लेखक: आशुतोष अस्थाना
बाग के एक कोने में जहा
उमंगें परवान चढ़ रही थी वही दूसरे कोने में सूरज अपनी रौशनी का इंतज़ार कर रहा था.
और कुछ ही देर में उसके इंतज़ार का अंत हुआ, रौशनी अपने भाई के साथ वहा आगई. उसे
देखते ही सूरज का चेहरा खिल उठा और वो उसके इर्द-गिर्द घूमने लगा. वो जहा भी जारही
थी, सूरज उसके पीछे-पीछे जारहा था. पहली बार जब उसने रौशनी को देखा था तब वो अपने
आप को भूल गया था. एक हफ्ते पहले ही उसको जिंदगी जीने का सही अर्थ में अनुभव हुआ
था. आज उसकी रौशनी पीले रंग के सलवार-कमीज़ में किसी परी की तरह लग रही थी. रौशनी
का भाई दस साल का था और वो उससे बहुत प्रेम करती थी इसी लिए उसके साथ खेलती, हँसती,
वो उसके लिए उसकी जिंदगी थी. कुछ देर अपने भाई के साथ फुटबॉल खेलने के बाद वो घास
पे बैठ गई और झोले से कोई उपन्यास निकाल के पढ़ने लगी. सूरज अभी उसे देख ही रहा था
की रौशनी के भाई की फुटबॉल उसके पास आगई. सूरज ने बॉल हाथ में उठाली और बच्चे को
देने लगा, “आप का नाम क्या है बेटा?”, सुने बड़े ही प्रेम से पूछा. बच्चे ने शरमाकर
जवाब दिया, “जी अनुज”. न जाने क्यूँ सूरज को उसका नाम जान के बड़ी ख़ुशी हुई, उसने
मन में सोचा की उसके ‘साले’ का नाम तो बड़ा अच्छा है. उसने सोचा की यही मौका है रौशनी
से बात करने का तो उसने अनुज से साथ खेलने के लिए पूछा और वो मान गया.
फिर क्या
था, वो और अनुज साथ खेलने लगे. तभी रौशनी का ध्यान उन दोनों की तरफ गया. अनुज को
किसी और साथ खेलता देख उसे सही नहीं लगा और उसने उसे चुरमुरा खिलने के बहाने अपने
पास बुला लिया. अनुज अपनी फुटबॉल सूरज के पास ही छोड़ कर चला गया. तभी सूरज ने
हिम्मत की और अनुज को उसकी बॉल लौटने उन दोनों के पास गया. “अनुज ये लो तुम्हारी
बॉल!”, अनुज ने उससे बॉल ली और रौशनी से कहा, “दीदी ये सूरज भैया हैं, यही मेरे
साथ अभी खेल रहे थे, ये बहुत अच्छे हैं!” रौशनी ने सूरज की तरफ देखा, अभी वो जन्नत
में था. पहली बार वो दोनों एक दूसरे की आँखों में देख रहे थे. “नमस्ते!” रौशनी ने
धीरे से कहा और अनुज को चूरमुरे वाले के पास लेजाने लगी. “अरे रुकिए आप को तकलीफ
कर रही हैं, मैं अनुज को दिलादेता हूँ चुरमुरा, चलो बेटा मैं दिलाता हूँ.” “अरे
नहीं आप रहने दीजिये, मैं दिलादुंगी!” रौशनी ने कहा. अब सूरज को समझ में नहीं आरहा
था की वो बात को कैसे आगे बढ़ाये, तो उसने खुद भी अपने लिए चुरमुरा खरीदने का सोचा
ताकी वो कुछ देर और रौशनी के साथ रह सके. “वैसे मेरा नाम सूरज है.” सूरज दिल
जोर-जोर से धड़क रहा था. “जी मेरा नाम रौशनी है”, उसने मुस्कुरा कर बोला. सूरज को
लगा की कही उसकी जान न निकल जाए क्युंकि रौशनी ने उसकी ओर मुस्कुराकर कुछ बोला था,
वो भी उससे. अब तो उसे कुछ नहीं समझ में आया की वो आगे क्या बोले. दोनों ने
चुरमुरा खरीदा और वहीं खड़े होकर खाने लगे. “आप क्या करते हैं?”, रौशनी ने पूछा.
सूरज घबरा गया, उसे समझ में नहीं आरहा था की वो क्या जवाब दे, “जी मैं, पढता
हूँ...पढाई...स्टूडेंट हूँ, यूनिवर्सिटी में, एम.कॉम कर रहा हूँ..”, इतनी परेशानी
तो उसे कभी किसी से बोलने में नहीं हुई थी. दोनों शांत होगये, अब बात कैसे आगे
बढ़ाये. “जी और आप क्या करती हैं?” “मैं भी यूनिवर्सिटी में हूँ, एम.ए कर कर रही
हूँ”. सूरज ने एक लम्बी साँस ली और सोच “मेरी होने वाली पत्नी पढ़ी-लिखी भी है!”
