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Tuesday, 25 March 2014

कंपनी बाग (भाग- 5)

                         लेखक: आशुतोष अस्थाना




लेकिन सरकार को तो कुछ करना ही होगा!!”, ज्ञानियों की चर्चा में से एक ने कहा. अशोक जी के सिर्फ एक वाक्य से जंग सा माहौल बन गया था. अपने आप को अधिक बुद्धिमान दर्शाने के लिए उन्होंने कहा था लड़कियां खुद ही गलत करती हैं इसी वजह से उनके ऊपर कई तरह अत्याचार होरहे हैं. “अंकल कोई भी लड़की अपना बलात्कार खुद नहीं करवाना चाहती है, कोई लड़की अपनी इज्ज़त से खुद खिलवाड़ नहीं कर वाना चाहती है, ये तो गंदे लोगों की गन्दी नज़र का दोष है!”, वहा बैठी एक छात्रा ने कहा. अब तो अशोक जी अपने आप को बचाने में लग गए. “अरे बेटा मेरा वो मतलब नहीं था!”, “अंकल आप ने औरतों के सम्मान को ठेस पहुचाई है!”, एक ने कहा. “नहीं बेटा मैं तो...”, “आप जैसे लोगों की वजह से लड़कियों को न्याय नहीं मिल पाता!” दूसरे ने कहा. “लेकिन मैं....”, “जी आप की भी तो पत्नी होगी, माँ होगी, बेटी होगी, बहन होगी, ज़रा उनकी भी तो सोचिये!” कोई भी अशोक जी को बोलने नहीं देरहा था और शुक्ला जी ने तो मानो मौन व्रत धारण कर लिया था. अशोक जी को तुरंत एक ख़याल आया, वो उठे, जेब से मोबाइल निकाला और ऐसा दिखाने लगे की किसी ने उन्हें फोन किया है. “हेल्लो! हाँ जी बताइए, जी! तेज़ बोलिए! आवाज़ नहीं आरही है!”, इसी बहाने वो वहा से कुछ दूर चले गए और तुरंत वही बैठे शुक्ला जी को फोन मिलाया. “भाईसाहब जल्दी आप भी आजाइए नहीं तो वहा और देर बैठे तो किसी बड़ी मुसीबत में फस जायेंगे!” शुक्ला जी को अशोक की बात में दम लगा और वो भी यही नाटक करके अशोक जी के साथ हो लिए. “आज तो बाल-बाल बचे शुक्ला जी!” “हाँ भाई अब बेहतर यही होगा की यहाँ से निकल लें हम दोनों!” दोनों तेज़ चलते हुए अपनी मोटरसाइकिल की तरफ गए, और कंपनी बाग से निकल गए.

