Translate

Thursday, 20 March 2014

कंपनी बाग (भाग- 3)


                             लेखक: आशुतोष अस्थाना
 
12 बज रहे थे और बाग में भीड़ भी बढ़ गई थी. सौरभ के साथी भी आगये थे और क्रिकेट का खेल मैदान में शुरू होने वाला था. सुरेश अभी भी उसी बेंच पे बैठा था, अकेला तनहा अपने कल को याद कर रहा था और अपने कल के लिए बड़ा ही चिंतित था. “हम एक नहीं होसकते सुरेश!” दिशा ने रोते-रोते बोला. “अरे! हेल्लो ना हाय सीधे मज़ाक शुरू, अच्छा पहले ये बताओ मैं शाम के सात बजे से इंतज़ार कर रहा हूँ तुम्हारे फोन का और तुम्हे 11 बजे समय मिला है मुझे फोन करने का, मेरी याद नहीं आती ना, हाँ वैसे याद क्यों आएगी मैडम को, हम लगते कौन हैं आपके....” सुरेश अभी दिशा से मज़ाक कर ही रहा था की दिशा ने बीच में ही उसे रोक दिया. “सुरेश!”, “हाँ सुन तो रहा हूँ, वैसे अच्छा किया इतनी रात में फोन किया, अपनी जान की आवाज़ सुन के नींद अच्छी आएगी.....”, “सुरेश! अब ये सब कुछ नहीं होगा!” सुरेश नहीं समझ पाया की दिशा क्या कह रही ही, “मतलब, क्या नहीं होगा?” “हमारी शादी नहीं होसकती, मेरे मम्मी-पापा मेरी शादी कही और कर रहे है, मैंने बताया उन्हें हमारे बारे में लेकिन वो माने नहीं!”, शांति, एक लम्बी दर्दनाक शांति! “कुछ तो बोलो सुरेश!” दिशा ने झुंझला कर कहा. हमेशा खुश रहने वाला सुरेश ये सब सुन के टूट गया था, वो ज़्यदा कुछ नहीं बोल सका सिर्फ इतना ही कहा, “देखो मना मत करना, कल मुझसे कंपनी बाग में मिलो, दस बजे तक. मैं तुम्हारे बिना नहीं रहसकता!” और उसने फोन रख दिया.
“साले ने फोन तो रख दिया लेकिन पूरा पैसा चट कर गया यार!”, अशोक ने शुक्ला से बोला. “अरे तो आपने दे क्यों दिया था जनाब ऐसे ही किसी को नहीं देदेना चाहिए मोबाइल, अच्छा चलो उधर चलते है सीढ़ियों के पास वहा बैठते हैं कुछ देर.” दोनों उठ कर सीढ़ियों पे जाकर बैठ गए. वहा कुछ विद्यार्थी बैठ कर पढ़ रहे थे. उन्हें देख कर अशोक जी और शुक्ला जी दोनों ज्ञानी होने का अनुभव करने लगे. “आप को क्या लगता है शुक्ला जी ये यूक्रेन वालों का क्या होगा, जैसे हालत होरहे हैं लगता है की तीसरा विश्व युद्ध होकर रहेगा.” शुक्ला जी काफी चिंतन करने के बाद बोले, “कुछ कहा नहीं जासकता अब देखिये क्या होता है लेकिन अमेरिका संभाल लेगा परिस्थितियों को.” वहा बैठे 2-3 छात्रों ने उन दोनों की बातों में आनंद लेना शुरू कर दिया था और कुछ ही देर में वहा अमेरिका, रूस और तमाम बड़े देशों के ऊपर चर्चा शुरू होगई.
उस चर्चा से काफी दूर एक बेंच पे वो बूढ़े दम्पति अपने बच्चों के व्यवहार पर अभी भी चर्चा कर रहे थे. “याद है रिषभ और वरुण को मेरे साथ ऑफिस जाना कितना पसंद था बचपन में. जैसे ही कार में बैठते थे वैसे ही दोनों को नींद आने लगती थी और दोनों मेरी ही गोद में सर रख के सोजाते थे. विडियो गेम खरीदने की ज़िद जब करते थे तो ले कर ही शांत होते थे.” पती की आँख में आंसु देख कर उनकी पत्नी ने अपना हाथ उनके कंधे पे रख दिया. “मैं उनका हीरो था कभी! और आज वो हम दोनों की तरफ देखते भी नहीं, क्या पैसे का प्यार ज़्यदा बड़ा होता है माता-पिता के प्यार से?” इस सवाल का कोई जवाब नहीं था उनकी पत्नी के पास और दोनों फिर अपने बच्चों की बच्चों की यादों में खो गए.
स्टंप गड़ गए थे, पिच बन गई थी, गेंदबाज़ और बल्लेबाज़ दोनों तयार थे. सौरभ ने पहले गेंद फेकने का फैसला किया. “भाई आउट करो साले को!” उसके एक दोस्त ने बोला. सौरभ अच्छा गेंदबाज़ था. उसने अपनी जगह ली और दौड़ना शुरू किया, पूरी रफ़्तार से पहली गेंद फेंकी, और, आउट!! “जियो रजा! लौंडा हीरा है हीरा!” सौरभ के टीम में से एक लड़के ने उसकी पीठ ठोकते हुए कहा. ओवर की बाकी पांच गेंदों को भी सौरभ ने बड़ी ही चतुराई से फेंका.
