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Thursday, 27 March 2014

कंपनी बाग (भाग- 6)

                           लेखक: आशुतोष अस्थाना


चार बज गए थे और रौशनी के घर जाने का समय होरहा था. “अब हमे चलना होगा, माँ इंतज़ार कर रही होगी!” रौशनी ने सूरज से बोला. “जी बिलकुल, नहीं तो आप की माता जी परेशान होजयेंगी, वैसे आप चिंता न करें मैं तो मिलता ही रहूँगा आपसे यहाँ”, सूरज ने कुछ ज़्यादा ही मुस्कुराकर कहा. रौशनी को उसकी बात सुन के हँसी आगई, उसने मुस्कुराकर उसे अलविदा कहा और अपने भाई के साथ चली गई. सूरज कुछ देर वही खड़ा रहा, और सोचता रहा की ये जो कुछ भी होरहा था वो सपना तो नहीं, लेकिन गेंद के दर्द ने याद दिला दिया की वो सच था. एक बार आंख बंद करके उसने रौशनी के हाथों के स्पर्श को अपने सर पे मेहसूस किया. वो उसका दीवाना होचुका था, उसकी हँसी का, उसकी बातों का, उसके चेहरे का और उसी की याद में और जल्द ही उससे फिर मिलने की ख़ुशी में वो भी कंपनी बाग से चला गया.
पांच बजने वाले थे और बाग के बंद होने का समय होरहा था. वो बूढ़े दम्पति घर जाने के लिए अपनी कार की ओर जाने लगे. “आज तुम्हारा साथ है इसी लिए मैं जिंदा हूँ नहीं तो....” इतना कहते ही पती की आँख से फिर आंसु गिर आए. “....और ये साथ हमेशा रहेगा!” पत्नी ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया और चलने में उनको सहारा देने लगी. अपनी पत्नी का साथ पाके उनके अन्दर नई स्फूर्ति आगई. “माँ- बाप का प्यार बच्चों को बड़ी किस्मत से मिलता है, वो तो उनके ऊपर है की वो उसे हासिल कर लें या उस अमूल्य स्नेह को खो दें!” पत्नी ने लम्बी सांस लेकर कहा. ड्राईवर गाड़ी की पीछे वाली सीट पे लेटा सो रहा था. मालिक की आवाज़ सुनते ही उसकी नींद खुल गई, वो झट से उठा और अपनी सीट पे जाके बैठ गया. “इस जगह में कुछ तो बात है, ऐसा लगता है जैसे ये सारे दुःख हर लेती है!” पती ने बैठते-बैठते कहा. गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ी और वो लोग बाग से चले गए.
धीरे-धेवेरे बाग की भीड़ कम होती गई. अतुल और विजय भी ज़िदगी को कोसते और कुदरत की बनाई सुनदर लडकियों की तारीफ़ करते अपने-अपने घर चले गए. “थैंक यू सुरेश! मुझसे इतना प्यार करने के लिए.” दिशा सुरेश के प्यार में खिल रही थी. “तुम मेरी जिंदगी को दिशा और मैं अपनी जिंदगी को मुझसे दूर कभी नहीं जाने दूंगा. मैं कल ही मेरे मम्मी-पापा को भेजूंगा तुम्हारे घर तुम्हारे माता-पिता से हमारी शादी की बात करने के लिए.” सुरेश ने ठंडी सांस लेते हुए कहा. “और अगर वो नहीं माने तो?” दिशा ने थोड़ा दुखी होकर पूछा. “नहीं दिशा, अब तुम्हे और परेशां होने की ज़रूरत नहीं है, मैं अपनी मंजिल को पाके रहूँगा, चाहे कुछ भी होजाये! और हाँ प्लीज़ तुम खाना बनाना सीख लो नहीं तो बाद में मुझे क्या खिलाओगी.” सुरेश ने मुस्कुराते हुए काहा. दिशा खिलखिला कर हँस पड़ी. वो पल सुरेश के लिए सबसे ख़ास होता था, जब दिशा उसकी बातों पे सब कुछ भूल के हँसती थी. उस वक़्त वो उस पल को कैद कर लेना चाहता था. दिशा ने उसे अपनी बाहों में लेलिया. उसकी बाहें दिशा के लिए दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह थी. हर दुःख, हर पीड़ा, हर आंधी, शांत होती लगने लगी. दोनों उठे और अपनी आने वाली जिंदगी की बातें करते-करते चले गए.
सबकुछ शांत था, पेड़ो ने भी हिलना बंद करदिया था, सूरज पीपल के बड़े वृक्षों के पीछे ओझल होरहा था. मानव जीवन के सारे भावों को अपने में समेटे वो कंपनी बाग रात के आगोश में खोने को तैयार था. सारे गेट बंद करके चौकीदार अपने घर चले गए. ढलते सूरज की किरणों में आज़ाद जी अभी भी उसी जज़्बे के साथ खड़े थे, शायद इस इंतज़ार में की अगला दिन कुछ नए मीठे-नमकीन पलों से उन्हें अवगत कराएगा.

