लेखक: आशुतोष अस्थाना
चार बज गए थे और रौशनी के
घर जाने का समय होरहा था. “अब हमे चलना होगा, माँ इंतज़ार कर रही होगी!” रौशनी ने
सूरज से बोला. “जी बिलकुल, नहीं तो आप की माता जी परेशान होजयेंगी, वैसे आप चिंता
न करें मैं तो मिलता ही रहूँगा आपसे यहाँ”, सूरज ने कुछ ज़्यादा ही मुस्कुराकर कहा.
रौशनी को उसकी बात सुन के हँसी आगई, उसने मुस्कुराकर उसे अलविदा कहा और अपने भाई
के साथ चली गई. सूरज कुछ देर वही खड़ा रहा, और सोचता रहा की ये जो कुछ भी होरहा था
वो सपना तो नहीं, लेकिन गेंद के दर्द ने याद दिला दिया की वो सच था. एक बार आंख
बंद करके उसने रौशनी के हाथों के स्पर्श को अपने सर पे मेहसूस किया. वो उसका
दीवाना होचुका था, उसकी हँसी का, उसकी बातों का, उसके चेहरे का और उसी की याद में
और जल्द ही उससे फिर मिलने की ख़ुशी में वो भी कंपनी बाग से चला गया.
पांच बजने वाले थे और बाग
के बंद होने का समय होरहा था. वो बूढ़े दम्पति घर जाने के लिए अपनी कार की ओर जाने
लगे. “आज तुम्हारा साथ है इसी लिए मैं जिंदा हूँ नहीं तो....” इतना कहते ही पती की
आँख से फिर आंसु गिर आए. “....और ये साथ हमेशा रहेगा!” पत्नी ने मुस्कुरा कर उत्तर
दिया और चलने में उनको सहारा देने लगी. अपनी पत्नी का साथ पाके उनके अन्दर नई
स्फूर्ति आगई. “माँ- बाप का प्यार बच्चों को बड़ी किस्मत से मिलता है, वो तो उनके
ऊपर है की वो उसे हासिल कर लें या उस अमूल्य स्नेह को खो दें!” पत्नी ने लम्बी
सांस लेकर कहा. ड्राईवर गाड़ी की पीछे वाली सीट पे लेटा सो रहा था. मालिक की आवाज़
सुनते ही उसकी नींद खुल गई, वो झट से उठा और अपनी सीट पे जाके बैठ गया. “इस जगह
में कुछ तो बात है, ऐसा लगता है जैसे ये सारे दुःख हर लेती है!” पती ने
बैठते-बैठते कहा. गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ी और वो लोग बाग से चले गए.
धीरे-धेवेरे बाग की भीड़ कम
होती गई. अतुल और विजय भी ज़िदगी को कोसते और कुदरत की बनाई सुनदर लडकियों की तारीफ़
करते अपने-अपने घर चले गए. “थैंक यू सुरेश! मुझसे इतना प्यार करने के लिए.” दिशा
सुरेश के प्यार में खिल रही थी. “तुम मेरी जिंदगी को दिशा और मैं अपनी जिंदगी को
मुझसे दूर कभी नहीं जाने दूंगा. मैं कल ही मेरे मम्मी-पापा को भेजूंगा तुम्हारे घर
तुम्हारे माता-पिता से हमारी शादी की बात करने के लिए.” सुरेश ने ठंडी सांस लेते
हुए कहा. “और अगर वो नहीं माने तो?” दिशा ने थोड़ा दुखी होकर पूछा. “नहीं दिशा, अब
तुम्हे और परेशां होने की ज़रूरत नहीं है, मैं अपनी मंजिल को पाके रहूँगा, चाहे कुछ
भी होजाये! और हाँ प्लीज़ तुम खाना बनाना सीख लो नहीं तो बाद में मुझे क्या खिलाओगी.”
सुरेश ने मुस्कुराते हुए काहा. दिशा खिलखिला कर हँस पड़ी. वो पल सुरेश के लिए सबसे
ख़ास होता था, जब दिशा उसकी बातों पे सब कुछ भूल के हँसती थी. उस वक़्त वो उस पल को
कैद कर लेना चाहता था. दिशा ने उसे अपनी बाहों में लेलिया. उसकी बाहें दिशा के लिए
दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह थी. हर दुःख, हर पीड़ा, हर आंधी, शांत होती लगने लगी.
दोनों उठे और अपनी आने वाली जिंदगी की बातें करते-करते चले गए.
सबकुछ शांत था, पेड़ो ने
भी हिलना बंद करदिया था, सूरज पीपल के बड़े वृक्षों के पीछे ओझल होरहा था. मानव
जीवन के सारे भावों को अपने में समेटे वो कंपनी बाग रात के आगोश में खोने को तैयार
था. सारे गेट बंद करके चौकीदार अपने घर चले गए. ढलते सूरज की किरणों में आज़ाद जी
अभी भी उसी जज़्बे के साथ खड़े थे, शायद इस इंतज़ार में की अगला दिन कुछ नए
मीठे-नमकीन पलों से उन्हें अवगत कराएगा.