साँसे तेज़ चल रही थी, दिल तेज़ धड़क रहा था, और वातावरण बिलकुल शांत था लेकिन मानस की बेचैनी असीम थी! हदें पार होचुकी थी और हर बाँध टूट चुका था! मास्टर जी ज़मीन पे पड़ी अपनी कमीज़ को उठा कर पहनने लगे, अंजू भी भूमी पे पड़ी अपनी आबरू को समेट रही थी, वो अपने वस्त्रों को व्यस्वस्थित कर ही रही थी की अचानक उसे ध्यान आया की अब चरित्र को पुनः कैसे व्यवस्थित करे. उसने झुकी हुई नज़रों से सुनील की तरफ देखा जो पेड़ से टेक लगाये, आँखें बंद किये, सिगरेट पी रहा था. अंजू ने कुछ नहीं बोला, पलके अभी भी झुकी हुई थी, नज़रों में लाज थी, शरीर काँप रहा था, फिर भी उसने अपने आप को संभाला माथे से पसीने को पोंछा और सुनील के बगल में जाके बैठ गई. सुनील भी बिलकुल शांत था और उसके हाव-भाव से ऐसा लग ही नहीं रहा था की उसने अभी-अभी सामाजिक दीवारों को तोड़ा है! अंजू को समझ नहीं आरहा था की उससे बात कैसे शुरू करे, उसे बहुत कुछ बोलना था, बहुत कुछ सुनना था, मन में उठ रहे तूफ़ान को शांत करना था मगर कैसे? थोड़ी देर बाद जब सुनील की सिगरेट खत्म होगई तब उसने अपनी आँखें खोली. अंजू दूसरी ओर देख रही थी, सुनील ने अपनी घड़ी में समय देखा तो 3 बज रहे थे.
“बड़ी देर होगई, अब हमे चलना चाहिए, क्यूँ अंजू?” अंजू ने उसकी ओर देखा और सिर्फ इतना कह सकी, “आई लव यू सुनील जी!” सुनील ने उसकी आँखों में देखा और मुस्कुराने लगा. “अच्छा जी, ये तो बड़ी ही अच्छी बात है! तो अब चलें?” वो चलने के लिए उठ गया. अंजू भी उठ गई लेकिन उसकी नज़रे उसके चेहरे पे टिकी हुई थी. “जिंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम....वो फिर नहीं आते...” “हम शादी कब करेंगे?” अंजू ने धीरे से पूछा. सुनील फिर से मुस्कुरा दिया, “शादी! और तुमसे! दिन में सपने देख रही हो क्या!” “क्या मतलब! अभी तो हमने....” अंजू आगे न बोल सकी और उसकी आँखों में आंसु आगये. “क्या अभी हमने! देखो आज संडे है और मैं घर में बोर होरहा था, बस इसीलिए मैंने तुम्हे यहाँ बुलाया की हम दोनों का थोड़ा समय बीते. बस हमने अभी समय बीताया, अब घर जाओ और पढाई में मन लगाओ, और हाँ, परेशान मत हो, मैं तुम्हे पास करवा दूंगा, वो भी फर्स्ट डिवीज़न! तुम्हे क्लास करने की भी ज़रूरत नहीं है.” अंजू मास्टर जी को देखती रहगई. “फूल खिलते हैं, लोग मिलते हैं, पतझड़ में जो फूल मुरझा जाते हैं वो बहारों के आने से मिलते नहीं....एक बार चले जाते हैं जो दिनों रात सुबह शाम, वो फिर नहीं आते, वो फिर नहीं आते!!” “लेकिन मैं आप से प्यार करती हूँ!” अंजू ने रोते-रोते कहा. “देखो! मेरे गले पड़ने की कोशिश मत करो, तुम जैसी लड़कियों को मैं बहुत अच्छे से जनता हूँ, पास होने के लिए और अपना नाम प्रसिद्ध करने के लिए किसी के साथ भी कही चली जाती हो!” अंजू अपने घुटनों पे गिर गई, और फूट-फूट के रोने लगी. “तुम्हे पास करा दूंगा बस इससे ज़्यदा मुझसे कोई उम्मीद मत करना. और ये सब भूल कर भी किसी को मत बताना क्युंकि सारा शहर जनता है मैं आशिक हूँ जिसका दिल किसी न किसी पे आता रहता है, तो मेरी बदनामी तो नहीं होगी, कम से कम अपने बारे में सोचना!” सुनील ने अंजू के सर पे हाथ रखा और उसके कान में बोला, “वैसे मज़ा आया!” और हँसते-हँसते चला गया. वो वही बैठी रोती रही, अपने आप को कोसती रही. जब थक गई तो धीरे से उठी, और अपने चेहरे को दुपट्टे से ढकने लगी, तभी कुछ समय पहले का दृश्य आँखों के सामने आगया! उसने फिर चेहरे से दुपट्टा हटा दिया और आंसू पोछते-पोंछते वहा से चली गई.
“चल बे अब उड़ा छक्का और घर चल बहुत देर होगई है!”, सौरभ की टीम के एक सदस्य ने उससे चिल्ला कर कहा. सौरभ की टीम को जीतने के लिए 6 रन चाहिए थे दो गेंदों पे और सौरभ बल्लेबाज़ी कर रहा था. गेंदबाज़ ने ओवर की पांचवी गेंद फेंकी और, कोई रन नहीं. सौरभ के ऊपर टीम को जिताने का बोझ था. तनाव बढ़ गया था. पिछली बार जब उनलोगों ने खेला था तो सौरभ की टीम हार गई थी, आज सौरभ वही पल दौहराना नहीं चाहता था. गेंदबाज़ ने दौड़ना शुरू किया, सौरभ ने अपने कदम और आँखें जमा ली. गेंदबाज़ दौड़ते हुए आया और पूरे बल के साथ गेंद सौरभ की ओर फेंकी. अभी गेंद हवा में ही थी की सौरभ ने आगे बढ़ के गेंद को पूरे दम से मारा. गेंद हवा में उठ गई. गेंद को लपकने सब दौड़े लेकिन वो छक्के में बदल चुकी थी. सौरभ की टीम जीत गई.
गेंद सूरज के सर पे जाके गिरी. “आ...!!!” सूरज ज़ोर से चिल्लाया, तभी ध्यान आया की रौशनी भी वही बैठी है, उसके सामने दर्द दिखायेगा तो मर्द नहीं कहलायेगा! तभी उसने अपने दर्द को दबाया, और सिर्फ आंखें बंद करके रह गया. “अरे! आपको चोट तो नहीं लगी, दिखाइए ज़रा! बहुत दर्द होरहा है क्या? आप ठीक हैं ना?” रौशनी अपने हाथों से सूरज के सर को सहलाने लगी. वो सूरज की जिंदगी का सबसे हसीन पल था. “मैं ठीक हूँ, आप परेशान मत होइये!” सूरज ने रौशनी से कहा. तबतक बॉल गेंद लेने के लिए एक लड़का भाग के आया. “सॉरी भैया! गलती से बॉल इधर आगई थी!” “अरे कोई बात नहीं यार मैं तो इस बॉल का शुक्रगुज़ार हूँ, इसी की वजह से मेरी रौशनी ने मुझे छुआ है” सूरज ने अपने मन में कहा. “कोई बात नहीं, बस अगली बार ध्यान से खेलना”, सूरज ने मुस्कुराकर कहा.
(शेष कहानी अगले भाग में....)
 
 
 

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