Tuesday, 25 March 2014

कंपनी बाग (भाग- 5)

                         लेखक: आशुतोष अस्थाना




लेकिन सरकार को तो कुछ करना ही होगा!!”, ज्ञानियों की चर्चा में से एक ने कहा. अशोक जी के सिर्फ एक वाक्य से जंग सा माहौल बन गया था. अपने आप को अधिक बुद्धिमान दर्शाने के लिए उन्होंने कहा था लड़कियां खुद ही गलत करती हैं इसी वजह से उनके ऊपर कई तरह अत्याचार होरहे हैं. “अंकल कोई भी लड़की अपना बलात्कार खुद नहीं करवाना चाहती है, कोई लड़की अपनी इज्ज़त से खुद खिलवाड़ नहीं कर वाना चाहती है, ये तो गंदे लोगों की गन्दी नज़र का दोष है!”, वहा बैठी एक छात्रा ने कहा. अब तो अशोक जी अपने आप को बचाने में लग गए. “अरे बेटा मेरा वो मतलब नहीं था!”, “अंकल आप ने औरतों के सम्मान को ठेस पहुचाई है!”, एक ने कहा. “नहीं बेटा मैं तो...”, “आप जैसे लोगों की वजह से लड़कियों को न्याय नहीं मिल पाता!” दूसरे ने कहा. “लेकिन मैं....”, “जी आप की भी तो पत्नी होगी, माँ होगी, बेटी होगी, बहन होगी, ज़रा उनकी भी तो सोचिये!” कोई भी अशोक जी को बोलने नहीं देरहा था और शुक्ला जी ने तो मानो मौन व्रत धारण कर लिया था. अशोक जी को तुरंत एक ख़याल आया, वो उठे, जेब से मोबाइल निकाला और ऐसा दिखाने लगे की किसी ने उन्हें फोन किया है. “हेल्लो! हाँ जी बताइए, जी! तेज़ बोलिए! आवाज़ नहीं आरही है!”, इसी बहाने वो वहा से कुछ दूर चले गए और तुरंत वही बैठे शुक्ला जी को फोन मिलाया. “भाईसाहब जल्दी आप भी आजाइए नहीं तो वहा और देर बैठे तो किसी बड़ी मुसीबत में फस जायेंगे!” शुक्ला जी को अशोक की बात में दम लगा और वो भी यही नाटक करके अशोक जी के साथ हो लिए. “आज तो बाल-बाल बचे शुक्ला जी!” “हाँ भाई अब बेहतर यही होगा की यहाँ से निकल लें हम दोनों!” दोनों तेज़ चलते हुए अपनी मोटरसाइकिल की तरफ गए, और कंपनी बाग से निकल गए.

साँसे तेज़ चल रही थी, दिल तेज़ धड़क रहा था, और वातावरण बिलकुल शांत था लेकिन मानस की बेचैनी असीम थी! हदें पार होचुकी थी और हर बाँध टूट चुका था! मास्टर जी ज़मीन पे पड़ी अपनी कमीज़ को उठा कर पहनने लगे, अंजू भी भूमी पे पड़ी अपनी आबरू को समेट रही थी, वो अपने वस्त्रों को व्यस्वस्थित कर ही रही थी की अचानक उसे ध्यान आया की अब चरित्र को पुनः कैसे व्यवस्थित करे. उसने झुकी हुई नज़रों से सुनील की तरफ देखा जो पेड़ से टेक लगाये, आँखें बंद किये, सिगरेट पी रहा था. अंजू ने कुछ नहीं बोला, पलके अभी भी झुकी हुई थी, नज़रों में लाज थी, शरीर काँप रहा था, फिर भी उसने अपने आप को संभाला माथे से पसीने को पोंछा और सुनील के बगल में जाके बैठ गई. सुनील भी बिलकुल शांत था और उसके हाव-भाव से ऐसा लग ही नहीं रहा था की उसने अभी-अभी सामाजिक दीवारों को तोड़ा है! अंजू को समझ नहीं आरहा था की उससे बात कैसे शुरू करे, उसे बहुत कुछ बोलना था, बहुत कुछ सुनना था, मन में उठ रहे तूफ़ान को शांत करना था मगर कैसे? थोड़ी देर बाद जब सुनील की सिगरेट खत्म होगई तब उसने अपनी आँखें खोली. अंजू दूसरी ओर देख रही थी, सुनील ने अपनी घड़ी में समय देखा तो 3 बज रहे थे.
“बड़ी देर होगई, अब हमे चलना चाहिए, क्यूँ अंजू?” अंजू ने उसकी ओर देखा और सिर्फ इतना कह सकी, “आई लव यू सुनील जी!” सुनील ने उसकी आँखों में देखा और मुस्कुराने लगा. “अच्छा जी, ये तो बड़ी ही अच्छी बात है! तो अब चलें?” वो चलने के लिए उठ गया. अंजू भी उठ गई लेकिन उसकी नज़रे उसके चेहरे पे टिकी हुई थी. “जिंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम....वो फिर नहीं आते...” “हम शादी कब करेंगे?” अंजू ने धीरे से पूछा. सुनील फिर से मुस्कुरा दिया, “शादी! और तुमसे! दिन में सपने देख रही हो क्या!” “क्या मतलब! अभी तो हमने....” अंजू आगे न बोल सकी और उसकी आँखों में आंसु आगये. “क्या अभी हमने! देखो आज संडे है और मैं घर में बोर होरहा था, बस इसीलिए मैंने तुम्हे यहाँ बुलाया की हम दोनों का थोड़ा समय बीते. बस हमने अभी समय बीताया, अब घर जाओ और पढाई में मन लगाओ, और हाँ, परेशान मत हो, मैं तुम्हे पास करवा दूंगा, वो भी फर्स्ट डिवीज़न! तुम्हे क्लास करने की भी ज़रूरत नहीं है.” अंजू मास्टर जी को देखती रहगई. “फूल खिलते हैं, लोग मिलते हैं, पतझड़ में जो फूल मुरझा जाते हैं वो बहारों के आने से मिलते नहीं....एक बार चले जाते हैं जो दिनों रात सुबह शाम, वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते!!” “लेकिन मैं आप से प्यार करती हूँ!” अंजू ने रोते-रोते कहा. “देखो! मेरे गले पड़ने की कोशिश मत करो, तुम जैसी लड़कियों को मैं बहुत अच्छे से जनता हूँ, पास होने के लिए और अपना नाम प्रसिद्ध करने के लिए किसी के साथ भी कही चली जाती हो!” अंजू अपने घुटनों पे गिर गई, और फूट-फूट के रोने लगी. “तुम्हे पास करा दूंगा बस इससे ज़्यदा मुझसे कोई उम्मीद मत करना. और ये सब भूल कर भी किसी को मत बताना क्युंकि सारा शहर जनता है मैं आशिक हूँ जिसका दिल किसी न किसी पे आता रहता है, तो मेरी बदनामी तो नहीं होगी, कम से कम अपने बारे में सोचना!” सुनील ने अंजू के सर पे हाथ रखा और उसके कान में बोला, “वैसे मज़ा आया!” और हँसते-हँसते चला गया. वो वही बैठी रोती रही, अपने आप को कोसती रही. जब थक गई तो धीरे से उठी, और अपने चेहरे को दुपट्टे से ढकने लगी, तभी कुछ समय पहले का दृश्य आँखों के सामने आगया! उसने फिर चेहरे से दुपट्टा हटा दिया और आंसू पोछते-पोंछते वहा से चली गई.
“चल बे अब उड़ा छक्का और घर चल बहुत देर होगई है!”, सौरभ की टीम के एक सदस्य ने उससे चिल्ला कर कहा. सौरभ की टीम को जीतने के लिए 6 रन चाहिए थे दो गेंदों पे और सौरभ बल्लेबाज़ी कर रहा था. गेंदबाज़ ने ओवर की पांचवी गेंद फेंकी और, कोई रन नहीं. सौरभ के ऊपर टीम को जिताने का बोझ था. तनाव बढ़ गया था. पिछली बार जब उनलोगों ने खेला था तो सौरभ की टीम हार गई थी, आज सौरभ वही पल दौहराना नहीं चाहता था. गेंदबाज़ ने दौड़ना शुरू किया, सौरभ ने अपने कदम और आँखें जमा ली. गेंदबाज़ दौड़ते हुए आया और पूरे बल के साथ गेंद सौरभ की ओर फेंकी. अभी गेंद हवा में ही थी की सौरभ ने आगे बढ़ के गेंद को पूरे दम से मारा. गेंद हवा में उठ गई. गेंद को लपकने सब दौड़े लेकिन वो छक्के में बदल चुकी थी. सौरभ की टीम जीत गई.
गेंद सूरज के सर पे जाके गिरी. “आ...!!!” सूरज ज़ोर से चिल्लाया, तभी ध्यान आया की रौशनी भी वही बैठी है, उसके सामने दर्द दिखायेगा तो मर्द नहीं कहलायेगा! तभी उसने अपने दर्द को दबाया, और सिर्फ आंखें बंद करके रह गया. “अरे! आपको चोट तो नहीं लगी, दिखाइए ज़रा! बहुत दर्द होरहा है क्या? आप ठीक हैं ना?” रौशनी अपने हाथों से सूरज के सर को सहलाने लगी. वो सूरज की जिंदगी का सबसे हसीन पल था. “मैं ठीक हूँ, आप परेशान मत होइये!” सूरज ने रौशनी से कहा. तबतक बॉल गेंद लेने के लिए एक लड़का भाग के आया. “सॉरी भैया! गलती से बॉल इधर आगई थी!” “अरे कोई बात नहीं यार मैं तो इस बॉल का शुक्रगुज़ार हूँ, इसी की वजह से मेरी रौशनी ने मुझे छुआ है” सूरज ने अपने मन में कहा. “कोई बात नहीं, बस अगली बार ध्यान से खेलना”, सूरज ने मुस्कुराकर कहा.
(शेष कहानी अगले भाग में....)
 