उधर मैदान में जब वो सब होरहा था, तभी यहाँ मास्टर साहब के मिजाज़ कुछ ज़्यादा ही आशिक़ाना होरहे थे. उनदोनों ने भुनी हुई मूंगफली खाने के लिए खरीदी थी. सुनील जी अंजू को अपने हाथ से मूंगफली खिला रहे थे और बीच-बीच में खिलने के बहाने उसके होठों को छूलेरहे थे. अंजू इससे शर्मा जारही थी और मुस्कुरा कर नीचे देख रही थी. मास्टर जी अंजू के साथ बाग के पीछे वाले हिस्से में टहल रहे थे जहा काफी बड़ी झाड़ियाँ और पेड़ थे और ज़्यादा लोग नहीं आते थे. थकने का बहाना बना कर मास्टर जी अंजू के साथ वही एक घनी झड़ी के पीछे जगह बना कर बैठ गए. थोड़ी देर बातें करने के बाद उन्होंने अपने आप को अंजू की गोद में आराम दिया. “तुम्हारी आँखें बहुत सुन्दर है अंजू, जैसे मोती हों!” बस इतना कहते ही उन्होंने अंजू की आँखों को चूम लिया. और उसके कंधे पे अपना सर रख लिया. “मैं आप की ही तो हूँ.” छात्रा जी ने शर्म के कारण गुरु जी की बात का विस्तृत जवाब नहीं दिया. आज अगर वो उत्तर पुस्तिका अधूरी भी छोड़ के आती तो मास्टर जी उसे पूरे अंक देते. अब सुनील से रहा नहीं गया और उन्होंने अंजू का चेहरा अपनी ओर घुमाया और उसके होठों को चूमने लगे. अंजू कुछ असहज सा मेहसूस करने लगी और अपने आप को थोड़ा सा पीछे किया. “अभी ये सही नहीं होगा सुनील जी!” उसने धीरे से बोला. उसे नहीं पता था की सुनील को सही-गलत से कोई मतलब नहीं था, उन्हें तो बस अपनी ज़रूरत पूरी करनी थी. “हम प्यार करते है एक दूसरे से, ये बिलकुल सही है, जैसे मेरी पढाई हुई चीजों पे विश्वास करके तुम उसे पढ़ती हो वैसे इसमें भी विश्वास करो मेरा!” जिस अपनेपन से सुनील ने अंजू की आंख में आंखें डाल के बोला, वो उनकी बातों में तुरंत आगई और उसके शरीर को ढीला होता मेहसूस कर उसने अपने इरादों पे पड़ी लगाम को हटा दिया. धीरे से उसके दुपट्टे को उसके शरीर से हटा कर बगल रख दिया और अपने हाथों से उसके शरीर का स्पर्श करने लगा. मास्टर जी ने अपनी प्रीय छात्रा को नया पाठ पढ़ाना शुरू कर दिया. इज्ज़त ढकने वाली वो ढाल ज़मीन पे पड़ी धूल खारही थी!!
 
(शेष कहानी अगले भाग में...)
 

3 comments:

  1. Hi lakhek mahoday Maine aapki kai kahaniya padhi..par is kahani mein kuch kam ruchi aayi aur wo isliye kyonki is kahani mein kai patra hai aur jab tak mein kisi patra ko Samajhta hoon rabbi dusre ki aur thodi Der baad teesri ki..ye kahani aisi movie ki tarah hai jismein 6 se jaayeda hero hon aur viewers kisi character se bhi inspire naa ho paa rahe hain..ye comments mere hain kripya Isse dusre manne mein naa le..aakhri mein kehna chahoon "different comments comes with different perceptions"..keep posting as people learn from these real life blog"

    ReplyDelete
    Replies
    1. thank you for your reply Mr. Nitin Asthana, I appreciated it as it will help me as a story writer in the long run. I would only like to say that portraying many characters was only the need of the script, but I think my implementation went wrong somewhere. I will keep this in mind in future. Stay connected with The World Within...enjoy!!!

      Delete
  2. Wah! bahut khub.
    kya likha hai aapne Aasutosh ji, 'इज्जत ढकने वाली वो ढाल ज़मीन पे पडी धूल खा रही थी।'

    ReplyDelete