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Sunday, 16 March 2014

कंपनी बाग (भाग-1)


                              लेखक: आशुतोष अस्थाना
 
(इस कहानी के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं, जिसका किसी भी व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है. अगर इसका संबंध किसी भी व्यक्ति से हुआ तो उसे मात्र एक संयोग कहेंगे!)
 
 
सुरेश आज कुछ परेशान लग रहा था. बार-बार  गुस्से से घड़ी देखता और समय को कोसने लगता, फिर तंग आके उस अमलतास के पेड़ के चारो ओर घूमने लगता जिससे सटी बेंच पे वो पिछले दो घंटे से बैठा था. आज ठंड कुछ कम थी और अन्य दिनों की तुलना में धूप तेज़ थी. सुबह के 10 या 11 ही बज रहे थे लेकिन मैदान में काफी लोग थे. सुरेश के उखड़े हुए चेहरे को देख कर साफ़ पता चल रहा था की वो बहुत दुखी है. “मेरे साथ ऐसा क्यूँ होरहा है भगवान!” उसने एक लम्बी सी सांस लेकर कहा. बाग के एक कोने में शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की मूर्ति पूरे आब के साथ अपनी मूंछो को ताव देती हुई खड़ी थी. आज उसपे किसी भी तरह की कोई गंदगी नहीं थी शायद कल उसे धुला गया था. सुबह की सैर करके लोग लौट रहे थे और कुछ लोग सैर का आनंद अभी तक उठा रहे थे.
बड़े पीपल के पेड़ के पास से टहलते हुए शुक्ला जी ने अशोक जी से बोला, “अरे जनाब ऐसा ही मौसम बारहों महीने रहे तो टहलने का अपना ही मज़ा होगा, क्यों अशोक भाई, है ना?”, अशोक जी थोड़ा वज़नी आदमी थे और टहलते वक़्त बोलना उनके लिए किसी पहाड़ को तोड़ने से कम नहीं था. “हाँ भाई....सही, सही!” बिचारे हाँफते-हाँफते बोले. उन्हें अब सैर में आनंद नहीं आरहा था और शुक्ला जी उन्हें दौड़ाए ही जारहे थे! “क्या हुआ अशोक थक गए क्या यार! अभी तुम्हारी थकने की उम्र है क्या! अभी हम चालीस के ही तो हैं, अच्छा चलो बस आगे चल के रुक जायेंगे. दोनों आज़ाद की मूर्ति के सामने से होते हुए मैदान की तरफ बढ़ने लगे. आगे जाकर दोनों एक बेंच पे बैठ गए जिसपे पहले से ही एक व्यक्ति बैठे थे. “अरे यार उसको बोलो ये करोड़ो का सवाल है!” राकेश जी ने मोबाइल पे बात करते हुए थोड़ा ऊँचे स्वर में कहा. “देखो भाई मैं कल दुबई चला जाऊंगा उसके बाद मैं कोई मदद नहीं करसकता तुम्हारी, तुम्हे तो पता ही है मैं कितना व्यस्त आदमी हूँ और मुझे ये लाख-दस लाख से कोई मतलब नहीं है तुम्हे तो पता ही...” राकेश जी बोलते-बोलते रुक गए. फ़ोन अचानक से कट जाने पे उन्होंने अपना मोबाइल देखा और शुक्ला जी और अशोक जी को सुनाने के लिए थोड़ा ज़ोर से बोले, “ये नेटवर्क भी ना! बताइए साहब मेरी यहाँ करोड़ो की डील अटकी हुई है और ये नेटवर्क चला गया.” शुक्ला जी और अशोक भाई ने आश्चर्य से राकेश जी की तरफ देखा. बिचारों को क्या पता था की राकेश भाई चवन्नी के भी मोहताज थे. “जी आप चाहें तो मेरे मोबाइल से बात कर लीजिये.” शुक्ला जी ने बोला. “अच्छा लाइए आप इतना कह रहे हैं तो कर ही लेता हूँ बात”. राकेश ने मोबाइल लिया और कुछ कदम दूर पे खड़े होकर किसी को फोन मिलाया, “हेल्लो!”
“अबे साले हेल्लो-हाए मत करो, ये बताओ हो कहा तुम?, साले पिछले दो घंटे से यहाँ चूतिया की तरह खड़े हैं हाथ में बल्ला और विकेट लेके और तुम लोग मरा रहे हो! खेलने नहीं आना था तो बुलाया क्यूँ आराम से मैं सो रहा था घर में!” सौरभ ने गुस्से से फोन पे बोला. वो बीस साल का युवक था जिसे खेलना अच्छा लगता था लेकिन थकना नहीं. सुबह सात बजे से अपने दोस्तों का इंतज़ार कर रहा था लेकिन वो लोग अभी तक आए ही नहीं थे. काफी देर तक वो कंपनी बाग के मैदान में टहल रहा था फिर थक कर उसी बेंच पे बैठ गया जिसपे सुरेश बैठा था. सुरेश अभी भी काफी परेशान था. उतरा हुआ सा चेहरा और आँखों में नमी अभी भी बरक़रार थी. “भाई टाइम कितना हुआ है?” सुरेश ने सौरभ से पूछा. “समय तो ख़राब है यार, वैसे 11 बजने में दस मिनट बाकी है.” सुरेश अपने ही आप में इतना परेशान था की उसे सौरभ की परेशानी पूछने का होश नही था.
(शेष कहानी अगले भाग में....)
 

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