 
 

Sunday, 23 March 2014

कंपनी बाग (भाग- 4)

                           लेखक: आशुतोष अस्थाना




बाग के एक कोने में जहा उमंगें परवान चढ़ रही थी वही दूसरे कोने में सूरज अपनी रौशनी का इंतज़ार कर रहा था. और कुछ ही देर में उसके इंतज़ार का अंत हुआ, रौशनी अपने भाई के साथ वहा आगई. उसे देखते ही सूरज का चेहरा खिल उठा और वो उसके इर्द-गिर्द घूमने लगा. वो जहा भी जारही थी, सूरज उसके पीछे-पीछे जारहा था. पहली बार जब उसने रौशनी को देखा था तब वो अपने आप को भूल गया था. एक हफ्ते पहले ही उसको जिंदगी जीने का सही अर्थ में अनुभव हुआ था. आज उसकी रौशनी पीले रंग के सलवार-कमीज़ में किसी परी की तरह लग रही थी. रौशनी का भाई दस साल का था और वो उससे बहुत प्रेम करती थी इसी लिए उसके साथ खेलती, हँसती, वो उसके लिए उसकी जिंदगी थी. कुछ देर अपने भाई के साथ फुटबॉल खेलने के बाद वो घास पे बैठ गई और झोले से कोई उपन्यास निकाल के पढ़ने लगी. सूरज अभी उसे देख ही रहा था की रौशनी के भाई की फुटबॉल उसके पास आगई. सूरज ने बॉल हाथ में उठाली और बच्चे को देने लगा, “आप का नाम क्या है बेटा?”, सुने बड़े ही प्रेम से पूछा. बच्चे ने शरमाकर जवाब दिया, “जी अनुज”. न जाने क्यूँ सूरज को उसका नाम जान के बड़ी ख़ुशी हुई, उसने मन में सोचा की उसके ‘साले’ का नाम तो बड़ा अच्छा है. उसने सोचा की यही मौका है रौशनी से बात करने का तो उसने अनुज से साथ खेलने के लिए पूछा और वो मान गया.
फिर क्या था, वो और अनुज साथ खेलने लगे. तभी रौशनी का ध्यान उन दोनों की तरफ गया. अनुज को किसी और साथ खेलता देख उसे सही नहीं लगा और उसने उसे चुरमुरा खिलने के बहाने अपने पास बुला लिया. अनुज अपनी फुटबॉल सूरज के पास ही छोड़ कर चला गया. तभी सूरज ने हिम्मत की और अनुज को उसकी बॉल लौटने उन दोनों के पास गया. “अनुज ये लो तुम्हारी बॉल!”, अनुज ने उससे बॉल ली और रौशनी से कहा, “दीदी ये सूरज भैया हैं, यही मेरे साथ अभी खेल रहे थे, ये बहुत अच्छे हैं!” रौशनी ने सूरज की तरफ देखा, अभी वो जन्नत में था. पहली बार वो दोनों एक दूसरे की आँखों में देख रहे थे. “नमस्ते!” रौशनी ने धीरे से कहा और अनुज को चूरमुरे वाले के पास लेजाने लगी. “अरे रुकिए आप को तकलीफ कर रही हैं, मैं अनुज को दिलादेता हूँ चुरमुरा, चलो बेटा मैं दिलाता हूँ.” “अरे नहीं आप रहने दीजिये, मैं दिलादुंगी!” रौशनी ने कहा. अब सूरज को समझ में नहीं आरहा था की वो बात को कैसे आगे बढ़ाये, तो उसने खुद भी अपने लिए चुरमुरा खरीदने का सोचा ताकी वो कुछ देर और रौशनी के साथ रह सके. “वैसे मेरा नाम सूरज है.” सूरज दिल जोर-जोर से धड़क रहा था. “जी मेरा नाम रौशनी है”, उसने मुस्कुरा कर बोला. सूरज को लगा की कही उसकी जान न निकल जाए क्युंकि रौशनी ने उसकी ओर मुस्कुराकर कुछ बोला था, वो भी उससे. अब तो उसे कुछ नहीं समझ में आया की वो आगे क्या बोले. दोनों ने चुरमुरा खरीदा और वहीं खड़े होकर खाने लगे. “आप क्या करते हैं?”, रौशनी ने पूछा. सूरज घबरा गया, उसे समझ में नहीं आरहा था की वो क्या जवाब दे, “जी मैं, पढता हूँ...पढाई...स्टूडेंट हूँ, यूनिवर्सिटी में, एम.कॉम कर रहा हूँ..”, इतनी परेशानी तो उसे कभी किसी से बोलने में नहीं हुई थी. दोनों शांत होगये, अब बात कैसे आगे बढ़ाये. “जी और आप क्या करती हैं?” “मैं भी यूनिवर्सिटी में हूँ, एम.ए कर कर रही हूँ”. सूरज ने एक लम्बी साँस ली और सोच “मेरी होने वाली पत्नी पढ़ी-लिखी भी है!”