“साले लोट जाओ ज़मीन पे! वो
गेंद नहीं तुम्हारी इज्ज़त है! बचालो उसे बाउंड्री के बाहर जाने से!” सौरभ ने
चिल्ला कर अपने एक साथी से कहा. क्रिकेट का खेल पूरे ज़ोरों से चल रहा था,
चौके-छक्कों की बारिश के साथ गालियों की भी बारिश होरही थी. “साले हरामी अगर अब
तैं पिटवाया एक्को छक्का, तो माँ कसम तुम्हे नंगा करके पूरे कंपनी बाग में
दौड़ायेंगे!” सौरभ की टीम अच्छा प्रदर्शन कर रही थी और केवल 80 रनों पे दूसरी टीम
के 9 बल्लेबाज़ आउट होचुके थे. फिर से बारी आई सौरभ के ओवर की, ये मैच का आखिरी ओवर
था और इसके बाद सौरभ के टीम को बल्लेबाज़ी करनी थी. पहली दो गेंदों पे कोई रन नहीं
बने. तीसरी गेंद फेंकने के लिए सौरभ दौड़ा, लग रहा था की इस बॉल पे सामने खड़े
बल्लेबाज़ को आउट करदेगा लेकिन, गेंद सीधे बल्लेपे पड़ी और बल्लेबाज़ ने आगे बढ़ के
गेंद हवा में उठा दी, वो शानदार गेंद चक्के में तब्दील होगई!
गेंद सीधे जाके सुरेश के
बगल में गिरी और तभी उसका ध्यान टूटा. उसने उठ कर गेंद वापस करदी और आके फिर से
बेंच पे बैठ गया. उसने घड़ी में समय देखा तो एक बज गए थे. कंपनी बाग में हर रविवार
को स्पीकर पे गाने बजते थे, एक बजते ही पूरे बाग में गाने बजने लगे. “कहीं दूर जब
दिन ढल जाए, सांझ की दुल्हन बदन चुराए, चुपके से आए...” सुरेश को लगा शायद सभी को
पता है की आज वो परेशान है, इसीलिए गाने भी वैसे ही बज रहे हैं. “कभी तो ये जब हुई
बोझल साँसे भर आई बैठे-बैठे जब यूँ ही आँखें....”, अब उससे रहा नहीं गया और वो जाने
की तयारी करने लगा, बस वो उठा ही था की उसने देखा दूर से उसकी ख़ुशी, उसकी जिंदगी,
उसकी दिशा चली आरही थी. ख़ुशी की एक लहर उसके अन्दर दौड़ गई और आंसू की एक बूंद उसकी
आँखों से गिर पड़ी. वो सामने आके कड़ी होगई लेकिन दोनों ने कुछ नहीं बोला. दोनों फिर
से उसी बेंच पे बैठ गए पर एक शब्द नहीं बोला दोनों ने. आज सुरेश को दिशा से बोलने
में झिझक होरही थी, ये वही लड़की थी जिसे उसने अपनी जिंदगी के हर पहलु बताये थे.
काफी हिम्मत करने के बाद उसने दिशा से पूछा, “इतनी देर क्यों होगई?” दिशा भी शांत
थी, सुरेश ने आँख के कोने से उसे देख रहा था और उसे लग रहा था की वो रो रही है.
“घरवाले जाने नहीं देरहे थे. मैं दोस्त के यहाँ जाने का बहाना बना के आई हूँ!” फिर
से वही शांति, आज दोनों को वो चुभ रही थी. “रहलोगी मेरे बिना?” सुरेश ने सीधा सवाल
पूछा, दिशा ने सिर्फ रो कर उसका जवाब दिया. “खुश रहोगी मेरे बिना?”, दिशा शांत थी,
गले को साफ़ करके बोली, “नहीं!” बस उसका नहीं था सुरेश के दुखते दिल का मरहम. दोनों
फूट-फूट के रोने लगे. सुरेश ने अपना हाथ उसके कंधे पे रख लिया, “याद है हम जब भी
यहाँ आते थे तो कभी एक दूसरे का हाथ बिना पकडे नहीं बैठते थे!” सुरेश ने दिशा से
कहा. “आज तुम्हे ठान लिया है की मुझे और रुलाओगे!” दिशा और ज़्यदा रोने लगी. “मैं
तुमसे बहुत प्यार करता हूँ दिशा! और मैं तुम्हे कही नहीं जाने दूंगा!” ये दिशा के
जलते दिल पे मरहम था. उन आंसुओ में भी दिशा ने ये सुन के मुस्कुरा दिया. उसकी हँसी
ही तो सुरेश को प्राण देती थी. वो फिर से जीवित होगया.
(शेष कहानी अगले भाग में....)
waah mere cheetey magar yaar isme itne logon ki story daal di hai ki woh aapas mein confuse si lag rahi hai......yaad karna padta hai ki pehle kya hua tha
ReplyDeleteThank you Deepankar for this lovely comment, felt good that my close friends are reading my stories.....I am sorry for the inconvenience caused to you, but the real aim of this story was to show different types of people having different problems who come to the place. unke jeevan mein ek hi waqt mein kya horaha hai, ye show karna tha...so it was necessary, but I will try to live up to your expectations. thank you again and stay connected with "the world within......"
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