लेखक: आशुतोष अस्थाना
(शेष कहानी अगले भाग में.....)
तभी बाग में एक चमचमाती
गाड़ी ने प्रवेश किया. गाड़ी आकर मैदान के एक कोने में रुकी और ड्राईवर ने रोकने के
बाद दरवाज़ा खोला. उसमें से अधेड़ उम्र के पती-पत्नी उतरे. चेहरे की झुरियां साफ़ बता
रही थी की दोनों सत्तर साल से ऊपर थे. पत्नी थोड़ा बहुत चल ले रही थीं लेकिन पती जी
छड़ी का इस्तेमाल करते थे चलने में. दोनों मैदान में आकर टहलने लगे और कुछ दूर तक
चलने के बाद दोनों एक बेंच पे बैठ गए. दूर खड़ा उनका ड्राईवर अब तक अपनी दूसरी
सिगरेट सुलगा रहा था. “हिम्मत रखिये मैं तो हूँ ना आपके साथ.” पत्नी ने बोला. “तुम
तो हो, लेकिन बुढ़ापे की लाठी तो नहीं है!” पती जी ने अपने जेब से एक सुनहरा पाइप
निकाला, उसको सुलगाया और धुआं उड़ने लगे. “आई मिस माय चिल्ड्रेन!” और इतना कह कर
पती जी की आँखों से आंसु आगये. “ओह! डिअर डोंट क्राई! तुम्हारी पत्नी तुम्हारे साथ
है, तो तुम्हे और किसी की क्या ज़रूरत.” इतना कह के उनकी आँखों से भी आंसू बहने
लगे. “करोडों रुपये कमाए मैंने, इतनी इज्ज़त कमाई, बस बेटों का प्यार ही नहीं कमा
पाया!” “ऐसे मत बोलो, उनकी किस्मत खराब है जो उन्हें पिता का प्यार नहीं मिल रहा
है!” पत्नी ने लम्बी साँस लेकर बोला और दोनो सामने खेल रही गिलहरियों को देखने
लगे.
“शू! हुश! भाग साली!” सौरभ
ने अपने पास बैठी एक गिलहरी को गुस्से से भगाया. अब उसका गुस्सा उबल रहा था. अभी
तक उसके साथी आए नहीं थे और वो पांच बार उनसे फोन करके बोल चुका था जल्दी आने के
लिए. वो बोर होरहा था तो टहलने लगा और सामने पड़े एक छोटे पत्थर को पैर से मारा,
पत्थर जाके थोड़ी दूर बैठे सूरज पे लगा जो पढ़ रहा था. “भाई ज़रा आराम से!” सूरज ने
धीरे से बोला. सूरज उन हज़ारों विद्यार्थियों में से एक था जो सिविल सेवाओं में
भरती होने का सपना लिए इलाहाबाद शहर में अपनी किस्मत अजमाने आते हैं. सूरज काफी
होनहार था लेकिन बिचारा परीक्षा में सफल नहीं होपाता था परन्तु सबसे अच्छी बात ये
थी की वो अपनी असफलताओं से डरता नहीं था. भदोही जैसे छोटे गाँव से आने के बावजूद
उसमें हीन भावना नहीं थी और बड़े शहर का सामना निडर होकर कर रहा था. हर रविवार को
सुबह से ही वो कंपनी बाग में पढ़ने आया करता था और पढ़ते-पढ़ते हलकी से झपकी लेलेता
लेकिन पिछले कुछ दिनों से वो लगभग हर शाम वहा आया करता था, पढ़ने के उद्देश्य से
नहीं, उसे प्यार होगया था. सूरज की रौशनी हर शाम अपने छोटे भाई और पड़ोस के एक
बच्चे को बाग में सैर कराने लाती थी और जबतक बच्चे खेलते थे वो अपनी पढाई करती थी.
उसे इस बात की ज़रा सी भी खबर नहीं थी की सूरज उसके लिए हर शाम वहा आता है. पिछली
शाम उसने रौशनी को कहते सुना था की रविवार की सुबह वो अपने भाई को घुमाने वहा
आयेगी. आज सूरज का पढाई में बिलकुल मन नहीं लग रहा था, उसे तो बस इंतज़ार था की कब
रौशनी आयेगी और सही मायनों में उसके दिन को रोशन कर देगी.