“साले लोट जाओ ज़मीन पे! वो गेंद नहीं तुम्हारी इज्ज़त है! बचालो उसे बाउंड्री के बाहर जाने से!” सौरभ ने चिल्ला कर अपने एक साथी से कहा. क्रिकेट का खेल पूरे ज़ोरों से चल रहा था, चौके-छक्कों की बारिश के साथ गालियों की भी बारिश होरही थी. “साले हरामी अगर अब तैं पिटवाया एक्को छक्का, तो माँ कसम तुम्हे नंगा करके पूरे कंपनी बाग में दौड़ायेंगे!” सौरभ की टीम अच्छा प्रदर्शन कर रही थी और केवल 80 रनों पे दूसरी टीम के 9 बल्लेबाज़ आउट होचुके थे. फिर से बारी आई सौरभ के ओवर की, ये मैच का आखिरी ओवर था और इसके बाद सौरभ के टीम को बल्लेबाज़ी करनी थी. पहली दो गेंदों पे कोई रन नहीं बने. तीसरी गेंद फेंकने के लिए सौरभ दौड़ा, लग रहा था की इस बॉल पे सामने खड़े बल्लेबाज़ को आउट करदेगा लेकिन, गेंद सीधे बल्लेपे पड़ी और बल्लेबाज़ ने आगे बढ़ के गेंद हवा में उठा दी, वो शानदार गेंद चक्के में तब्दील होगई!

गेंद सीधे जाके सुरेश के बगल में गिरी और तभी उसका ध्यान टूटा. उसने उठ कर गेंद वापस करदी और आके फिर से बेंच पे बैठ गया. उसने घड़ी में समय देखा तो एक बज गए थे. कंपनी बाग में हर रविवार को स्पीकर पे गाने बजते थे, एक बजते ही पूरे बाग में गाने बजने लगे. “कहीं दूर जब दिन ढल जाए, सांझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आए...” सुरेश को लगा शायद सभी को पता है की आज वो परेशान है, इसीलिए गाने भी वैसे ही बज रहे हैं. “कभी तो ये जब हुई बोझल साँसे भर आई बैठे-बैठे जब यूँ ही आँखें....”, अब उससे रहा नहीं गया और वो जाने की तयारी करने लगा, बस वो उठा ही था की उसने देखा दूर से उसकी ख़ुशी, उसकी जिंदगी, उसकी दिशा चली आरही थी. ख़ुशी की एक लहर उसके अन्दर दौड़ गई और आंसू की एक बूंद उसकी आँखों से गिर पड़ी. वो सामने आके कड़ी होगई लेकिन दोनों ने कुछ नहीं बोला. दोनों फिर से उसी बेंच पे बैठ गए पर एक शब्द नहीं बोला दोनों ने. आज सुरेश को दिशा से बोलने में झिझक होरही थी, ये वही लड़की थी जिसे उसने अपनी जिंदगी के हर पहलु बताये थे. काफी हिम्मत करने के बाद उसने दिशा से पूछा, “इतनी देर क्यों होगई?” दिशा भी शांत थी, सुरेश ने आँख के कोने से उसे देख रहा था और उसे लग रहा था की वो रो रही है. “घरवाले जाने नहीं देरहे थे. मैं दोस्त के यहाँ जाने का बहाना बना के आई हूँ!” फिर से वही शांति, आज दोनों को वो चुभ रही थी. “रहलोगी मेरे बिना?” सुरेश ने सीधा सवाल पूछा, दिशा ने सिर्फ रो कर उसका जवाब दिया. “खुश रहोगी मेरे बिना?”, दिशा शांत थी, गले को साफ़ करके बोली, “नहीं!” बस उसका नहीं था सुरेश के दुखते दिल का मरहम. दोनों फूट-फूट के रोने लगे. सुरेश ने अपना हाथ उसके कंधे पे रख लिया, “याद है हम जब भी यहाँ आते थे तो कभी एक दूसरे का हाथ बिना पकडे नहीं बैठते थे!” सुरेश ने दिशा से कहा. “आज तुम्हे ठान लिया है की मुझे और रुलाओगे!” दिशा और ज़्यदा रोने लगी. “मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ दिशा! और मैं तुम्हे कही नहीं जाने दूंगा!” ये दिशा के जलते दिल पे मरहम था. उन आंसुओ में भी दिशा ने ये सुन के मुस्कुरा दिया. उसकी हँसी ही तो सुरेश को प्राण देती थी. वो फिर से जीवित होगया.
 
