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Monday, 17 February 2014

..........और मियां जावेद गिर पड़े! (भाग-1)

                                                लेखक : आशुतोष अस्थाना

(इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएँ काल्पनिक है जिसका किसी भी व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है. अगर इसका संबंध किसी भी व्यक्ति से हुआ तो उसे मात्र एक संयोग कहेंगे)

“बेग़म!”..... “अलीना!”..... “अरे कहा हो रिज़वान की अम्मी?” जावेद मियां ने ज़रा गुस्से से बुलाया. “अरे आरही हूँ थोड़ा सबर करिए!” अलीना ने रसोईं से चिल्ला के कहा. आते ही अलीना उनके ऊपर मनो तलवार लेके चढ़ गई, “क्या हुआ क्यों खून जला रहे हो? कौन सी बाढ़ आरही है जो इतना चीख रहे हो! तुम्हारे ही निगलने के लिए खाना बना रही हूँ!” अलीना ने आँखे लाल करके बोला. बेग़म जी का ऐसा रौद्र रूप देख कर जावेद मियां कुछ सहेम से गए और शांत होकर बोले, “वो..वो...”, “वो..वो.. ही करते रहोगे या बोलो गे भी कुछ, मुझे और भी बहुत से काम करने हैं, खाली नहीं हूँ मैं तुम्हारी तरह, जल्दी बताओ क्यों गला फाड़ रहे थे?” अलीना ने और अधिक क्रोधित होकर बोला. अब तो बिचारे जावेद मियां भीगी बिल्ली की तरह दुबक के बिस्तर के एक कोने में बैठ गए थे. थोड़ा हिम्मत जुटा के और गले को साफ़ करते हुए बोले, “वो मेरा नया सफेद कुर्ता नहीं मिल रहा है, क्या तुमने कहीं देखा है, मतलब अगर ना देखा हो तो कोई बात नहीं तुम वैसे भी आज कल इतना व्यस्त रहती हो ,नहीं देखा होगा, तो...तो...मैं सोच रहा था अगर तुम ढूंड दो तो मैं वही पहन लूँगा, नहीं तो कोई बात नहीं”. बेग़म जी ने आँखें तरेरते हुए जावेद मियां को ऊपर से नीचे देखा और दूसरे कमरे में गईं और जावेद मियां का चमचमाता नया सफेद कुर्ता लेती आई. पती जी ने झुकी हुई नज़रों से कुर्ता लेलिया और तयार होने लगे और अलीना कुछ बडबडाते हुए रसोईं में चली गई.

जावेद जी ने आईने में देखा और उस पल को याद करने लगे जब उन्होंने बोला था, “क़बूल है!”, काश उस वक़्त वो गूंगे होजाते तो एक मासूम जिंदगी शहीद होने से बच जाती. खैर, निकाह के तीस साल बाद और एक बेटा और दो बेटियों के होजाने के बाद ये सब बातें सोचना उन्हें शोभा नहीं देता लेकिन वो बिचारे भी आदत से मजबूर थे, अब तीस साल से पड़ी आदत इतनी आसानी से तो जाती नहीं! जावेद मियां को रिटायर हुए एक साल होगये थे, अपनी आधी जिंदगी नोट गिनते-गिनते बितायी थी, सरकारी बैंक में क्लर्क जो थे. बड़े ही सरल और सच्चे इन्सान थे और यही कारण था कि अबतक एक पुरानी मोटरसाइकिल से चलते थे. तीनों बच्चों की शादी कर चुके थे जो अब दूसरे शहर में रहा करते थे. कद छोटा होने के बावजूद इरादों में ऊंचाई थी. रंग काला होते हुए भी चरित्र साफ़ था और मन की तरह आवाज़ भी कोमल थी. छोटी सी मूंछ थी लेकिन उसी को ताव देने में बड़ा गर्व मेहसूस किया करते थे. बढ़ती उम्र का असर उनके चेहरे पे तो अधिक नहीं दिखता था लेकिन उम्र के साथ तोंद भी बढ़ती जारही थी. पान खाने के शौक़ीन थे लेकिन इधर-उधर पीक थूकने पे बेग़म से अक्सर डांट खाजाया करते थे.

तैयार होने के बाद बड़े ही शान से अपने आपको शीशे में निहारने लगे. उस सफेद कुर्ते में वो निखर रहे थे. बड़े दिनों से वो अपने पुराने साथियों से नहीं मिले थे, आज उन्ही में से एक के घर दावत पे जाना था. निहारते-निहारते जब अचानक से पीछे मुड़े तो देख कर डर गए. अलीना उनके पीछे खड़ी थी और भौएं सिकोड़ के उन्हें घूर रही थी. “माशाल्लाह! बड़े हसीन लग रहे हो. किसी से निकाह करने जारहे हो क्या!”, “ऐसी मेरी किस्मत कहाँ!” जावेद जी ने चिल्ला कर, शेर की तरह दहाड़ते हुए.....अपने मन में कहा! “अरे शिराज़ ने आज दावत पे बुलाया है” जावेद जी ने फुसफुसाते हुए कहा. “दोस्तों के यहाँ घूमने की फुर्सत है इतना नहीं होता की मुझे भी कही घुमालाओ, कही सैर पे चलो, किसी होटल में खाना खिलादो! लेकिन मेरी तरफ तो ध्यान ही नहीं जाता.” जावेद मियां को लगा कही बेग़म जी जाने के लिए मना न करदें तो तुरंत उनके कंधे पे हाथ रख कर बोले, “चिंता क्यों करती हो, बस इसी हफ्ते हम चलेंगे कहीं”. अलीना खुश होगई लेकिन ख़ुशी दिखाया नहीं और बोली, “रहने दो तुम, बस बोलते हो. अच्छा अब जाओ नहीं तो देर होजाएगी तुम्हे और जल्दी आना ये नहीं की बात करना शुरू किये तो दुनिया भूल गए”. “अब दो बजे तो घर से निकल रहा हूँ, थोड़ी देर तो रुकना ही पड़ेगा नहीं तो शिराज़ सोचेगा की बस खाने ही आया था, वैसे मैं आजाऊंगा शाम के पांच बजे तक, तबतक तुम थोड़ा आराम करलेना”. अलीना ने हंस कर उन्हें विदा किया और अन्दर चली गई, जावेद जी ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और सोचने लगे की उनकी बेग़म इतनी भी ख़राब नहीं है. पती-पत्नी का रिश्ता इन छोटी-छोटी लड़ाइयों से और मज़बूत होता है, चाहे वो जितना भी लडें जितना भी चिल्लाए लेकिन उनके मन में एक दूसरे के लिए अताह प्यार होता है, वो ऐसी मज़बूत डोर से बंधे होते है जिसे किसी भी तरह की तकरार तोड़ नहीं सकती. रिश्ते नीरस से लगने लगते हैं अगर उनमे लड़ियों का मसाला और रूठने-मनाने का तड़का ना लगे.
 
(शेष कहानी अगले भाग में....)
 

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