आज सुबह ऑफिस जाते वक़्त एक कोयल की आवाज़ सुनाई दी. दिल्ली आये हुए 2 साल से अधिक हो गए, कितनी ही बार सुबह ऑफिस जाने के लिए उठा हूँ पर कोयल की ऐसी मधुर आवाज़ आज से पहले यहाँ सुनने को नहीं मिली थी. यूँ तो आवाज़ मामूली सी ही थी, जैसे हर कोयल की होती है पर उस आवाज़ ने आज एक ऐसी याद को आँखों के सामने ला कर खड़ा कर दिया जो अपने में ही बहुत ख़ास है. उस याद का इस आवाज़ से कोई विशेष संबंध तो नहीं है पर अचेतन मन में कोयल की कूक उस याद से जुड़ी हुई है.
जीवन में मुश्किलों का सामना या तो डट कर किया जाता है या डर कर, मगर कुछ मुश्किलें ऐसी होती हैं जिसका सामना डट कर पर डरते-डरते करना पड़ता है. उन दिनों स्कूल जाना भी उसी मुश्किल की तरह था. ये उस समय की बात है जब स्कूल जाने से नफरत हुआ करती थी (बारहवीं तक आते-आते स्कूल से मोहब्बत हो जाती है <3). सुबह साढ़े पांच बजे मम्मी स्कूल जाने के लिए उठा देती थी. चेहरे पर मातम, आँखों में आँसू और मन में इतना गुस्सा मानो अपनी ही माँ ने धोखा दे दिया हो. पर उनसे सीधे ये कहा भी नहीं जा सकता था क्यूंकि तब गाल इतने कोमल हुआ करते थे कि थप्पड़ का एक स्पर्श उगते सूरज की लालिमा की भांति चेहरे पर उभर आता था. रोते, बिलकते बिस्तर से उठ कर रोज़ की दिनचर्या को शुरू करने के अलावा कोई और चारा भी नहीं हुआ करता था. उन दिनों मेरा सबसे बड़ा दुश्मन ट्रौली वाला था जो एक दिन पहले ही बोल कर जाता था की "मोर बहिन इनका जल्दी तैयार कराये दिया करौ, इनही के मारे बाकी बच्चनों के देर होई जात है." दिखने में मुझसे काफी लम्बा था और कैप्टेन व्योम (मिलिंद सुमन) जैसा लगता था इसलिए उससे ज़्यादा कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती थी. वैसे वो नहीं, शायद स्कूल का गेट वाला दुश्मन था, जो समय पर गेट बंद कर देता था या वो टीचर मेरे दुश्मन थे जो देर से आने पर बच्चों को एक-एक छड़ी तशरीफ़ पर रसीद करते थे. उस समय शायद हर कोई दुश्मन ही लगता था. खैर, ट्रौली वाला ठीक पौने सात बजे मुझे लेने आ जाता था इसलिए सारे कर्म उसी 60 मिनट में निपटाने पड़ते थे. चबूतरे पर ब्रश करते, अपने जीवन की 'परेशानियों' पर गहन विचार करते हुए रोज़ ये मन में आता था की आज कुछ ऐसा हो जाए की स्कूल न जाना पड़े. वहीँ ब्रश करते-करते सामने लगे बूढ़े नीम के पेड़ पर बैठी कोयल की कूक सुनाई देती थी. एक तो सर जल्दी उठने से वैसे ही भन्नाता था ऊपर से वो कोयल अपने साथी के साथ चिलान्ने का कम्पटीशन किया करती थी. बस उसी समय मन में ये ठान लिया जाता था की आज तो कुछ भी हो जाए स्कूल नहीं जाना है. फिर मिन्नतों का दौर शुरू होता था. मम्मी के स्वाभाव पर निर्भर करता था कि स्कूल न जाने के लिए आज अनुरोध करना है या गुस्सा करना है. मम्मी आज नहीं जायेंगे, स्कूल में कुछ पढ़ाई नहीं होगी, पेट दर्द कर रहा है, ट्रौली वाले ने कहा है कि अब वो नहीं आएगा, आदि जैसे कई तीर तरकश में से निकाले जाते थे लेकिन मम्मी पर इन तीरों का कोई असर नहीं होता था. बोलते-बोलते गले में कुछ गड़ता हुआ सा महसूस होने लगता था, ज़बान सूखने लगती थी तब मम्मी एक गिलास पानी दे देती थी और फिर से अनुरोध की प्रक्रिया शुरू करनी पड़ती थी. मम्मी टिफ़िन धोती रहती और बगल में खड़ा हो कर मैं उनको देख कर बस यही सोचता की आखिर मान क्यूँ नहीं रही है! कोयल की आवाज़ और तीखी मालूम होने लगती थी. फिर दिन गिने जाते थे की सन्डे कितने दिन बाद आएगा. तब ध्यान आता था की कमबख्त परसों ही तो रंगीन सपने दिखा कर मुझे काले अँधेरे में ढकेल कर गया है. उस समय साम, दाम, दंड, भेद का ज्ञात नहीं था फिर भी मन इन्हीं पैंतरों को अपनाने लगता था. साढ़े 6 होते होते दिल की धड़कन तेज़ होने लगती थी और ख्याल आता था कि वो जिन्न जैसा मुह लेकर आ ही रहा होगा. यूँ तो घरवालों ने मेरा नाम आशुतोष रखा था पर ट्रौली वाले को 'संतोस' नाम काफी पसंद था. वैसे मैं 'संतोसी' था भी, उसके जैसी शकल के इंसान को प्रतिदिन देखना संतोषी व्यक्ति की निशानी थी. सारे पैंतरे अपना लेने के बाद गुस्सा दिखाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं नज़र आता था. जूते उतार कर, आँगन में मम्मी के पास जाकर ये एलान कर देता था की आज स्कूल नहीं जायेंगे, बस कह दिए! 'कह दिए' मुह से पूरा निकल भी नहीं पाता था कि 'इसरो' के रॉकेट की गति से एक थप्पड़ आता था और गाल पर चट्ट! से पड़ता था. रोते-रोते दरवाज़े पर नज़र पड़ती थी तो ट्रौली वाला मंद मुस्कान लिए मुझे जल्लादखाने ले जाने के लिए खड़ा रहता था. अकेले रहता तो थप्पड़ आई गयी बात लगती पर वो अपने साथ ट्रौली के बाकी बच्चों को भी लेकर आ जाता था, जो बाद में सारे रास्ते पूछते हुए जाते थे की तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें क्यूँ मारा? निकलते-निकलते मम्मी प्यार भी कर लेती थी और मैं हारे हुए सिपाही की तरह सर नीचे गिराए ट्रौली की ओर चल देता था. कोयल की कूक दूर तक सुनाई देती रहती थी...
आज जब उस कोयल की आवाज़ सुनी तो ऐसा लगा जैसे 'बचपन' उस डाल पर बैठा हो, और मुझसे पूछ रहा हो, "क्यों.......अब रोना नहीं आता?"
#आशुतोष
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