करके पूछ लीजिये”. “हरामखोर अभी इस चौराहे पे बाप को मार रहे हो अगले पे माँ को मारदोगे, इससे अच्छा तुम्ही मर जाते सूअर!!”

गालियों की बारिश होती रही और वो लड़के सफाई देते रहे. ऐसे ही एक घंटा गुज़र गया. अब भीड़ काफी कम होगई थी, जावेद मियां के लिए लड़ने वाले सिर्फ चार ही लोग बचे थे, जिनमे वो थप्पड़ वाले महाशय अभी तक थे, शायद हाथ की खुजली अभी कम नहीं हुई थी. चाय की चुस्की और कुश्ती एक साथ दर्शको को मनोरंजित कर रही थी. “चल साले तैं पुलिस के पास चल, अब बस बहुत बकवास कर लिए!”, एक आदमी ने बोला. “अंकल मैं आप से सॉरी बोल रहा हूँ माफ़ कर दीजिये, आप मेरे भाई से बात कर लीजिये सच में मेरे पापा की तबियत खराब है!”, “चल अच्छा लगा फ़ोन, देखे क्यूँ मर रहा है तेरा बाप, लगा फ़ोन जल्दी!” तभी उस लड़के ने दूसरे से मोबाइल माँगा, लेकिन उन दोनों के मोबाइल में फ़ोन करने के लिए पैसे नहीं थे. तब उनलोगों ने वहा खड़े आदमियों से फ़ोन माँगा लेकिन उन्होंने भी यही बहाना बना कर मना करदिया. “अंकल अच्छा मैं उन अंकल के पैर छु के माफ़ी मांग लेता हूँ”. उनमें से गाड़ी चलाने वाले लड़के ने जावेद जी की तरफ इशारा करके कहा. जावेद मियां सर झुकाए बैठे थे. “अंकल प्लीज़ माफ़ कर दीजिये हम दोनों से बहुत बड़ी गलती होगई, देखिये मुझे भी चोट लगी है, आप कहें तो मैं आपको डॉक्टर के पास ले चलता हूँ लेकिन प्लीज़ अंकल हमे पुलिस के हवाले मत करिए.” उन दोनों ने रोते-रोते कहा. अब सबकी नज़रे जावेद मियां की तरफ टिक गई.

(शेष कहानी अगले भाग में...)

Monday, 17 February 2014

..........और मियां जावेद गिर पड़े! (भाग-1)

                                                लेखक : आशुतोष अस्थाना

(इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएँ काल्पनिक है जिसका किसी भी व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है. अगर इसका संबंध किसी भी व्यक्ति से हुआ तो उसे मात्र एक संयोग कहेंगे)

“बेग़म!”..... “अलीना!”..... “अरे कहा हो रिज़वान की अम्मी?” जावेद मियां ने ज़रा गुस्से से बुलाया. “अरे आरही हूँ थोड़ा सबर करिए!” अलीना ने रसोईं से चिल्ला के कहा. आते ही अलीना उनके ऊपर मनो तलवार लेके चढ़ गई, “क्या हुआ क्यों खून जला रहे हो? कौन सी बाढ़ आरही है जो इतना चीख रहे हो! तुम्हारे ही निगलने के लिए खाना बना रही हूँ!” अलीना ने आँखे लाल करके बोला. बेग़म जी का ऐसा रौद्र रूप देख कर जावेद मियां कुछ सहेम से गए और शांत होकर बोले, “वो..वो...”, “वो..वो.. ही करते रहोगे या बोलो गे भी कुछ, मुझे और भी बहुत से काम करने हैं, खाली नहीं हूँ मैं तुम्हारी तरह, जल्दी बताओ क्यों गला फाड़ रहे थे?” अलीना ने और अधिक क्रोधित होकर बोला. अब तो बिचारे जावेद मियां भीगी बिल्ली की तरह दुबक के बिस्तर के एक कोने में बैठ गए थे. थोड़ा हिम्मत जुटा के और गले को साफ़ करते हुए बोले, “वो मेरा नया सफेद कुर्ता नहीं मिल रहा है, क्या तुमने कहीं देखा है, मतलब अगर ना देखा हो तो कोई बात नहीं तुम वैसे भी आज कल इतना व्यस्त रहती हो ,नहीं देखा होगा, तो...तो...मैं सोच रहा था अगर तुम ढूंड दो तो मैं वही पहन लूँगा, नहीं तो कोई बात नहीं”. बेग़म जी ने आँखें तरेरते हुए जावेद मियां को ऊपर से नीचे देखा और दूसरे कमरे में गईं और जावेद मियां का चमचमाता नया सफेद कुर्ता लेती आई. पती जी ने झुकी हुई नज़रों से कुर्ता लेलिया और तयार होने लगे और अलीना कुछ बडबडाते हुए रसोईं में चली गई.