(शेष कहानी अगले भाग में....)

Thursday, 20 March 2014

कंपनी बाग (भाग- 3)


                             लेखक: आशुतोष अस्थाना
 
12 बज रहे थे और बाग में भीड़ भी बढ़ गई थी. सौरभ के साथी भी आगये थे और क्रिकेट का खेल मैदान में शुरू होने वाला था. सुरेश अभी भी उसी बेंच पे बैठा था, अकेला तनहा अपने कल को याद कर रहा था और अपने कल के लिए बड़ा ही चिंतित था. “हम एक नहीं होसकते सुरेश!” दिशा ने रोते-रोते बोला. “अरे! हेल्लो ना हाय सीधे मज़ाक शुरू, अच्छा पहले ये बताओ मैं शाम के सात बजे से इंतज़ार कर रहा हूँ तुम्हारे फोन का और तुम्हे 11 बजे समय मिला है मुझे फोन करने का, मेरी याद नहीं आती ना, हाँ वैसे याद क्यों आएगी मैडम को, हम लगते कौन हैं आपके....” सुरेश अभी दिशा से मज़ाक कर ही रहा था की दिशा ने बीच में ही उसे रोक दिया. “सुरेश!”, “हाँ सुन तो रहा हूँ, वैसे अच्छा किया इतनी रात में फोन किया, अपनी जान की आवाज़ सुन के नींद अच्छी आएगी.....”, “सुरेश! अब ये सब कुछ नहीं होगा!” सुरेश नहीं समझ पाया की दिशा क्या कह रही ही, “मतलब, क्या नहीं होगा?” “हमारी शादी नहीं होसकती, मेरे मम्मी-पापा मेरी शादी कही और कर रहे है, मैंने बताया उन्हें हमारे बारे में लेकिन वो माने नहीं!”, शांति, एक लम्बी दर्दनाक शांति! “कुछ तो बोलो सुरेश!” दिशा ने झुंझला कर कहा. हमेशा खुश रहने वाला सुरेश ये सब सुन के टूट गया था, वो ज़्यदा कुछ नहीं बोल सका सिर्फ इतना ही कहा, “देखो मना मत करना, कल मुझसे कंपनी बाग में मिलो, दस बजे तक. मैं तुम्हारे बिना नहीं रहसकता!” और उसने फोन रख दिया.
“साले ने फोन तो रख दिया लेकिन पूरा पैसा चट कर गया यार!”, अशोक ने शुक्ला से बोला. “अरे तो आपने दे क्यों दिया था जनाब ऐसे ही किसी को नहीं देदेना चाहिए मोबाइल, अच्छा चलो उधर चलते है सीढ़ियों के पास वहा बैठते हैं कुछ देर.” दोनों उठ कर सीढ़ियों पे जाकर बैठ गए. वहा कुछ विद्यार्थी बैठ कर पढ़ रहे थे. उन्हें देख कर अशोक जी और शुक्ला जी दोनों ज्ञानी होने का अनुभव करने लगे. “आप को क्या लगता है शुक्ला जी ये यूक्रेन वालों का क्या होगा, जैसे हालत होरहे हैं लगता है की तीसरा विश्व युद्ध होकर रहेगा.” शुक्ला जी काफी चिंतन करने के बाद बोले, “कुछ कहा नहीं जासकता अब देखिये क्या होता है लेकिन अमेरिका संभाल लेगा परिस्थितियों को.” वहा बैठे 2-3 छात्रों ने उन दोनों की बातों में आनंद लेना शुरू कर दिया था और कुछ ही देर में वहा अमेरिका, रूस और तमाम बड़े देशों के ऊपर चर्चा शुरू होगई.
उस चर्चा से काफी दूर एक बेंच पे वो बूढ़े दम्पति अपने बच्चों के व्यवहार पर अभी भी चर्चा कर रहे थे. “याद है रिषभ और वरुण को मेरे साथ ऑफिस जाना कितना पसंद था बचपन में. जैसे ही कार में बैठते थे वैसे ही दोनों को नींद आने लगती थी और दोनों मेरी ही गोद में सर रख के सोजाते थे. विडियो गेम खरीदने की ज़िद जब करते थे तो ले कर ही शांत होते थे.” पती की आँख में आंसु देख कर उनकी पत्नी ने अपना हाथ उनके कंधे पे रख दिया. “मैं उनका हीरो था कभी! और आज वो हम दोनों की तरफ देखते भी नहीं, क्या पैसे का प्यार ज़्यदा बड़ा होता है माता-पिता के प्यार से?” इस सवाल का कोई जवाब नहीं था उनकी पत्नी के पास और दोनों फिर अपने बच्चों की बच्चों की यादों में खो गए.
स्टंप गड़ गए थे, पिच बन गई थी, गेंदबाज़ और बल्लेबाज़ दोनों तयार थे. सौरभ ने पहले गेंद फेकने का फैसला किया. “भाई आउट करो साले को!” उसके एक दोस्त ने बोला. सौरभ अच्छा गेंदबाज़ था. उसने अपनी जगह ली और दौड़ना शुरू किया, पूरी रफ़्तार से पहली गेंद फेंकी, और, आउट!! “जियो रजा! लौंडा हीरा है हीरा!” सौरभ के टीम में से एक लड़के ने उसकी पीठ ठोकते हुए कहा. ओवर की बाकी पांच गेंदों को भी सौरभ ने बड़ी ही चतुराई से फेंका.
उधर मैदान में जब वो सब होरहा था, तभी यहाँ मास्टर साहब के मिजाज़ कुछ ज़्यादा ही आशिक़ाना होरहे थे. उनदोनों ने भुनी हुई मूंगफली खाने के लिए खरीदी थी. सुनील जी अंजू को अपने हाथ से मूंगफली खिला रहे थे और बीच-बीच में खिलने के बहाने उसके होठों को छूलेरहे थे. अंजू इससे शर्मा जारही थी और मुस्कुरा कर नीचे देख रही थी. मास्टर जी अंजू के साथ बाग के पीछे वाले हिस्से में टहल रहे थे जहा काफी बड़ी झाड़ियाँ और पेड़ थे और ज़्यादा लोग नहीं आते थे. थकने का बहाना बना कर मास्टर जी अंजू के साथ वही एक घनी झड़ी के पीछे जगह बना कर बैठ गए. थोड़ी देर बातें करने के बाद उन्होंने अपने आप को अंजू की गोद में आराम दिया. “तुम्हारी आँखें बहुत सुन्दर है अंजू, जैसे मोती हों!” बस इतना कहते ही उन्होंने अंजू की आँखों को चूम लिया. और उसके कंधे पे अपना सर रख लिया. “मैं आप की ही तो हूँ.” छात्रा जी ने शर्म के कारण गुरु जी की बात का विस्तृत जवाब नहीं दिया. आज अगर वो उत्तर पुस्तिका अधूरी भी छोड़ के आती तो मास्टर जी उसे पूरे अंक देते. अब सुनील से रहा नहीं गया और उन्होंने अंजू का चेहरा अपनी ओर घुमाया और उसके होठों को चूमने लगे. अंजू कुछ असहज सा मेहसूस करने लगी और अपने आप को थोड़ा सा पीछे किया. “अभी ये सही नहीं होगा सुनील जी!” उसने धीरे से बोला. उसे नहीं पता था की सुनील को सही-गलत से कोई मतलब नहीं था, उन्हें तो बस अपनी ज़रूरत पूरी करनी थी. “हम प्यार करते है एक दूसरे से, ये बिलकुल सही है, जैसे मेरी पढाई हुई चीजों पे विश्वास करके तुम उसे पढ़ती हो वैसे इसमें भी विश्वास करो मेरा!” जिस अपनेपन से सुनील ने अंजू की आंख में आंखें डाल के बोला, वो उनकी बातों में तुरंत आगई और उसके शरीर को ढीला होता मेहसूस कर उसने अपने इरादों पे पड़ी लगाम को हटा दिया. धीरे से उसके दुपट्टे को उसके शरीर से हटा कर बगल रख दिया और अपने हाथों से उसके शरीर का स्पर्श करने लगा. मास्टर जी ने अपनी प्रीय छात्रा को नया पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया. इज्ज़त ढकने वाली वो ढाल ज़मीन पे पड़ी धूल खारही थी!!
 
