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Friday, 13 April 2018

मुर्दा मर्द

तुम सरकार के नुमाइंदे होगे, तुम किसी राजनीतिक दल के पक्षधर होगे, तुम किसी धर्म के प्रचारक होगे, तुम गरीब होगे, तुम दलित होगे....
पर मैं तुम में से किसी से भी मुखातिब नहीं हूँ! मैं सिर्फ एक इंसान से अभी बात कर रहा हूँ....तुम इंसान तो हो ना? अगर नहीं, तो इसके आगे मत पढ़ना, तुम्हें समझ नहीं आएगा और अगर हाँ....तो अब तक चुप कैसे हो?
मैं इंसान हूँ, मगर मैं मर चुका हूं...खोखला हूँ अंदर से...सड़ चुका हूँ... कीड़े लग रहे हैं मुझमें... पिस्सू जानते हो? वही वाले कीड़े... सफेद, छोटे, रेंगने वाले कीड़े! मैं गल रहा हूँ, खत्म होने वाला हूँ....मगर क्यों?
क्योंकि मैं जीवित नहीं हूँ, मैं लाश हूँ! ज़िंदा मगर खोखली, कीड़े लगी लाश।
मैं कभी गर्व करता था, हज़ारों योनियों में जन्म लेने के बाद इंसानी रूप में पैदा होने पर। मैंने, कुत्तों, सुअरों, केचुओं, पिस्सुओं, जुओं को खुद से हीन प्रजाति का जानवर माना था। पर मैं कितना गलत था। मैं कुत्तों के बदन पर चलने वाली किलनी से भी हीन हूँ। अब गर्व करने को बचा ही क्या है! मैं इंसान तो रह नहीं गया। चारों ओर यही तो है। जरजर समाज, दो कौड़ी की परंपराएं और हवस से भरी आत्मा।
8 साल...महज़ 8 साल की उम्र, जिसमें सौभाग्य प्राप्त बच्चे माँ के आंचल में और पिता के कंधों पर खेलते कूदते बड़े होते हैं, उस उम्र में एक मासूम बच्ची को, कुछ दरिंदों ने, अपनी भूख मिटाने के लिए इस्तेमाल किया और फिर उसकी निर्मम हत्या कर दी।
इंसान कहते हैं वो खुद को, और उसके ऊपर से मर्द!
अब उन्होंने छोड़ा ही क्या है हमारे लिए, 'मर्दों' के लिए...
आओ मिल कर मुंह छुपाते हैं। वो जैसे मरने के बाद ढक दिया जाता है ना, वैसे ही...
माफ करना आसिफा, अफसोस है मुझे, मर्द मुर्दा बन चुका है!
#आशुतोष

Tuesday, 10 April 2018

एक अनजान व्यक्ति

तेज़ रफ़्तार से गाड़ियां धुआं उड़ाते हुए निकल रही थीं।  हॉर्न का शोर था और उमस भरी रात थी। वक़्त तो ज़्यादा नहीं हुआ था, यही कोई 9 बजे होंगे। नोएडा की सड़कें धीरे धीरे शांत होती जा रहीं थीं। जो लोग सड़क पर दिख रहे थे वो या तो फुटपाथ पर ही अपनी ज़िंदगी गुज़ारने वाले इंसान थे या माचिस के डिब्बों में अपनी ज़िंदगी काटने वाले वो रोबोट थे जो 9-10 घंटे काम कर के अपने रिचार्ज सेंटर लौट रहे थे जिससे अगली सुबह फिर काम पर जा सकें।
मैं अपने एक जिगरी दोस्त से मिल कर अपने माचिस के डिब्बे में लौट रहा था। फुटपाथ पर मूर्तिकार बल्ब की रौशनी में अपनी मूर्तियां बनाने में लगे हुए थे। जिस फुटपाथ को आम लोगों के चलने के लिए बनाया गया था उसपर भगवन बैठे अपना आकार सुनिश्चित करवा रहे थे। थोड़ी दूर सड़क पर चलने के बाद गाड़ियों के गति से डर कर मैंने फुटपाथ पर ही चलना ठीक समझा।
उसी फुटपाथ पर कुछ दूर एक बाइक का मिस्त्री अपनी दुकान बंद कर रहा था। दुकान से थोड़ा सा आगे एक व्यक्ति फुटपाथ पर उकड़ू बैठा अपने चेहरे को अपने दोनों हाथों में छिपाये हुए था। दूर से मैंने उसे नज़रंदाज़ कर दिया और तेज़ क़दमों से आगे बढ़ता रहा। जब उसके कुछ नज़दीक से गुज़रा तो मैंने ध्यान दिया कि वो व्यक्ति रो रहा है!
ओह! वो पथराई आँखें, बिलखता चेहरा, आंसू से गीली हो चुकी हथेली, मानो उसका सारा गम उसकी किस्मत की लकीर के रास्ते होता हुआ सूखी धरती को तर कर रहा हो।
मैं उसके पीछे से हो कर गुज़रा और कुछ दूर हट कर कुछ क्षण के लिए खड़ा हो गया। दूर से आती कार की रौशनी उसके चेहरे और पड़ रही थी। उम्र कोई 40-45 की थी। कपड़ों से निम्न वर्ग का साधारण सा व्यक्ति लग रहा था पर उसका दुःख, उसके आंसू, रुंधे गले का स्वर...वो असाधारण था। वो पागल नहीं था, वो शराबी नहीं था, वो जज़्बाती था...वो आंसू नहीं थे, जज़्बात थे जो उसकी आँखों से बह रहे थे।
किस बात का गम होगा उसको, किस दुःख को झेला होगा उसने, क्या उस दुःख को झेलनी की हैसियत थी उसकी?
दुःख को झेलने की हैसियत!
हाँ हैसियत! वो हैसियत जो अमीरी गरीबी से परे है, धर्म और जाती से भी परे है। हर किसी की औकात नहीं होती जो दुःख को झेल जाए। क्योंकि जिनमें उसे झेलने का बूता होता है ना वो उस तड़प को महसूस करते हैं, उनके गर्म आंसू रूह की वो आवाज़ होते हैं जो दूसरे नहीं समझ सकते।
उस आदमी को देख कर एहसास हो गया कि पैसे के मामले में शायद उसकी हैसियत कम हो, दुःख के मामले में हमसे उसकी हैसियत बहुत ज़्यादा है। मैं उसे कुछ देर वहीं खड़ा देखता रहा।
फिर शून्य खयालों से मुड़ा और अपने माचिस के डिब्बे की ओर जाने लगा। एक और कार की रौशनी उस व्यक्ति की ओर पड़ी और फिर वो परछाई अँधेरे में गुम हो गयी।