जावेद जी ने आईने में देखा और उस पल को याद करने लगे जब उन्होंने बोला था, “क़बूल है!”, काश उस वक़्त वो गूंगे होजाते तो एक मासूम जिंदगी शहीद होने से बच जाती. खैर, निकाह के तीस साल बाद और एक बेटा और दो बेटियों के होजाने के बाद ये सब बातें सोचना उन्हें शोभा नहीं देता लेकिन वो बिचारे भी आदत से मजबूर थे, अब तीस साल से पड़ी आदत इतनी आसानी से तो जाती नहीं! जावेद मियां को रिटायर हुए एक साल होगये थे, अपनी आधी जिंदगी नोट गिनते-गिनते बितायी थी, सरकारी बैंक में क्लर्क जो थे. बड़े ही सरल और सच्चे इन्सान थे और यही कारण था कि अबतक एक पुरानी मोटरसाइकिल से चलते थे. तीनों बच्चों की शादी कर चुके थे जो अब दूसरे शहर में रहा करते थे. कद छोटा होने के बावजूद इरादों में ऊंचाई थी. रंग काला होते हुए भी चरित्र साफ़ था और मन की तरह आवाज़ भी कोमल थी. छोटी सी मूंछ थी लेकिन उसी को ताव देने में बड़ा गर्व मेहसूस किया करते थे. बढ़ती उम्र का असर उनके चेहरे पे तो अधिक नहीं दिखता था लेकिन उम्र के साथ तोंद भी बढ़ती जारही थी. पान खाने के शौक़ीन थे लेकिन इधर-उधर पीक थूकने पे बेग़म से अक्सर डांट खाजाया करते थे.

तैयार होने के बाद बड़े ही शान से अपने आपको शीशे में निहारने लगे. उस सफेद कुर्ते में वो निखर रहे थे. बड़े दिनों से वो अपने पुराने साथियों से नहीं मिले थे, आज उन्ही में से एक के घर दावत पे जाना था. निहारते-निहारते जब अचानक से पीछे मुड़े तो देख कर डर गए. अलीना उनके पीछे खड़ी थी और भौएं सिकोड़ के उन्हें घूर रही थी. “माशाल्लाह! बड़े हसीन लग रहे हो. किसी से निकाह करने जारहे हो क्या!”, “ऐसी मेरी किस्मत कहाँ!” जावेद जी ने चिल्ला कर, शेर की तरह दहाड़ते हुए.....अपने मन में कहा! “अरे शिराज़ ने आज दावत पे बुलाया है” जावेद जी ने फुसफुसाते हुए कहा. “दोस्तों के यहाँ घूमने की फुर्सत है इतना नहीं होता की मुझे भी कही घुमालाओ, कही सैर पे चलो, किसी होटल में खाना खिलादो! लेकिन मेरी तरफ तो ध्यान ही नहीं जाता.” जावेद मियां को लगा कही बेग़म जी जाने के लिए मना न करदें तो तुरंत उनके कंधे पे हाथ रख कर बोले, “चिंता क्यों करती हो, बस इसी हफ्ते हम चलेंगे कहीं”. अलीना खुश होगई लेकिन ख़ुशी दिखाया नहीं और बोली, “रहने दो तुम, बस बोलते हो. अच्छा अब जाओ नहीं तो देर होजाएगी तुम्हे और जल्दी आना ये नहीं की बात करना शुरू किये तो दुनिया भूल गए”. “अब दो बजे तो घर से निकल रहा हूँ, थोड़ी देर तो रुकना ही पड़ेगा नहीं तो शिराज़ सोचेगा की बस खाने ही आया था, वैसे मैं आजाऊंगा शाम के पांच बजे तक, तबतक तुम थोड़ा आराम करलेना”. अलीना ने हंस कर उन्हें विदा किया और अन्दर चली गई, जावेद जी ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और सोचने लगे की उनकी बेग़म इतनी भी ख़राब नहीं है. पती-पत्नी का रिश्ता इन छोटी-छोटी लड़ाइयों से और मज़बूत होता है, चाहे वो जितना भी लडें जितना भी चिल्लाए लेकिन उनके मन में एक दूसरे के लिए अताह प्यार होता है, वो ऐसी मज़बूत डोर से बंधे होते है जिसे किसी भी तरह की तकरार तोड़ नहीं सकती. रिश्ते नीरस से लगने लगते हैं अगर उनमे लड़ियों का मसाला और रूठने-मनाने का तड़का ना लगे.
 