(शेष कहानी अगले भाग में...)
 

Tuesday, 18 March 2014

कंपनी बाग (भाग-2)

                            लेखक: आशुतोष अस्थाना




तभी बाग में एक चमचमाती गाड़ी ने प्रवेश किया. गाड़ी आकर मैदान के एक कोने में रुकी और ड्राईवर ने रोकने के बाद दरवाज़ा खोला. उसमें से अधेड़ उम्र के पती-पत्नी उतरे. चेहरे की झुरियां साफ़ बता रही थी की दोनों सत्तर साल से ऊपर थे. पत्नी थोड़ा बहुत चल ले रही थीं लेकिन पती जी छड़ी का इस्तेमाल करते थे चलने में. दोनों मैदान में आकर टहलने लगे और कुछ दूर तक चलने के बाद दोनों एक बेंच पे बैठ गए. दूर खड़ा उनका ड्राईवर अब तक अपनी दूसरी सिगरेट सुलगा रहा था. “हिम्मत रखिये मैं तो हूँ ना आपके साथ.” पत्नी ने बोला. “तुम तो हो, लेकिन बुढ़ापे की लाठी तो नहीं है!” पती जी ने अपने जेब से एक सुनहरा पाइप निकाला, उसको सुलगाया और धुआं उड़ने लगे. “आई मिस माय चिल्ड्रेन!” और इतना कह कर पती जी की आँखों से आंसु आगये. “ओह! डिअर डोंट क्राई! तुम्हारी पत्नी तुम्हारे साथ है, तो तुम्हे और किसी की क्या ज़रूरत.” इतना कह के उनकी आँखों से भी आंसू बहने लगे. “करोडों रुपये कमाए मैंने, इतनी इज्ज़त कमाई, बस बेटों का प्यार ही नहीं कमा पाया!” “ऐसे मत बोलो, उनकी किस्मत खराब है जो उन्हें पिता का प्यार नहीं मिल रहा है!” पत्नी ने लम्बी साँस लेकर बोला और दोनो सामने खेल रही गिलहरियों को देखने लगे.