Tuesday, 3 April 2018

तुम और तुम्हारा फेमिनिज़्म

सिर्फ औरत हो इसलिए इज़्ज़त करें?
हां, सिर्फ इसलिए
पर क्यों, फिर कहाँ गयी बराबरी के हक़ वाली दलीलें? कहाँ गया तुम्हारा फेमिनिज़्म?
तुम्हारा मतलब है कि अब मुझे इज़्ज़त पाने के लिए भी फेमिनिस्ट बनना पड़ेगा? मतलब जिसके पास तुम्हारे बराबर का हक़ होगा उसे तुम इज़्ज़त नहीं दोगे?
तुम दलीलों की बात करते हो! उन दलीलों को तुम कान से सुन कर, मल निकालने वाले रास्ते से बाहर निकाल देते हो, इसलिए उन दलीलों का कोई अर्थ नहीं है।
तुम्हें वो महज़ दलीलें लगती हैं? एक बार औरत की कमीज़ के अंदर हवसज़दा नज़रों से नहीं, इज़्ज़त की नज़र से झांको।
क्या हो अगर तुम्हें दिन रात, आते जाते, हर रास्ते, हर चौराहे, हर गली में दो आंखें घूरती रहें। तुम खुद को ऊपर से नीचे तक परखो, कपड़ों से बाहर निकलते हर अंग को ढक लो, फिर भी तुम्हें सामने से आते, और पीछे निकल जाते लोग देखें। तुम खुद को कोसो, हैरान रहो, की आखिर मुझमें ऐसा क्या है जो इतना घूरा जा रहा है। सुबह सो कर उठने से रात को सोने जाने तक तुम एक अभिनय करते रहो, जिसमें हर कोई निर्देशक बन कर ये बताता रहे कि ऐसे मत बैठो, वैसे मत उठो, अपना शरीर छुपाओ नहीं तो किसी और को तुम्हें देख कर समस्या होने लगेगी।
क्या हो अगर चंद रुपये ज़्यादा कमाने से तुम्हारा कोई अपना ही तुमसे ईर्ष्या करने लगे?
उस डर से कैसे निपटोगे की कहीं तुमसे किसी मर्द का ईगो ना हर्ट हो जाये?
उस शर्म को कहां छुपाओगे जब निक्कर पहने एक छोटे बच्चे को, जो अभी ठीक से गिनती भी नहीं सीख पाया है, मर्दानगी का अनुभव कराते हुए सिर्फ इसलिए तुम्हारे साथ भेजा जाए कि वो तुम्हारी रक्षा करेगा?
इस कटाक्ष से कैसे बचोगे की हर लड़की एक जैसी है, तुम्हारा चूतिया काट कर किसी और से शादी कर लेगी? कैसे बताओगे की नहीं तुम वैसे नहीं हो?
जब समाज का हवाला दे कर तुम्हारे अपने ही तुम्हें किसी अपने से अलग कर दें, वो अपना जिसके साथ तुम हम-बिस्तर सिर्फ इसलिए नहीं हुए क्योंकि तुम्हारा रिश्ता एक बिस्तर के चार कोनों से अधिक विस्तृत है, तब तुम क्या करोगे और क्या करोगे जब किसी अनजान के बिस्तर में सिमटने के लिए तुम्हें छोड़ दिया जाए?
क्या हो अगर तुम्हें चंद रुपयों के लिए जलाया जाए, वो भी उनके हाथों जो तुम्हारा परिवार हुआ करते हैं।
मैं इज़्ज़त की भीख नहीं मांगती, वो मेरा हक़ है, क्योंकि जितना तुम इस समाज, इस दुनिया के हो, उतनी मैं भी हूँ!
तुम दलीलों की बात करते हो? तुम खुद को किसी अदालत का वकील बना कर मेरे ऊपर आरोप मढ़ते हो और फिर खुद ही जज बन कर उसकी सज़ा सुना देते हो। मेरी दलीलों को तुमने मेमने का मिमियाना समझा है, और खुद को वो कसाई, जिसे सिर्फ अपनी जेब को गर्म करने का ध्यान है, उस कराहते शोर से कोई मतलब नहीं।
मुझे इसलिए इज़्ज़त मत दो क्योंकि मैं कह रही हूं, ना इसलिए इज़्ज़त दो की मेरी व्यथा ऐसी है। मुझपर दया भी मत खाओ, ना ही हास्य की वस्तु बनाओ। मुझे इसलिए इज़्ज़त दो की मैं तुम जैसी ही हूँ.... मैं तुम ही हूँ...