इंतज़ार तो कोई और भी कर रहा
था, फोन रखने का! राकेश जी पिछले एक घंटे से अशोक भाई के मोबाइल से बात कर रहे थे
और अब अशोक भाई का दिल बैठा जारहा था. बड़ी तकलीफ होती है जब आपके मोबाइल के पैसे
कोई और खर्च करे. “भाईसाहब अब मोबाइल देने की कृपा करेंगे!” अशोक ने थोड़ा धैर्य से
बोला. “अच्छा चलो कल मिलते हैं और मौसी को प्रणाम कहना.” “लीजिये साहब बहुत-बहुत
धन्यवाद फोन देने का.” “वैसे आप काम क्या करते हैं जनाब?” शुक्ल जी ने पूछा. “काम
का तो ऐसा है की बहुत फैला हुआ कारोबार है मेरा! अब आप समझ लीजये दुबई, बैंकाक तो
लगभग हर दिन जाना होता है! वैसे मैं इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का काम करता हूँ.” राकेश
जी ने बड़े ही गर्व से बोला. शुक्ला और अशोक जी को थोड़ा आश्चर्य हुआ की चमड़े की टूटी
हुई चप्पल पहनने वाला करोड़पती कैसे होसकता है, लेकिन फिर ये सोच कर शांत होगए कि कलयुग है
साहब कुछ भी होसकता है.
कलयुग तो था ही क्युंकि
सुनील सर अपनी प्रीय छात्रा अंजू के साथ आज बाग की शोभा बढ़ाने आए थे. “सर इस मौसम
को देख कर लग रहा है कि किसी अपने की बाहों में कैद होकर सो जाऊं!” अंजू ने पलके
झपका कर चेहरे को शर्म से लाल करके कहा. मास्टर जी समझ गए की उनकी छात्रा क्या
कहना चाहरही है. “आई लव यू अंजू!” सुनील सर ने अपने अनोखे आशिकों वाले अंदाज़ में
बोला. इसी अंदाज़ से लड़कियां उनपर फ़िदा होजाती थी. पढ़ाते-पढ़ाते लडकियों के सर पे
हाथ रख देना, कलम पकड़ने के बहाने उंगलियों को छूलेना और अपनी ही छात्राओं के
सौन्दर्य की तारीफ करना उनका हुनर था. उनके प्यार के किस्से विश्वविद्यालय में
प्रसिद्ध थे और अंजू उनकी सातवी या आठवी प्रेमिका थी. “चलो अंजू बाग की सैर करते
हैं”, ये कहते ही उन्होंने अपना हाथ अंजू के कंधे पे रख लिया और अंजू ने अपने
दुपट्टे को समाज से बचने का ढाल बना लिया. दोनों ने प्यार की बातें करना शुरू की
और मास्टर साहब के हाथ की पकड़ अंजू के कंधे पे मज़बूत होती गई.
अतुल और विजय उन दोनों को
टहलते देख रहे थे. दोनों विश्वविद्यालय के छात्र थे और सुनील सर की हरकत से वाकिफ
थे. “बाबा आज तो नई मुर्गी फासी है हमारे शिक्षक महोदय ने!” इतना कहते ही दोनों
हंसने लगे. क्लास ना करके कंपनी बाग में नींद लेने आना उनका चहेता काम था. “अबे
यार ई साला अब्दुलवा बड़ा हरामखोरी कर रहा है, साले को बोले रहे की नोट्स देदेना तो
कहिता है की क्लास में आया करो नोट्स बनाने!” विजय ने अतुल से कहा. “अच्छा! उस
भोसड़ीवाले की इतनी हिम्मत! पहले क्यों नहीं बताये बे अब पेलेंगे साले को!” अतुल ने
गुस्से से कहा. “अबे यार बड़े दिन होगए दारु नहीं मिली, कोई जुगाड़ करो बे!”, अतुल
ने अंगड़ाई लेते हुए कहा. “साले, मेरे बाप ने गुटके का पैसा भी रोक के रखा है
तुम्हे दारू की पड़ी है, सब उस कामिनी की वजह से, जब से मेरे बाप ने उससे शादी की
है तब से वो मेरी मार रही है!” विजय ने गुस्से से बोला. अतुल अब आँखे बंद कर मैदान
पे लेट गया था लेकिन विजय की आवाज़ से समझ गया की वो गुस्से में है. “लो बे अच्छा
सिगरेट पियो और गुस्सा उड़ाओ.” अतुल ने उसे अपनी सिगरेट जला कर दी और दूसरी ओर घूम
के सोने लगा. विजय ने सिगरेट का धुआं हवा में उड़ाया और रोआसी सी आवाज़ में धीरे से
बोला, “आज अगर माँ जिंदा होती तो मेरे साथ ऐसा ना होता!”
(शेष कहानी अगले भाग में.....)
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