“शू! हुश! भाग साली!” सौरभ ने अपने पास बैठी एक गिलहरी को गुस्से से भगाया. अब उसका गुस्सा उबल रहा था. अभी तक उसके साथी आए नहीं थे और वो पांच बार उनसे फोन करके बोल चुका था जल्दी आने के लिए. वो बोर होरहा था तो टहलने लगा और सामने पड़े एक छोटे पत्थर को पैर से मारा, पत्थर जाके थोड़ी दूर बैठे सूरज पे लगा जो पढ़ रहा था. “भाई ज़रा आराम से!” सूरज ने धीरे से बोला. सूरज उन हज़ारों विद्यार्थियों में से एक था जो सिविल सेवाओं में भरती होने का सपना लिए इलाहाबाद शहर में अपनी किस्मत अजमाने आते हैं. सूरज काफी होनहार था लेकिन बिचारा परीक्षा में सफल नहीं होपाता था परन्तु सबसे अच्छी बात ये थी की वो अपनी असफलताओं से डरता नहीं था. भदोही जैसे छोटे गाँव से आने के बावजूद उसमें हीन भावना नहीं थी और बड़े शहर का सामना निडर होकर कर रहा था. हर रविवार को सुबह से ही वो कंपनी बाग में पढ़ने आया करता था और पढ़ते-पढ़ते हलकी से झपकी लेलेता लेकिन पिछले कुछ दिनों से वो लगभग हर शाम वहा आया करता था, पढ़ने के उद्देश्य से नहीं, उसे प्यार होगया था. सूरज की रौशनी हर शाम अपने छोटे भाई और पड़ोस के एक बच्चे को बाग में सैर कराने लाती थी और जबतक बच्चे खेलते थे वो अपनी पढाई करती थी. उसे इस बात की ज़रा सी भी खबर नहीं थी की सूरज उसके लिए हर शाम वहा आता है. पिछली शाम उसने रौशनी को कहते सुना था की रविवार की सुबह वो अपने भाई को घुमाने वहा आयेगी. आज सूरज का पढाई में बिलकुल मन नहीं लग रहा था, उसे तो बस इंतज़ार था की कब रौशनी आयेगी और सही मायनों में उसके दिन को रोशन कर देगी.

इंतज़ार तो कोई और भी कर रहा था, फोन रखने का! राकेश जी पिछले एक घंटे से अशोक भाई के मोबाइल से बात कर रहे थे और अब अशोक भाई का दिल बैठा जारहा था. बड़ी तकलीफ होती है जब आपके मोबाइल के पैसे कोई और खर्च करे. “भाईसाहब अब मोबाइल देने की कृपा करेंगे!” अशोक ने थोड़ा धैर्य से बोला. “अच्छा चलो कल मिलते हैं और मौसी को प्रणाम कहना.” “लीजिये साहब बहुत-बहुत धन्यवाद फोन देने का.” “वैसे आप काम क्या करते हैं जनाब?” शुक्ल जी ने पूछा. “काम का तो ऐसा है की बहुत फैला हुआ कारोबार है मेरा! अब आप समझ लीजये दुबई, बैंकाक तो लगभग हर दिन जाना होता है! वैसे मैं इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का काम करता हूँ.” राकेश जी ने बड़े ही गर्व से बोला. शुक्ला और अशोक जी को थोड़ा आश्चर्य हुआ की चमड़े की टूटी हुई चप्पल पहनने वाला करोड़पती कैसे होसकता है, लेकिन फिर ये सोच कर शांत होगए कि कलयुग है साहब कुछ भी होसकता है.

कलयुग तो था ही क्युंकि सुनील सर अपनी प्रीय छात्रा अंजू के साथ आज बाग की शोभा बढ़ाने आए थे. “सर इस मौसम को देख कर लग रहा है कि किसी अपने की बाहों में कैद होकर सो जाऊं!” अंजू ने पलके झपका कर चेहरे को शर्म से लाल करके कहा. मास्टर जी समझ गए की उनकी छात्रा क्या कहना चाहरही है. “आई लव यू अंजू!” सुनील सर ने अपने अनोखे आशिकों वाले अंदाज़ में बोला. इसी अंदाज़ से लड़कियां उनपर फ़िदा होजाती थी. पढ़ाते-पढ़ाते लडकियों के सर पे हाथ रख देना, कलम पकड़ने के बहाने उंगलियों को छूलेना और अपनी ही छात्राओं के सौन्दर्य की तारीफ करना उनका हुनर था. उनके प्यार के किस्से विश्वविद्यालय में प्रसिद्ध थे और अंजू उनकी सातवी या आठवी प्रेमिका थी. “चलो अंजू बाग की सैर करते हैं”, ये कहते ही उन्होंने अपना हाथ अंजू के कंधे पे रख लिया और अंजू ने अपने दुपट्टे को समाज से बचने का ढाल बना लिया. दोनों ने प्यार की बातें करना शुरू की और मास्टर साहब के हाथ की पकड़ अंजू के कंधे पे मज़बूत होती गई.

अतुल और विजय उन दोनों को टहलते देख रहे थे. दोनों विश्वविद्यालय के छात्र थे और सुनील सर की हरकत से वाकिफ थे. “बाबा आज तो नई मुर्गी फासी है हमारे शिक्षक महोदय ने!” इतना कहते ही दोनों हंसने लगे. क्लास ना करके कंपनी बाग में नींद लेने आना उनका चहेता काम था. “अबे यार ई साला अब्दुलवा बड़ा हरामखोरी कर रहा है, साले को बोले रहे की नोट्स देदेना तो कहिता है की क्लास में आया करो नोट्स बनाने!” विजय ने अतुल से कहा. “अच्छा! उस भोसड़ीवाले की इतनी हिम्मत! पहले क्यों नहीं बताये बे अब पेलेंगे साले को!” अतुल ने गुस्से से कहा. “अबे यार बड़े दिन होगए दारु नहीं मिली, कोई जुगाड़ करो बे!”, अतुल ने अंगड़ाई लेते हुए कहा. “साले, मेरे बाप ने गुटके का पैसा भी रोक के रखा है तुम्हे दारू की पड़ी है, सब उस कामिनी की वजह से, जब से मेरे बाप ने उससे शादी की है तब से वो मेरी मार रही है!” विजय ने गुस्से से बोला. अतुल अब आँखे बंद कर मैदान पे लेट गया था लेकिन विजय की आवाज़ से समझ गया की वो गुस्से में है. “लो बे अच्छा सिगरेट पियो और गुस्सा उड़ाओ.” अतुल ने उसे अपनी सिगरेट जला कर दी और दूसरी ओर घूम के सोने लगा. विजय ने सिगरेट का धुआं हवा में उड़ाया और रोआसी सी आवाज़ में धीरे से बोला, “आज अगर माँ जिंदा होती तो मेरे साथ ऐसा ना होता!”