(शेष कहानी अगले भाग में....)
 

Tuesday, 4 February 2014

An evil called ‘cancer’................by: ASHUTOSH ASTHANA


Cancer as we know is one of the most deadly diseases which have gravely affected mankind since its origination. It is one of the most fatal diseases known to man and we are still finding solutions to eradicate it. Cancer is known medically as “malignant neoplasm”, is a broad group of diseases involving unfettered cell progression. In cancer, cells divide and grow uncontrollably, forming malicious tumors, and invading nearby parts of the body. The cancer may also spread to more aloof parts of the body through the lymphatic system or bloodstream. All tumors are not cancerous; benign tumors do not invade neighboring tissues and do not spread throughout the body. There are over 200 different known cancers that affect humans.

It is not so simple to understand because researchers have not been able to find everything about this deadly evil. Its dangerous effect can be understood with these survey findings:- in 2008 about 12.7 million cancers were diagnosed and in 2010 the case was worst about 7.98 million people died because was cancer. Thus cancer has become a leading cause of death in the developed world and in developing country it has become a second leading cause of death. It is estimated there will be almost 22.2 million new cases diagnosed annually worldwide by 2030. Cancer is has deep roots in our society because of this researcher Robert A. Weinberg, “if we lived long enough, sooner or later we all would get cancer.” Not only in the recent years, cancer has been affecting us since early ages and we get its record from Circa in Egypt in 1600 BC in which Edwin Smith Papyrus describes cancer of breast.

As we can see it is prevalent from a long time, it is important for the 21st century man to shoulder up his responsibility to fight against cancer. Thus few things are very important among them “cancer hospital planning” is a must. It is very important for the government as well as the hospital owners to buckle up for the future problems of cancer for an effective cancer hospital planning. It is very important for the hospitals to grow their clinical operations in maximum places, enhance research to eradicate this evil and educate the masses about the do’s and don’ts of cancer.

The second important need in the field of cancer eradication is “oncology facility planning”. For this research is must in the field of oncology. Disease-based cancer research should be promoted and trans disciplinary research across the field of cancer biology should also be promoted. The third and most important part is “cancer program development”. For this purpose there should be a development in scientific programs in Breast and Brain tumors and also center for cancer drug development should be made. There should be unconventional efforts in population intervention studies and primarily a unified cancer training program should be started at every level of the society.

 

Thus after analyzing all the aspects of cancer it is important to look in this matter seriously.  In September 2011, the United Nations General Assembly held a high-level meeting on non-communicable diseases to talk about the threats stood to low- and middle-income countries. It can be noticed from the above arguments and suggestions that it is not easy to tackle this evil but we have to do something or else the world has to kneel down before this deadly creature called “cancer”.