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Tuesday, 20 May 2014

लारा ( भाग- 1)


                           लेखक: आशुतोष अस्थाना
             
                       (मेरे पहले दोस्त की स्मृति में....)






“इस समस्या का कुछ तो करना होगा चाचा!” कालू ने डरते हुए कहा. “....लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं कालू बेटा, हमारे पास ना तो इतनी हिम्मत है और ना ही इतने साथी है की उनका सामना कर सके!”, चाचा ने धीरे से बोला. “चाचा क्यों न हम बाहर के किसी को.....”, सिट्टू ने बोला. “नहीं! नहीं! बाहर के किसी को हमारी मदद के लिए बुलाना सही नहीं होगा क्युंकि वो इतने खतरनाक हैं की उनके खिलाफ कोई नहीं खड़ा होगा और हो भी गया तो नुकसान हमारा ही होगा. अब इस मुसीबत से हमे खुद निकलना होगा.” तभी भीकू भी वहा आगया और सबकी बातें सुनने लगा. उसको देख चाचा ने बोला “अरे बेटा तुम यहाँ क्या कर रहे हो, अभी तक सोये क्यों नहीं?” “मुझे दल लगला है दादा जी!” भीकू ने उदास होकर बोला. “अरे तू तो मेरा बहादुर पोता है, तुझे क्यों डर लगरहा है! अच्छा चलो मैं तुम्हे तुम्हारी माँ के पास छोड़ देता हूँ.” चाचा भीकू को लेकर जाने लगे की पीछे से घीसू ने बोला, “अरे चाचा लेकिन ये बात तो रह गई!” चाचा ने उन सबकी ओर देखा और मुस्कुरा कर बोले, “ये बात खत्म नहीं होने वाली है, कल सुबह फिर से कर लेंगे, अभी तुम सब जाके सो जाओ.”

चाचा भीकू को लेकर उसकी माँ के पास जाने लगे. दोनों नाले के बगल से होते हुए अपने घर की ओर बढ़ रहे थे. चाचा ने अपनी पूरी जिंदगी इसी इलाके में बिता दी थी. जिंदगी का इतना तजुर्बा था उन्हें की सब उनके पास ही समस्या लेकर आते थे. भूरे रंग का पतला शरीर था जिसमें सिर्फ हड्डियां ही रह गई थी. बुढ़ापे ने काफी कमज़ोर कर दिया था और परिस्थितियों ने तोड़ दिया फिर भी जीवन का संघर्ष जारी था. यूँ तो पूरा जीवन सड़क पर ही बीता था लेकिन सोच हमेशा किसी बड़े घर के पालतू जैसी थी. शरीर के सारे बाल झड़ चुके थे और किसी लड़ाई में आधी पूंछ भी कट चुकी थी. शरीर पे कई पुरानी लड़ाइयों के निशान अभी भी कायम थे. चेहरे पे काले रंग के हलके धब्बे थे लेकिन आवाज़ से अभी भी किसी को डरा सकते थे. चोट के कारण एक पैर से लंगड़े होचुके थे और यही वजह थी की इंसानों की उस घनी बस्ती में उस बूढ़े कुकुर को ‘लंगड़ा कुत्ता’ की उपाधि मिली थी.

“भोली!..... भोली!, देखो तुम्हारा बेटा डर रहा है संभालो इसे!” चाचा जी ने हाँफते-हाँफते बोला. भोली हलके सुनहरे रंग की कुतिया थी जिसे अपने पती के मर जाने के बाद जिंदगी से कोई लगाव नहीं था, उसका बेटा ही अब उसका सहारा था लेकिन जिंदगी के दुःख से वो उसका भी ठीक तरह से ध्यान नहीं रख पाती थी. कोई अगर रोटी फेक देता तो खालेती थी नहीं तो दिन भर भूकी रहती थी. यही कारण था की भीकू अपने दादा के साथ ही रहता था. भीकू के दादा उसे हमेशा कहानी सुनाया करते थे अपने समय की और उसे निडर बनने की सीख देते थे.

भीकू को सुलाने के बाद उसकी माँ भी सो गई. एक बड़े से पुराने ठेले के नीचे उनका घर था. चाचा जी को नींद नहीं आरही थी इसलिए वो सड़क पर जाकर बैठ गए. उनको अभी भी वही परेशानी सता रही थी. पिछले कुछ महीनो से किसी दूसरे इलाके के कुत्ते उनके इलाके में आने-जाने लगे थे जो अब उनके इलाके के सारे कुत्तों को परेशान कर रहे थे. सुनने में आया था की वो सब उस इलाके से इसलिए भाग-भाग के यहाँ आजाते थे क्युंकि वहा कुत्ते पकड़ने की सरकारी गाड़ी का खतरा लगातार बना रहता था. वो इतने खतरनाक थे की आस-पास के इलाकों के कुत्ते उनसे बहुत डरते थे. चाचा को यह चिंता सता रही थी की उनके शांत इलाके में आकर वो शैतान उन सभी को बेघर कर के पूरी तरह से वहा कब्ज़ा ना कर लें और मार न डालें जिस तरह उनलोगों ने भीकू के पिता को मार डाला था! भीकू का पिता उस इलाके का सरदार था, लेकिन सरदार की ही हत्या होजाने के बाद अब सभी को अपनी-अपनी चिंता होरही थी. अपने बेटे को याद करके चाचा की आँखों में आंसु आगये. उनको इस बात का सबसे ज़्यादा डर था की वो बाहरी कुत्ते उनके पोते भीकू को न मार डालें. “हमारी मदद करो भगवान!! मेरा भीकू तो अभी सिर्फ चार महीने का है और मैं उसे भी नहीं खोना चाहता! हमारी मदद करो!” इतना बोल के चाचा रोने लगे. उनके रोने की आवाज़ पूरे मोहल्ले में चैन से सोते मानवों के कानों में शोर बन के चुभने लगी.

(शेष कहानी अगले भाग में.....)

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