(शेष कहानी अगले भाग में.....)
 

Sunday, 16 March 2014

कंपनी बाग (भाग-1)


                              लेखक: आशुतोष अस्थाना
 
(इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं, जिसका किसी भी व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है. अगर इसका संबंध किसी भी व्यक्ति से हुआ तो उसे मात्र एक संयोग कहेंगे!)
 
 
सुरेश आज कुछ परेशान लग रहा था. बार-बार  गुस्से से घड़ी देखता और समय को कोसने लगता, फिर तंग आके उस अमलतास के पेड़ के चारो ओर घूमने लगता जिससे सटी बेंच पे वो पिछले दो घंटे से बैठा था. आज ठंड कुछ कम थी और अन्य दिनों की तुलना में धूप तेज़ थी. सुबह के 10 या 11 ही बज रहे थे लेकिन मैदान में काफी लोग थे. सुरेश के उखड़े हुए चेहरे को देख कर साफ़ पता चल रहा था की वो बहुत दुखी है. “मेरे साथ ऐसा क्यूँ होरहा है भगवान!” उसने एक लम्बी सी सांस लेकर कहा. बाग के एक कोने में शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की मूर्ति पूरे आब के साथ अपनी मूंछो को ताव देती हुई खड़ी थी. आज उसपे किसी भी तरह की कोई गंदगी नहीं थी शायद कल उसे धुला गया था. सुबह की सैर करके लोग लौट रहे थे और कुछ लोग सैर का आनंद अभी तक उठा रहे थे.
बड़े पीपल के पेड़ के पास से टहलते हुए शुक्ला जी ने अशोक जी से बोला, “अरे जनाब ऐसा ही मौसम बारहों महीने रहे तो टहलने का अपना ही मज़ा होगा, क्यों अशोक भाई, है ना?”, अशोक जी थोड़ा वज़नी आदमी थे और टहलते वक़्त बोलना उनके लिए किसी पहाड़ को तोड़ने से कम नहीं था. “हाँ भाई....सही, सही!” बिचारे हाँफते-हाँफते बोले. उन्हें अब सैर में आनंद नहीं आरहा था और शुक्ला जी उन्हें दौड़ाए ही जारहे थे! “क्या हुआ अशोक थक गए क्या यार! अभी तुम्हारी थकने की उम्र है क्या! अभी हम चालीस के ही तो हैं, अच्छा चलो बस आगे चल के रुक जायेंगे. दोनों आज़ाद की मूर्ति के सामने से होते हुए मैदान की तरफ बढ़ने लगे. आगे जाकर दोनों एक बेंच पे बैठ गए जिसपे पहले से ही एक व्यक्ति बैठे थे. “अरे यार उसको बोलो ये करोड़ो का सवाल है!” राकेश जी ने मोबाइल पे बात करते हुए थोड़ा ऊँचे स्वर में कहा. “देखो भाई मैं कल दुबई चला जाऊंगा उसके बाद मैं कोई मदद नहीं करसकता तुम्हारी, तुम्हे तो पता ही है मैं कितना व्यस्त आदमी हूँ और मुझे ये लाख-दस लाख से कोई मतलब नहीं है तुम्हे तो पता ही...” राकेश जी बोलते-बोलते रुक गए. फ़ोन अचानक से कट जाने पे उन्होंने अपना मोबाइल देखा और शुक्ला जी और अशोक जी को सुनाने के लिए थोड़ा ज़ोर से बोले, “ये नेटवर्क भी ना! बताइए साहब मेरी यहाँ करोड़ो की डील अटकी हुई है और ये नेटवर्क चला गया.” शुक्ला जी और अशोक भाई ने आश्चर्य से राकेश जी की तरफ देखा. बिचारों को क्या पता था की राकेश भाई चवन्नी के भी मोहताज थे. “जी आप चाहें तो मेरे मोबाइल से बात कर लीजिये.” शुक्ला जी ने बोला. “अच्छा लाइए आप इतना कह रहे हैं तो कर ही लेता हूँ बात”. राकेश ने मोबाइल लिया और कुछ कदम दूर पे खड़े होकर किसी को फोन मिलाया, “हेल्लो!”
“अबे साले हेल्लो-हाए मत करो, ये बताओ हो कहा तुम?, साले पिछले दो घंटे से यहाँ चूतिया की तरह खड़े हैं हाथ में बल्ला और विकेट लेके और तुम लोग मरा रहे हो! खेलने नहीं आना था तो बुलाया क्यूँ आराम से मैं सो रहा था घर में!” सौरभ ने गुस्से से फोन पे बोला. वो बीस साल का युवक था जिसे खेलना अच्छा लगता था लेकिन थकना नहीं. सुबह सात बजे से अपने दोस्तों का इंतज़ार कर रहा था लेकिन वो लोग अभी तक आए ही नहीं थे. काफी देर तक वो कंपनी बाग के मैदान में टहल रहा था फिर थक कर उसी बेंच पे बैठ गया जिसपे सुरेश बैठा था. सुरेश अभी भी काफी परेशान था. उतरा हुआ सा चेहरा और आँखों में नमी अभी भी बरक़रार थी. “भाई टाइम कितना हुआ है?” सुरेश ने सौरभ से पूछा. “समय तो ख़राब है यार, वैसे 11 बजने में दस मिनट बाकी है.” सुरेश अपने ही आप में इतना परेशान था की उसे सौरभ की परेशानी पूछने का होश नही था.
(शेष कहानी अगले भाग में....)